अध्याय 18 चुनौती हिमालय की (यात्रा वर्णन)

जोज़ीला पास से आगे चलकर जवाहरलाल मातायन पहुँचे तो वहाँ के नवयुवक कुली ने बताया, “शाब, सामने उस बर्फ़ से ढके पहाड़ के पीछे अमरनाथ की गुफा है।”

“लेकिन, शाब, रास्ता बहुत टेढ़ा है।” किशन ने कुली की बात काटी। “बहुत चढ़ाई है। और शाब, दूर भी है।”

“कितनी दूर ?” जवाहरलाल ने पूछा।

“आठ मील, शाब,” कुली ने जल्दी से उत्तर दिया।


“बस! तब तो ज़रूर चलेंगे।” जवाहरलाल ने अपने चचेरे भाई की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली। दोनों कश्मीर घूमने निकले थे और जोज़ीला पास से होकर लद्दाखी इलाके की ओर चले आए थे। अब अमरनाथ जाने में क्या आपत्ति हो सकती थी? फिर जवाहरलाल रास्ते की मुश्किलों के बारे में सुनकर सफ़र के लिए और भी उत्सुक हो गए।

“कौन-कौन चलेगा हमारे साथ?” जवाहरलाल ने जानना चाहा।

तुरंत किशन बोला, “शाब मैं चलूँगा। भेड़ें चराने मेरी बेटी चली जाएगी।” अगले दिन सुबह तड़के तैयार होकर जवाहरलाल बाहर आ गए। आकाश में रात्रि की कालिमा पर प्रातः की लालिमा फैलती जा रही थी। तिब्बती पठार का दृश्य निराला था। दूर-दूर तक वनस्पति-रहित उजाड़ चट्टानी इलाका दिखाई दे रहा था। उदास, फीके, बर्फ़ से ढके चट्टानी पहाड़ सुबह की पहली किरणों का स्पर्श पाकर ताज की भाँति चमक उठे। दूर से छोटे-छोटे ग्लेशियर ऐसे लगते, मानो स्वागत करने के लिए पास सरकते आ रहे हों। सर्द हवा के झोंके हड्डियों तक ठंडक पहुँचा रहे थे।

जवाहर ने हथेलियाँ आपस में रगड़कर गरम कीं और कमर में रस्सी लपेट कर चलने को तैयार हो गए। हिमालय की दुर्गम पर्वतमाला मुँह उठाए चुौौती दे रही थी। जवाहर इस चुनौती को कैसे न स्वीकार करते। भाई, किशन और कुली सभी रस्सी के साथ जुड़े थे। किशन गड़ेरिया अब गाइड बन गया।

बस आठ मील ही तो पार करने हैं। जोश में आकर जवाहरलाल चढ़ाई चढ़ने लगे। यूँ आठ मील की दूरी कोई बहुत नहीं होती। लेकिन इन पहाड़ी रास्तों पर आठ कदम चलना दूभर हो गया। एक-एक डग भरने में कठिनाई हो रही थी।

रास्ता बहुत ही वीरान था। पेड़-पौधों की हरियाली के अभाव में एक अजीब खालीपन-सा महसूस हो रहा था। कहीं एक फूल दिख जाता तो आँखों को ठंडक मिल जाती। दिख रही थीं सिर्फ़ पथरीली चट्टानें और सफ़ेद बर्फ़। फिर भी इस गहरे सन्नाटे में बहुत सुकून था। एक ओर सूँ-सूँ करती बऱ्ीली हवा बदन को काटती तो दूसरी ओर ताज़गी और स्फूर्ति भी देती।

जवाहरलाल बढ़ते जा रहे थे। ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते गए, त्यों-त्यों साँस लेने में दिक्कत होने लगी। एक कुली की नाक से खून बहने लगा। जल्दी से जवाहरलाल ने उसका उपचार किया। खुद उन्हें भी कनपटी की नसों में तनाव महसूस हो रहा था, लगता था जैसे दिमाग में खून चढ़ आया हो। फिर भी जवाहरलाल ने आगे बढ़ने का इरादा नहीं बदला।

