अध्याय 06 नए प्रश्‍न नए विचार

अनघा निकली सैर पर

अनघा आज पहली बार अपने विद्यालय की ओर से सैर पर जा रही थी। इसके लिए उसने देर रात पुणे (महाराष्ट्र) से वाराणसी (उत्तर प्रदेश) की ट्रेन पकड़ी। स्टेशन पर अनघा को छोड़ने आई उसकी माँ ने अध्यापिका से कहा, ’ ‘बच्चों को बुद्ध के बारे में बताने के साथ-साथ उन्हें सारनाथ दिखाने भी ले जाइएगा।"

बुद्ध की कहानी

बौद्ध धर्म के संस्थापक सिद्धार्थ थे जिन्हें गौतम के नाम से भी जाना जाता है। उनका जन्म लगभग 2500 वर्ष पूर्व हुआ था। यह वह समय था जब लोगों के जीवन में तेज़ी से परिवर्तन हो रहे थे। जैसा कि तुमने अध्याय 5 में पढ़ा, महाजनपदों के कुछ राजा इस समय बहुत शक्तिशाली हो गए थे। हज़ारों सालों के बाद फिर से नगर उभर रहे थे। गाँवों के जीवन में भी बदलाव आ रहा था (अध्याय 9 देखो)। बहुत-से विचारक इन परिवर्तनों को समझने का प्रयास कर रहे थे। वे जीवन के सच्चे अर्थ को भी जानना चाह रहे थे।

बुद्ध क्षत्रिय थे तथा ‘शाक्य’ नामक एक छोटे से गण से संबंधित थे। युवावस्था में ही ज्ञान की खोज में उन्होंने घर के सुखों को छोड़ दिया। अनेक वर्षों तक वे भ्रमण करते रहे तथा अन्य विचारकों से मिलकर चर्चा करते रहे। अंततः ज्ञान प्राप्ति के लिए उन्होंने स्वयं ही रास्ता ढूँढ़ने का निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने बोध गया (बिहार) में एक पीपल के नीचे कई दिनों तक तपस्या की। अंततः उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके बाद से वे बुद्ध के रूप में जाने गए। यहाँ से वे वाराणसी के निकट स्थित सारनाथ गए, जहाँ उन्होंने पहली बार उपदेश दिया। कुशीनारा में मृत्यु से पहले का शेष जीवन उन्होंने पैदल ही एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करने और लोगों को शिक्षा देने में व्यतीत किया।

बुद्ध ने शिक्षा दी कि यह जीवन कष्टों और दुखों से भरा हुआ है और ऐसा हमारी इच्छा और लालसाओं (जो हमेशा पूरी नहीं हो सकतीं) के कारण होता है। कभी-कभी हम जो चाहते हैं वह प्राप्त कर लेने के बाद भी संतुष्ट नहीं होते हैं एवं और अधिक (अथवा अन्य) वस्तुओं को पाने की इच्छा करने लगते हैं। बुद्ध ने इस लिप्सा को तज्हा (तृष्णा) कहा है। बुद्ध ने शिक्षा दी कि आत्मसंयम अपनाकर हम ऐसी लालसा से मुक्ति पा सकते हैं।

सारनाथ स्तूप

इस इमारत को स्तूप के नाम से जाना जाता है। यहीं पर बुद्ध ने अपना सर्व्रथम उपदेश दिया था। इसी घटना की स्मृति में यहाँ स्तूप का निर्माण किया गया। अध्याय 10 में तुम इन स्तूपों के बारे में और अधिक पढ़ोगे।

उन्होंने लोगों को दयालु होने तथा मनुष्यों के साथ-साथ जानवरों के जीवन का भी आदर करने की शिक्षा दी। वे मानते थे कि हमारे कर्मों के परिणाम, चाहे वे अच्छे हों या बुरे, हमारे वर्तमान जीवन के साथ-साथ बाद के जीवन को भी प्रभावित करते हैं। बुद्ध ने अपनी शिक्षा सामान्य लोगों की प्राकृत भाषा में दी। इससे सामान्य लोग भी उनके संदेश को समझ सके।

वेदों की रचना के लिए किस भाषा का प्रयोग हुआ था?

