अध्याय 12 राम का राज्याभिषेक

विभीषण चाहते थे कि राम कुछ दिन लंका में रुक जाएँ। नयी लंका में। उनकी लंका में। उन्होंने अपनी इच्छा राम को बताई। उसका कारण भी। “मैं चाहता हूँ कि आप कुछ दिन यहाँ विश्राम कर लें। युद्ध की थकान उतर जाएगी। वैसे इसमें मेरा स्वार्थ भी है। आपका सान्निध्य और रीति-नीति सीखने का अवसर। आपने यह नगरी देखी भी तो नहीं है।”

राम ने लंका नगरी में कदम नहीं रखा था। सीता से मिलने हनुमान गए। दो बार। अंगद गए। लक्ष्मण भी हो आए। विभीषण के राजतिलक के समय। राम उस नगरी से दूर ही रहे।

“यह संभव नहीं है, मित्र!” राम ने कहा। वनवास के चौदह वर्ष पूरे हो गए हैं। मैं तत्काल अयोध्या लौटना चाहता हूँ। भरत मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। जाने में विलंब हुआ तो वे प्राण दे देंगे। उन्होंने प्रतिज्ञा की है। मैं उनकी प्रतिज्ञा से बँधा हूँ।"

विभीषण राम से अलग नहीं होना चाहते थे। उनका अनुरोध राम ने अस्वीकार कर दिया था। पर वे निराश नहीं थे। इस बार उन्होंने एक नया प्रस्ताव रखा। “मेरी इच्छा है कि मैं आपके राज्याभिषेक में उपस्थित रहूँ। मुझे अपने साथ चलने की अनुमति दें।”

राम ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया। बोले, “आप मेरे लिए यात्रा की व्यवस्था कर दें।”

राम ने विभीषण की विनती मान ली तो सुग्रीव और हनुमान आगे आए। राम ने उन्हें भी अयोध्या आमंत्रित किया। विभीषण का पुष्पक विमान उन्हें ले जाने के लिए तैयार था।

विमान के उड़ान भरने तक वानर सेना वहीं रही। विमान जाने के बाद वे कूदते-फाँदते किष्किंधा की ओर चल पड़े। विभीषण ने अपने कोषागार से उन्हें रत्नाभूषण दिए थे। उनकी वर्षा की थी। उसी विमान से। वानरों के लिए यह मनोरंजन था। जिसे जो मिला, लूटा।

विमान लंका से चला। उड़ान भरने के बाद उसने उत्तर दिशा पकड़ी। जिधर अयोध्या नगरी थी। राम सीता के साथ बैठे थे। मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थान बताते जा रहे थे। रावण सीता का हरण कर उसी मार्ग से लाया था। पंचवटी से। उस समय सीता ने वे स्थान ठीक से नहीं देखे थे। स्थानों के नाम उन्हें ज्ञात नहीं थे।

पहले रणभूमि पड़ी। फिर वह पुल, जिसे नल और नील ने बनाया था। सेतुबंध। किष्किंधा रास्ते में था। वानरराज सुग्रीव की राजधानी थी। सीता के आग्रह पर विमान किष्किंधा में उतरा। सुग्रीव की रानियों तारा और रूपा को लेने। आगे ऋष्यमूक पर्वत पड़ा और उसके बाद पंपा सरोवर। उसकी सुंदरता अद्भुत थी।

राम ने सीता को एक पतली, चमकती हुई रेखा दिखाई। “सीते! देखो, यह गोदावरी नदी है। ऊँचाई से इतनी छोटी दिख रही है। इसी के तट पर पंचवटी है। देखो, हमारी पर्णकुटी अब भी बनी हुई है।" सीता ने आँखें बंद कर लीं। जैसे पंचवटी को पुनः देखने से डर रही हों। उन्हें पूरा घटनाक्रम याद आ गया।

गंगा-यमुना के संगम पर ऋषि भरद्वाज का आश्रम था। विमान वहाँ उतरा। सबने रात वहीं बिताई। ऋषि का आग्रह था। राम उसे टाल नहीं सके। वहीं से उन्होंने हनुमान को अयोध्या भेजा। भरत को उनके आगमन की पूर्व सूचना देने के लिए। राम सीधे अयोध्या नहीं जाना चाहते थे। उनके मन में एक प्रश्न था। एक संशय। चौदह वर्ष की अवधि कम नहीं होती। कहीं इस अवधि में भरत को सत्ता का मोह तो नहीं हो गया?