थोड़ी देर में बर्फ़ पड़ने लगी। फिसलन बढ़ गई, चलना भी कठिन हो गया। एक तरफ़ थकान, ऊपर से सीधी चढ़ाई। तभी सामने एक बर्कीला मैदान नज़र आया। चारों ओर हिम शिखरों से घिरा वह मैदान देवताओं के मुकुट के समान लग रहा था। प्रकृति की कैसी मनोहर छटा थीं आँखों और मन को तरोताज़ा कर गई। बस एक झलक दिखाकर बर्फ़ के धुँधलके में ओझल हो गई।


दिन के बारह बजने वाले थे। सुबह चार बजे से वे लोग लगातार चढ़ाई कर रहे थे। शायद सोलह हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर होंगे इस वक्त … अमरनाथ से भी ऊपर। पर अमरनाथ की गुफा का दूर-दूर तक पता नहीं था। इस पर भी जवाहरलाल की चाल में न ढीलापन था, न बदन में सुस्ती। हिमालय ने चुनौती जो दी थी। निर्गम पथ पार करने का उत्साह उन्हें आगे खींच रहा था। “शाब, लौट चलिए। वापस कैंप में पहुँचते-

पहुँचते दिन ढल जाएगा," एक कुली ने कहा।


“लेकिन अभी तो अमरनाथ पहुँचे नहीं।” जवाहरलाल को लौटने का विचार पसंद नहीं आया।

“वह तो दूर बर्फ़ के उस मैदान के पार है,” किशन बीच में बोल पड़ा।

“चलो, चलो। चढ़ाई तो पार कर ली, अब आधे मील का मैदान ही तो बाकी है,” कहकर जवाहरलाल ने थके हुए कुलियों को उत्साहित किया।

सामने बर्फ़ का सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। उसके पार दूसरी ओर से नीचे उतरकर गुफा तक पहुँचा जा सकता था। जवाहरलाल फुर्ती से बढ़ते जा रहे थे। दूर से मैदान जितना सपाट दिख रहा था असलियत में उतना ही ऊबड़-खाबड़ था। ताज़ी बर्फ़ ने ऊँची-नीची चट्टानों को एक पतली चादर से ढककर एक समान कर दिया था। गहरी खाइयाँ थीं, गड्ढे बऱ़् से ढके हुए थे और गज़ब की फिसलन थी। कभी पैर फिसलता और कभी बर्फ़ में पैर अंदर धँसता जाता, धँसता जाता। बहुत नाप-नाप कर कदम रखने पड़ रहे थे। ये तो चढ़ाई से भी मुश्किल था, पर जवाहरलाल को मज़ा आ रहा था। तभी जवाहरलाल ने देखा सामने एक गहरी खाई मुँह फाड़े निगलने के लिए तैयार थी। अचानक उनका पैर फिसला। वे लड़खड़ाए और इससे पहले कि सँभल पाएँ वे खाई में गिर पड़े।

“शाब … गिर गए!” किशन चीखा।

“जवाहर …!” भाई की पुकार वादियों की शांति भंग कर गई। वे खाई की ओर तेज़ी से बढ़े।

रस्सी से बँधे जवाहरलाल हवा में लटक रहे थे। उफ़, कैसा झटका लगा। दोनों तरफ़ चट्टानें-ही-चट्टानें, नीचे गहरी खाई। जवाहरलाल कसकर रस्सी पकड़े थे, वही उनका एकमात्र सहारा था।

“जवाहर…!” ऊपर से भाई की पुकार सुनाई दी।

मुँह ऊपर उठाया तो भाई और किशन के धुँधले चेहरे खाई में झाँकते हुए दिखाई दिए। “हम खींच रहे हैं, रस्सी कस के पकड़े रहना,” भाई ने हिदायत दी।