बुद्ध ने कहा कि लोग किसी शिक्षा को केवल इसलिए नहीं स्वीकार करें कि यह उनका उपदेश है, बल्कि वे उसे अपने विवेक से मापें। आओ देखो, उन्होंने ऐसा किस प्रकार किया।

किसागोतमी की कहानी

यह बुद्ध के विषय में एक प्रसिद्ध कहानी है। एक समय की बात है किसागोतमी नामक एक स्त्री का पुत्र मर गया। इस बात से वह इतनी दु:खी हुई कि वह अपने बच्चे को गोद में लिए नगर की सड़कों पर घूम-घूम कर लोगों से प्रार्थना करने लगी कि कोई उसके पुत्र को जीवित कर दे। एक भला व्यक्ति उसे बुद्ध के पास ले गया।

बुद्ध ने कहा, ‘‘मुझे एक मुटी सरसों के बीज लाकर दो, मैं तुम्हारे पुत्र को जीवित कर दूँगा’। किसागोतमी बहुत प्रसन्न हुई। पर जैसे ही वह बीज लाने के लिए जाने लगी तभी बुद्ध ने उसे रोका और कहा, “‘ये बीज एक ऐसे घर से माँग कर लाओ जहाँ किसी की मृत्यु न हुई हो।,’

किसागोतमी एक दरवाज़े से दूसरे दरवाज़े गई लेकिन वह जहाँ भी गई उसने पाया कि हर घर में किसी न किसी के पिता, माता, बहन, भाई, पति, पत्नी, बच्चे, चाचा, चाची, दादा या दादी की मृत्यु हुई थी।

बुद्ध दुःखी माँ को क्या शिक्षा देने का प्रयास कर रहे थे?

भारतीय दर्शन की छह पद्धति (षडदर्शन)

सदियों से, भारत द्वारा सत्य की बौद्धिक खोज का प्रतिनिधित्व दर्शन की छः शाखाओं ने किया। ये वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और वेदांत या उत्तर मीमांसा के नाम से जाने जाते हैं। दर्शन की इन छः पद्धतियों की स्थापना क्रमशः ऋषि कणद, गौतम, कपिल, पतंजलि, जैमिनी और व्यास द्वारा की गयी मानी जाती है, जो आज भी देश में बौद्धिक चर्चा को दिशा देते हैं। जर्मन मूल के ब्रिटिश भारतविद फ्रेडरिक मैक्समूलर के अनुसार दर्शन की इन छ: शाखाओं का विकास कई पीढ़ियों के दौरान व्यक्तिगत विचारकों के योगदान से हुआ। यद्यपि ये एक दूसरे से भिन्न दिखते हैं तथापि सत्य की इनकी समझ में आधारभूत तालमेल दिखता है।

उपनिषद्

इसी समय बहुत से दूसरे अन्य चिंतक भी दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ने का प्रयास कर रहे थे। उनमें से कुछ मृत्यु के बाद के जीवन के बारे में जानना चाहते थे जबकि अन्य यज्ञों की उपयोगिता के बारे में जानने को उत्सुक थे। इनमें से अधिकांश चिंतकों का यह मानना था कि इस विश्व में कुछ तो ऐसा है जो कि स्थायी है और जो मृत्यु के बाद भी बचा रहता है। उन्होंने इसका वर्णन आत्मा तथा ब्रह्म अथवा सार्वभौम आत्मा के रूप में किया है। वे मानते थे कि अंततः आत्मा तथा ब्रह्म एक ही हैं।

ऐसे कई विचारों का संकलन उपनिषदों में हुआ है। उपनिषद् उत्तर वैदिक ग्रंथों का हिस्सा थे। उपनिषद् का शाब्दिक अर्थ है ‘गुरू के समीप बैठना’। इन ग्रंथों में अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच बातचीत का संकलन किया गया है। प्रायः ये विचार सामान्य वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं।