हनुमान को अयोध्या भेजते हुए उन्होंने यह प्रश्न रखा था। कहा, “हे वानर शिरोमणि, आप भरत को मेरे आने की सूचना दीजिएगा। ध्यान से देखिएगा कि यह समाचार सुनकर उनके चेहरे पर कैसे भाव आते हैं? यदि भरत को इस सूचना से प्रसन्नता नहीं हुई तो मैं अयोध्या नहीं जाऊँगा। भरत राजकाज सँभालें, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं।”

हनुमान वायु वेग से चले। जैसे उड़ रहे हों। मार्ग में निषादराज गुह से भेंट की। उनसे अयोध्या का हाल जाना। वहाँ से नंदीग्राम पहुँचे। उन्होंने भरत से कहा, “श्रीराम के वनवास की अवधि पूर्ण हो गई है। वे लौट रहे हैं। प्रयाग पहुँच चुके हैं। मैं उन्हीं की आज्ञा से आपके पास आया हूँ।”

भरत की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। आँखों में खुशी के आँसू थे। वे बार-बार हनुमान को धन्यवाद दे रहे थे। यह शुभ सूचना उन तक पहुँचाने के लिए। उनके चेहरे पर केवल एक भाव था। प्रसन्नता। हनुमान उनसे विदा लेकर आश्रम लौट आए। राम के पास।

अगली सुबह प्रयाग से शृंगवेरपुर होते हुए राम का विमान कुछ ही देर में सरयू नदी के ऊपर पहुँच गया। दूर अयोध्या नगरी के भवनों के शिखर दिखाई देने लगे। सबने अयोध्या को प्रणाम किया।

उधर, भरत से सूचना पाकर अयोध्या में उत्सव की तैयारियाँ होने लगीं। नगर को सजाया गया। शत्रुघ्न राज्याभिषेक की व्यवस्था में लग गए। महल से तीनों रानियाँ नंदीग्राम के लिए निकल पड़ीं। कौशल्या सबसे आगे थीं। उन्हें पता था कि राम पहले भरत से भेंट करेंगे।

राम का विमान नंदीग्राम उतरा। उनका भव्य स्वागत हुआ। आकाश राम के जयघोष से गूँज उठा। राम ने विमान से उतरकर भरत को गले लगाया। माताओं को प्रणाम किया। भरत भागते हुए आश्रम के भीतर गए। राम की खड़ाऊँ उठा लाए। जिसे सिंहासन पर रखकर उन्होंने चौदह वर्ष राजकाज चलाया था। झुककर अपने हाथों से राम को पहनाई। मिलन का यह दृश्य अद्भुत था। सबके चेहरों पर प्रसन्नता थी। सबकी आँखें खुशी के आँसुओं से नम थीं।

राम-लक्ष्मण ने नंदीग्राम में तपस्वी बाना उतार दिया। दोनों को राजसी वस्त्र पहनाए गए। जन समूह राम की जयकार करता अयोध्या के लिए चला। शोभायात्रा की छटा देखने योग्य थी। नंदीग्राम से चलने के पूर्व राम ने पुष्पक विमान को कुबेर के पास भेज दिया। वह विमान कुबेर का ही था। रावण ने उसे बलात छीन लिया था।

सजी-धजी अयोध्या नगरी राम के दर्शन पर आह्लादित थी। नगरवासी प्रसन्न थे। उन्हें उनके राम वापस मिल गए थे। माताएँ प्रसन्न थीं। उनका पुत्र लौट आया था। मुनिगण खुश थे। राम ने उनकी शिक्षाओं का मान रखा। कभी विरत नहीं हुए।

भरत ने अयोध्या का राज्य राम को नंदीग्राम में ही लौटा दिया था। राजमहल पहुँचे तो मुनि वशिष्ठ ने कहा, “कल सुबह राम का राज्याभिषेक होगा।” इसकी तैयारी शत्रुघ्न ने पहले ही कर दी थी। पूरा नगर सजाया गया था। दीपों से जगमगा रहा था। फूलों से सुवासित था। वाद्ययंत्रों से झंकृत था। पूरे चौदह वर्ष बाद।

अगले दिन मुनि वशिष्ठ ने राम का राजतिलक किया। राम और सीता सोने के रत्नजटित सिंहासन पर बैठे। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उनके पास खड़े थे। हनुमान नीचे बैठ गए। माताओं ने आरती उतारी। मंगलाचार हुआ। शुभ गीत गाए गए। राम ने सीता को एक बहुमूल्य हार दिया। प्रजाजनों को उपहार दिए। अनेक वस्तुएँ प्रदान कीं।

सीता ने अपने गले का हार उतारा। वे दुविधा में थीं। किसे दें? दुविधा राम ने दूर की, “जिस पर तुम सर्वाधिक प्रसन्न हो, उसे दे दो!” सीता ने वह हार हनुमान को भेंट कर दिया। भक्ति और पराक्रम के लिए।

कुछ दिनों में सारे अतिथि एक-एक कर चले गए। विभीषण लंका लौटे। सुग्रीव ने किष्किंधा की ओर प्रयाण किया। ऋषि-मुनि अपने आश्रम चले गए। हनुमान कहीं नहीं गए। राम दरबार में ही रहे। राम ने लंबे समय तक अयोध्या पर राज किया। उनके राज में किसी को कष्ट नहीं था। सब सुखी थे। भेदभाव नहीं था। कोई बीमार नहीं पड़ता था। खेत हरे-भरे थे। पेड़ फलों से लदे रहते थे। राम न्यायप्रिय थे। गुणों के सागर थे। उनका राज्य राम राज्य था। आज तक स्मृतियों में है।



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