जवाहरलाल जानते थे कि फिसलन के कारण यूँ ऊपर खींच लेना आसान नहीं होगा। “भाई, मैं चट्टान पर पैर जमा लूँ,” वह चिल्लाए। खाई की दीवारों से उनकी आवाज़ टकराकर दूर-दूर तक गूँज गई। हल्की-सी पेंग बढ़ा जवाहरलाल ने खाई की दीवार से उभरी चट्टान को मज़बूती से पकड़ लिया और पथरीले धरातल पर पैर जमा लिए। पैरों तले धरती के एहसास से जवाहरलाल की हिम्मत बढ़ गई।

“घबराना मत, जवाहर,” भाई की आवाज़ सुनाई दी।

“मैं बिल्कुल ठीक हूँ,” कहकर जवाहरलाल मज़बूती से रस्सी पकड़ एक-एक कदम ऊपर की ओर बढ़ने लगे। कभी पैर फिसलता, कभी कोई हल्का-फुल्का पत्थर पैरों के नीचे से सरक जाता, तो वह मन-ही-मन काँप जाते और मज़बूती से रस्सी पकड़ लेते। रस्सी से हथेलियाँ भी जैसे कटने लगों थीं पर जवाहरलाल ने उस तरफ़ ध्यान नहीं दिया। कुली और किशन उन्हें खींचकर बार-बार ऊपर चढ़ने में मदद कर रहे थे। धीरे-धीरे सरककर किसी तरह जवाहरलाल ऊपर पहुँचे। मुड़कर ऊपर से नीचे देखा कि खाई इतनी गहरी थी कि कोई गिर जाए तो उसका पता भी न चले।

“शुक्र है, भगवान का!” भाई ने गहरी साँस ली।

“शाब, चोट तो नहीं आई?” एक कुली ने पूछा।

गर्दन हिला, कपड़े झाड़ जवाहरलाल फिर चलने को तैयार हो गए। इस हादसे से हल्का-सा झटका ज़रूर लगा फिर भी जोश ठंडा नहीं हुआ। वह अब भी आगे जाना चाहते थे।

आगे चलकर इस तरह की गहरी और चौड़ी खाइयों की तादाद बहुत थी। खाइयाँ पार करने का उचित सामान भी तो नहीं था। निराश होकर जवाहरलाल को अमरनाथ तक का सफ़र अधूरा छोड़कर वापस लौटना पड़ा। अमरनाथ पहुँचने का सपना तो पूरा ना हो सका पर हिमालय की ऊँचाइयाँ सदा जवाहरलाल को आकर्षित करती रहीं।

$\quad$ सुरेखा पणंदीकर

(c) भारत सरकार का प्रतिलिप्याधिकार, 2007 । (1) आंतरिक विवरणों को सही दर्शाने का दायित्व प्रकाशक का है।
(2) समुद्र में भारत का जलप्रदेश, उपयुक्त आधार-रेखा से मापे गये बारह समुद्री मील की दूरी तक है।
(3) चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा के प्रशासी मुख्यालय चंडीगढ़ में है।
(4) इस मानचित्र में अरुणाचल प्रदेश, असम और मेघालय के मध्य में दर्शायी गयी अंतर्राज्यीय सीमायें, उत्तरी पूर्वी क्षेत्र (पुनर्गठन) अधिनियम 1971 के निर्वाचनानुसार दर्शित है, परंतु अभी सत्यापित होनी है।
(5) भारत की बाहय सीमायें तथा समुद्र तटीय रेखायें भारतीय सर्वेक्षण विभाग द्वारा सत्यापित अभिलेख / प्रधान प्रति से मेल खाती है।
(6) इस मानचित्र में उत्तरांचल एवं उत्तरप्रदेश, झारखंड एवं बिहार और छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश के बीच की राज्य सीमायें संबंधित सरकारों द्वारा सत्यापित नहीं की गयी है।
(7) इस मानचित्र में दर्शित नामों का अक्षरविन्यास विभिन्न सूत्रों द्वारा प्राप्त किया है।

कहाँ क्या है

1. (क) लेह लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश है। ऊपर दिए भारत के नक्शे में ढूँढ़ो कि लद्दाख कहाँ है और तुम्हारा घर कहाँ है?