बुद्धिमान भिखारी

यह वार्तालाप छांदोग्य उपनिषद् नामक प्रसिद्ध उपनिषद् की एक कहानी पर आधारित है।

शौनक व अभिप्रतारिण नामक दो ऋषि सार्वभौम आत्मा की उपासना करते थे। एक बार ज्योंही वे भोजन करने के लिए बैठे, एक भिखारी आया और भोजन माँगने लगा।

शौनक ने कहा, “हम तुम्हें कुछ नहीं दे सकते।”

भिखारी ने पूछा, “विद्वज्जन, आप किसकी उपासना करते हैं?”,

अभिप्रतारिण ने उत्तर दिया, “सार्वभौम आत्मा की।”

“ओह! इसका मतलब आप यह जानते हैं कि यह सार्वभौम आत्मा सम्पूर्ण विश्व में विद्यमान है।”

ऋषियों ने कहा, ‘‘हाँ, हाँ, हम यह जानते हैं।’’

भिखारी ने फिर पूछा, “अगर यह सार्वभौम आत्मा सम्पूर्ण विश्व में विद्यमान है तो यह मेरे अंदर भी विद्यमान है। मैं कौन हूँ? मैं इस विश्व का एक भाग ही तो हूँ।’,

“तुम सत्य बोलते हो, युवा ब्राह्मण।”

“इसलिए हे ऋषियों, मुझे भोजन न देकर आप उस सार्वभौम आत्मा को भोजन देने से मना कर रहे हैं।’, भिखारी की बात की सच्चाई जानकर ऋषियों ने उसे भोजन दे दिया।

भिखारी ने भोजन पाने के लिए ऋषियों को किस तरह मनाया?

इन चर्चाओं में भाग लेने वाले अधिकांशतः पुरुष ब्राह्मण तथा राजा होते थे। कभी-कभी गार्गी, अपाला, घोषा, मैत्रेयी, जैसी स्त्री-विचारकों का भी उल्लेख मिलता है जो अपनी विद्वता के लिए जानी जाती थीं और वाद-विवाद में भाग लिया करती थीं। निर्धन व्यक्ति इस तरह के वादविवाद में बहुत कम ही हिस्सा लेते थे। इस तरह का एक प्रसिद्ध अपवाद सत्यकाम जाबाल का है। सत्यकाम जाबाल का नाम उसकी दासी माँ के नाम पर पड़ा। सत्यकाम के मन में सत्य जानने की तीव्र जिज्ञासा उत्पन्न हुई। गौतम नामक एक ब्राह्मण ने उन्हें अपने विद्यार्थी के रूप में स्वीकार किया तथा वह अपने समय के सर्वाधिक प्रसिद्ध विचारकों में से एक बन गए। उपनिषदों के कई विचारों का विकास बाद में प्रसिद्ध विचारक शंकराचार्य के द्वारा किया गया जिनके बारे में तुम कक्षा 7 में पढ़ोगी। नए प्रश्न नए विचार

व्याकरणविद् पाणिनि

इस युग में कुछ अन्य विद्वान भी खोज कर रहे थे। उन्हीं प्रसिद्ध विद्वानों में एक पाणिनि ने संस्कृत भाषा के व्याकरण की रचना की। उन्होंने स्वरों तथा व्यंजनों को एक विशेष क्रम में रखकर उनके आधार पर सूत्रों की रचना की। ये सूत्र बीजगणित के सूत्रों से काफी मिलते-जुलते हैं। इसका प्रयोग कर उन्होंने संस्कृत भाषा के प्रयोगों के नियम लघु सूत्रों (लगभग 3000 ) के रूप में लिखे।

जैन धर्म

इसी युग में अर्थात् लगभग 2500 वर्ष पूर्व जैन धर्म के 24 वें तथा अंतिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने भी अपने विचारों का प्रसार किया। वह वज्जि संघ के लिच्छवि कुल के एक क्षत्रिय राजकुमार थे। इस संघ के विषय में तुमने अध्याय 5 में पढ़ा है। 30 वर्ष की आयु में उन्होंने घर छोड़ दिया और जंगल में रहने लगे। बारह वर्ष तक उन्होंने कठिन व एकाकी जीवन व्यतीत किया। इसके बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ।

उनकी शिक्षा सरल थी। सत्य जानने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक स्त्री व पुरुष को अपना घर छोड़ देना चाहिए। उन्हें अहिंसा के नियमों का कड़ाई से पालन करना चाहिए अर्थात् किसी भी जीव को न तो कष्ट देना चाहिए और न ही उसकी हत्या करनी चाहिए। महावीर का कहना था, “सभी जीव जीना चाहते हैं। सभी के लिए जीवन प्रिय है।’, महावीर ने अपनी शिक्षा प्राकृत में दी। यही कारण है कि साधारण जन भी उनके तथा उनके अनुयायियों की शिक्षाओं को समझ सके। देश के अलग-अलग हिस्सों में प्राकृत के अलग-अलग रूप प्रचलित थे। प्रचलन क्षेत्र के आधार पर ही उनके अलग-अलग नाम थे जैसे मगध में बोली जाने वाली प्राकृत, मागधी कहलाती थी।

जैन नाम से जाने गए महावीर के अनुयायियों को भोजन के लिए भिक्षा माँगकर सादा जीवन बिताना होता था। उन्हें पूरी तरह से ईमानदार होना पड़ता था तथा चोरी न करने की उन्हें सख्त हिदायत थी। उन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना होता था। पुरुषों को वस्त्रों सहित सब कुछ त्याग देना पड़ता था।

अधिकांश व्यक्तियों के लिए ऐसे कड़े नियमों का पालन करना बहुत कठिन था। फिर भी हजारों व्यक्तियों ने इस नई जीवन शैली को जानने और सीखने के लिए अपने घरों को छोड़ दिया। कई अपने घरों पर ही रहे और भिक्खु-भिक्खुणी बने लोगों को भोजन प्रदान कर उनकी सहायता करते रहे।

मुख्यतः व्यापारियों ने जैन धर्म का समर्थन किया। किसानों के लिए इन नियमों का पालन अत्यंत कठिन था क्योंकि फ़सल की रक्षा के लिए उन्हें कीड़े-मकौड़ों को मारना पड़ता था। बाद की सदियों में जैन धर्म, उत्तर भारत के कई हिस्सों के साथ-साथ गुजरात, तमिलनाडु और कर्नाटक में भी फैल गया। महावीर तथा उनके अनुयायियों की शिक्षाएँ कई शताब्दियों तक मौखिक रूप में ही रहीं। वर्तमान रूप में उपलब्ध जैन धर्म की शिक्षाएँ लगभग 1500 वर्ष पूर्व गुजरात में वल्लभी नामक स्थान पर लिखी गई थीं (मानचित्र 7, पृष्ठ 89 देखें)।

जैन

जैन शब्द ‘जिन’ शब्द से निकला है जिसका अर्थ है ‘विजेता’।

महावीर के लिए ‘जिन’ शब्द का प्रयोग क्यों हुआ?

संघ

महावीर तथा बुद्ध दोनों का ही मानना था कि घर का त्याग करने पर ही सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। ऐसे लोगों के लिए उन्होंने संघ नामक संगठन बनाया जहाँ घर का त्याग करने वाले लोग एक साथ रह सकें।

संघ में रहने वाले बौद्ध भिक्षुओं के लिए बनाए गए नियम विनयपिटक नामक ग्रंथ में मिलते हैं। विनयपिटक से हमें पता चलता है कि संघ में पुरुषों और स्त्रियों के रहने की अलग-अलग व्यवस्था थी। सभी व्यक्ति संघ में प्रवेश ले सकते थे। हालाँकि संघ में प्रवेश के लिए बच्चों को अपने माता-पिता से, दासों को अपने स्वामी से, राजा के यहाँ काम करने वाले लोगों को राजा से, तथा कर्जदारों को अपने देनदारों से अनुमति लेनी होती थी। एक स्त्री को इसके लिए अपने पति से अनुमति लेनी होती थी।