(ख) अनुमान लगाओ कि तुम जहाँ रहते हो वहाँ से लद्दाख पहुँचने में कितने दिन लग सकते हैं और वहाँ किन-किन ज़रियों से पहुँचा जा सकता है?

(ग) किताब के शुरू में तुमने तिब्बती लोककथा ‘राख की रस्सी’ पढ़ी थी। नक्शे में तिब्बत को ढूँढ़ो।

वाद-विवाद

1. (क) बर्फ़ से ढके चट्टानी पहाड़ों के उदास और फीके लगने की क्या वजह हो सकती थी?

(ख) बताओ, ये जगहें कब उदास और फीकी लगती हैं और यहाँ कब रौनक होती है?

घर $\qquad$ $\qquad$ बाज़ार $\qquad$ $\qquad$ स्कूल $\qquad$ $\qquad$ खेत

2. ‘जवाहरलाल को इस कठिन यात्रा के लिए तैयार नहीं होना चाहिए।’

तुम इससे सहमत हो तो भी तर्क दो, नहीं हो तो भी तर्क दो। अपने तर्कों को तुम कक्षा के सामने प्रस्तुत भी कर सकते हो।

कोलाज

‘कोलाज’ उस तस्वीर को कहते हैं जो कई तस्वीरों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर एक कागज़ पर चिपका कर बनाई जाती है।

1. तुम मिलकर पहाड़ों का एक कोलाज बनाओ। इसके लिए पहाड़ों से जुड़ी विभिन्न तस्वीरें इकट्टा करो— पर्वतारोहण, चट्टान, पहाड़ों के अलग-अलग नज़ारे, चोटी, अलग-अलग किस्म के पहाड़। अब इन्हें एक बड़े से कागज़ पर पहाड़ के आकार में ही चिपकाओ। यदि चाहो तो ये कोलाज तुम अपनी कक्षा की एक दीवार पर भी बना सकते हो।

2. अब इन चित्रों पर आधारित शब्दों का एक कोलाज बनाओ। कोलाज में ऐसे शब्द हों जो इन चित्रों का वर्णन कर पा रहे हों या मन में उठने वाली भावनाओं को बता रहे हों। अब इन दोनों कोलाजों को कक्षा में प्रदर्शित करो।

तुम्हारी समझ से

1. इस वृत्तांत को पढ़ते-पढ़ते तुम्हें भी अपनी कोई छोटी या लंबी यात्रा याद आ रही हो तो उसके बारे में लिखो।

2. जवाहरलाल को अमरनाथ तक का सफ़र अधूरा क्यों छोड़ना पड़ा?

3. जवाहरलाल, किशन और कुली सभी रस्सी से क्यों बँधे थे?

4. (क) पाठ में नेहरू जी ने हिमालय से चुनौती महसूस की। कुछ लोग पर्वतारोहण क्यों करना चाहते हैं?

(ख) ऐसे कौन-से चुनौती भरे काम हैं जो तुम करना पसंद करोगे?

बोलते पहाड़

1. • $\underline{\text{\textbf{उदास}}}$ फीके बर्फ से ढके चट्टानी $\underline{\text{\textbf{पहाड़}}}$

  • हिमालय की दुर्गम $\underline{\text{\textbf{पर्वतमाला}}}$ मुँह उठाए $\underline{\text{\textbf{चुनौती}}}$ दे रही थी।

“उदास होना” और “चुचौती देना” मनुष्य के स्वभाव हैं। यहाँ निर्जीव पहाड़ ऐसा कर रहे हैं। ऐसे और भी वाक्य हैं। जैसे-

  • बिजली चली गई।
  • चाँद ने शरमाकर अपना मुँह बादलों के पीछे कर लिया। इस किताब के दूसरे पाठों में भी ऐसे वाक्य ढँढ़़ो।
एक वर्णन ऐसा भी

पाठ में तुमने जवाहरलाल नेहरू की पहाड़ी यात्रा के बारे में पढ़ा। नीचे एक और पहाड़ी इलाके का वर्णन दिया गया है जो प्रसिद्ध कहानीकार निर्मल वर्मा की किताब ‘चीड़ों पर चाँदनी’ से लिया गया है। इसे पढ़ो और नीचे लिखे प्रश्नों के उत्तर दो।

“क्या यह शिमला है-हमारा अपना शहर- या हम भूल से कहीं और चले आए हैं? हम नहीं जानते कि पिछली रात जब हम बेखबर सो रहे थे, बर्फ़ चुपचाप गिर रही थी।

खिड़की के सामने पुराना, चिर-परिचित देवदार का वृक्ष था, जिसकी नंगी शाखों पर रूई के मोटे-मोटे गालों-सी बर्प्र चिपक गईई थी। लगता था जैसे वह सांता-क्लॉॉज़ हो, एक रात में ही जिसके बाल सन-से सफ़ेद हो गए हैं $\ldots$ । कुछ देर बाद धूप निकल आती है- नीले चमचमाते आकाश के नीचे बर्फ़ से ढकी पहाड़ियाँ धूप सेंकने के लिए अपना चेहरा बादलों के बाहर निकाल लेती हैं।”

(क) ऊपर दिए पहाड़ के वर्णान और पाठ में दिए वर्णान में क्या अंतर है?
(ख) कर्ई बार निर्जीव चीज़ों के लिए मनुष्यों से जुड़ी क्रियाओं, विशेषण आदि का इस्तेमाल होता है, जैसे-पाठ में आए दो उदाहरण “उदास फीके, बर्फ़ से ढके चट्टानी पहाड़” या “सामने एक गहरी खाई मुँह फाड़े निगलने के लिए तैयार थी”। ऊपर लिखे शिमला के वर्णन में ऐसे उदाहरण ढूँढ़ो।

हम क्या उगाते हैं

हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?
हम पानी का जहाजा उगाते हैं जो समुद पार करेगा।
हम मस्तूल उगाते हैं जिसपर पाल बँधेगी।

हम वे फट्टे उगाते हैं जो हवा के शपेड़ों का सामना करेंगे।
जहाजा का तला, शहतीर, कोहनी;
हम पानी का जहाज उगते हैं जब पेड़ उगाते हैं।
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?
हम बल्लियाँ, पटिये और फ़र्श उगाते हैं।
हम खिड़की, रोशनदान और दरवाजो उगाते हैं।

हम छत के लदे, शहतीर और उसके तमाम हिस्से उगाते हैं
हम घर उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं।
हम क्या उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं?
ऍसी हजाारों चीजों जो हम हर दिन देखते हैं।
हम गुंबद से भी उपर आने वाले शिख्रा उगाते हैं।

हम अपने देश का झंडा फ़हराने वाला स्तंभ उगते हैं।
सूरज की गर्मी से छाया मानो मुफ्त्त ही उगते हैं।
हम यह सब उगाते हैं जब पेड़ लगाते हैं।

$\quad$ हेनरी एबे

$\quad$ अनुवाद-कबीर वाजपेयी

$\qquad$ $\qquad$ शब्दार्थ

अंतर्गत - भीतर समाया हुआ, शामिल
अँगरखा - एक लंबा बंददार पहनावा
अतिरिक्त - अलावा
अधीर - उतावला
अधेला - पैसे का आधा
अध्यक्ष - मुख्य अधिकारी, प्रधान
अनबूझ - नासमझ या नादान
अनमना - उदास, खिन्न
अमराई - आम का बाग
असमंजस - समझ में न आना कि क्या करें
अस्थि - हड्डी
आकर्षण - अच्छी लगने वाली चीज़
आकार - शक्ल
आगाह - चेतावनी देना
आपत्ति - एतराज़
आपबीती - अपने साथ हुई कोई घटना
आला - दीवाल में चीज़ें खखने के लिए बनाया जाने वाला गड्ढानुमा स्थान, बढ़िया
इकरार - स्वीकृति, हाँ करना
इज़हार - ज़ाहिर करना, बताना, दिखाना
ईदगाह - वह जगह जहाँ इकट्डा होकर लोग नमाज़ पढ़ते हैं
उकेरना - पत्थर, लकड़ी आदि पर कुछ बनाना
उत्सुकता - अधीरता, बेचैनी, प्रबल इच्छा
उनींदा - नींद से भरा हुआ, ऊँघता हुआ
उपक्षेत्र - छोटा इलाका, किसी बड़े क्षेत्र का हिस्सा
ऐन - उर्दू और अरबी वर्णमाला का एक अक्षर
कछार - नदी के किनारे की ज़मीन, घाटी


कज़ा - मृत्यु
कवायद - अभ्यास के लिए सिपाहियों द्वारा की जाने वाली परेड
कसीदाकारी - कसीदे की कढ़ाई (बेल बूटेदार)
कसूती - कर्नाटक की एक तरह की कढ़ाई
कहर - आफ़त
कांथा - बंगाल की एक तरह की कढ़ाई
कातर - सहमा हुआ, बेबसी का भाव
किरच - पत्थर के बारीक टुकड़े
कीटनाशक - पौधों, खेतों में लगने वाले कीड़ों को नष्ट करने वाली दवा
कूँडी़ - पत्थर की कटोरी
कृतज्ञता - कृतज्ञ होने का भाव, अहसान
केरा - केला
कोष - खज़ाना
खपैरैल - मिट्टी से बनी छत
खाकसार - तुच्छ, नाचीज़
खानसामा - खाना पकाने वाला, रसोइया
खेद - दुख
गंतव्य - जहाँ किसी चीज़ या व्यक्ति को पहुँचाना हो
गफ़लत - भूल
गमछा - बदन पोंछने का कपड़ा
गारत - ख़राब, बर्बाद
गारा - मिट्टी या चूने आदि का लेप जिससे इंटें जोड़ी जाती हैं, पलस्तर करने के लिए बनाया गया लेप
गिलट - चाँदी के रंग की एक धातु
ग्लेशियर - बर्फ़ का बड़ा विशाल जमाव
घिरनी - चरखी, गरारी
घुड़की - डाँट, झिड़की
घूरा - कूड़ा फेंकने की जगह
चक्रवर्ती - सम्राट
चाँपाकल - हैंडपंप, बरमा, बंबा
चुँधियाना - ज़्यादा रोशनी से आँखें चमक
छाप्पर - फूना आदि कीछ दिखाई न देना
छितराना - बिखराना, फैलाना
जाज़िम - दरी के ऊपर बिछाने की चादर


टका - दो पैसों के बराबर ताँबे का सिक्का
ठीकरे - मिट्टी के बरतन का टुकड़ा
ठौर - जगह, उपयुक्त स्थान
ढोरडंगर - मवेशी
तपसी - तपस्वी, तपस्या करने वाला, कष्ट सहन करनेवाला
तल्खी - कड़वाहट
ताक - आला, दीवाल में बनी छोटी - सी जगह
तागा - धागा
तापते - सेंकते, गर्म करते
दड़बा - चिड़िया या छोटे जानवर को रखने
दन्नाती - की छोटी जगह शोर करती हुई
दस्तक - खटखटाहट
दामन - आँचल
दुरुस्त - जो अच्छी स्थिति में हो, ठीक
दुर्गम - जहाँ पहुँचना या सफ़र करना मुश्किल हो
दूभर - कठिन, मुश्किल
नईखे - नहीं है
नक्का जोड़ी - एक तरह का खेल
नफ़ीस - उम्दा, बढ़िया, सुंदर
नियमित - बँधा हुआ, निश्चित, नियम के अनुसार, कायदे से
निर्गम - जिस रास्ते पर कोई जाता न हो
पट्ठा - कुश्तीबाज़ पहलवान
परास्त - हराना
परिधान - पहनने का कपड़ा
परिवहन - साइकिल, बस, रेलगाड़ी
पारंपरिक - जिसका रिवाज़ काफ़ी समय से चला आ रहा हो
पुलकित - प्रसन्न, खुश
पृष्ठभूमि - पीछे का हिस्सा (जैसे - मकान की पृष्ठभूमि)
प्रथा - रिवाज़
प्रबंधक - प्रबंध या इंतज़ाम करने वाला, देखभाल करने वाला
प्रशस्ति पत्र - प्रशंसा, तारीफ़, बड़ाई का पत्र


प्रस्ताव - सुझाव
बगरी - मकान, मवेशी बाँधने का बाड़ा, धान की किस्म
बदहवासी - घबराहट
बावर्चीखाना - रसोई
बेज़ार - परेशान, दुखी
बोरसी - अँगीठी
भँवररी - तेज़ लहरों से पानी में बनने वाला गहरा गोला
भौंचक - हैरान
मँझोला - बीच का
मचिया - छोटी चौकोर चौकी जो खाट की तरह सुतली आदि से बुनी गई हो।
मनोरम - सुंदर, मन काो अच्छा लगने वाला
मशक - भेड़ या बकरी की खाल को सीकर बनाया गया थैला
मातम - दुख
माशा अल्लाह - जो अल्लाह चाहे, क्या कहना है! (किसी की सुंदरता की तारीफ़ करते हुए कही जाने वाली बात)
मुआयना - अच्छी तरह देखना, जाँच-पड़ताल
मुख्यालय - प्रधान कार्यालय
रमज़ान - हिजरी मुसलमानों के कैलेंडर का नौवाँ महीना
रुस्तमे - हिंद - हिंदुस्तान का सबसे बड़ा पहलवान
रेल - पेल - भीड़-भाड़, धक्कम-धक्का
रोज़ेदार - जो रोज़ा (व्रत) रखते हैं।
लाजवाब - जिसका कोई जवाब नहीं
लालिमा - लाली, सुर्खी
वयस्क - सयाना, बालिग
वर्गाकार - चौकोर
विकार - गड़बड़ी, ख़राबी
विचारधारा - विचार पद्धति, सिद्धांत
वितरण - बाँटना, देना
विद्वत्ता - बुद्धिमानी
विराजे - जगह ली, बैठे


विवश - लाचार, मजबूर
शल्य-क्रिया - चीर-फाड़, ऑपरेशन
शूरमा - बहादुर लङाका
संगतराश - पत्थर को तराशकर कुछ बनाने वाला
संदेश वाहक - संदेश लाने ले जाने वाला
संधि - मेल-जोल
सद्भाव - अच्छा, भला भाव
समर्थन - साथ देना
साँझ-सकारे - शाम-सुबह
सालन - शोरबा, सब्ज़ी या गोश्त का रस
सिजदा - खुदा के सामने सिर झुकाना
सीमित - कम, थोड़ा
सुकून - शांति और इत्मिनान
सुघड़ - जिसकी बनावट सुंदर हो, सुडौल, किसी कार्य में कुशल, हुनरमंद
स्थिर - एक जगह रुका हुआ
स्वगत - अपने आप से
हरीरा - उबले हुए दूध में मेवा आदि मिलाकर बनाया गया स्वादिष्ट पेय।
हाज़िरजवाबी - किसी बात का जवाब होशियारी के साथ तुरंत देना।
हिकमत - बुद्धिमानी, चतुराई
हौदा - हाथी पर बैठने के लिए बनाया गया लकड़ी का खाँचा



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