संघ में प्रवेश लेने वाले स्त्री-पुरुष बहुत सादा जीवन जीते थे। वे अपना अधिकांश समय ध्यान करने में बिताते थे और दिन के एक निश्चित समय में वे शहरों तथा गाँवों में जाकर भिक्षा माँगते थे। यही कारण है कि उन्हें भिक्खु तथा भिक्खुणी (साधु के लिए प्राकृत शब्द) कहा गया। वे आम लोगों को शिक्षा देते थे और साथ ही एक-दसरे की सहायता भी करते थे। किसी तरह की आपसी लड़ाई का निपटारा करने के लिए वे प्रायः बैठकें भी किया करते थे।

संघ में प्रवेश लेने वालों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, व्यापारी, मज़दूर, नाई, गणिकाएँ तथा दास शामिल थे। इनमें से कई लोगों ने बुद्ध की शिक्षाओं के विषय में लिखा तथा कुछ लोगों ने संघ में अपने जीवन के विषय में सुंदर कविताओं की रचना की।

पिछले अध्याय में वर्णित संघ और इस अध्याय में वर्णित संघ के बीच दो भिन्नताएँ बताओ। क्या इनमें कोई समानताएँ दिखती हैं?

विहार

जैन तथा बौद्ध भिक्खु पूरे साल एक स्थान से दूसरे स्थान घूमते हुए उपदेश दिया करते थे। केवल वर्षा ऋतु में जब यात्रा करना कठिन हो जाता था तो वे एक स्थान पर ही निवास करते थे। ऐसे समय वे अपने अनुयायियों द्वारा उद्यानों में बनवाए गए अस्थायी निवासों में अथवा पहाड़ी क्षेत्रों की प्राकृतिक गुफाओं में रहते थे।

जैसे-जैसे समय बीतता गया भिक्खु-भिक्खुणियों ने स्वयं तथा उनके समर्थकों ने अधिक स्थायी शरणस्थलों की आवश्यकता का अनुभव किया। तब कई शरणस्थल बनाए गए जिन्हें विहार कहा गया। आरंभिक विहार

पहाड़ी को काटकर बनाई गई एक गुफा।

यह कार्ले (वर्तमान महाराष्ट्रें) स्थित एक गुफा है। भिक्खु-भिक्खुणी इन शरण स्थलों में रहकर ध्यान किया करते थे।

एक बौद्ध ग्रंथ से ज्ञात होता है:

जिस तरह महासागरों में मिलने पर नदियों की अलग-अलग पहचान समाप्त हो जाती है ठीक उसी तरह बुद्ध के अनुयायी जब भिक्षुओं की श्रेणी में प्रवेश करते हैं तो वे अपना वर्ण, श्रेणी और परिवार सब त्याग देते हैं।

लकड़ी के बनाए गए तथा बाद में इनके निर्माण में ईंटों का प्रयोग होने लगा। पश्चिमी भारत में विशेषकर कुछ विहार पहाड़ियों को खोद कर बनाए गए।

प्रायः किसी धनी व्यापारी, राजा अथवा भू-स्वामी द्वारा दान में दी गई भूमि पर विहार का निर्माण होता था। स्थानीय व्यक्ति भिक्खु-भिक्खुणियों के लिए भोजन, वस्त्र तथा दवाईयाँ लेकर आते थे जिसके बदले ये भिक्खु और भिक्खुणी लोगों को शिक्षा देते थे। आगे आने वाली शताब्दियों में बौद्ध धर्म उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों के साथ-साथ बाहरी क्षेत्रों में भी फैल गया।

इस समय बौद्ध धर्म की एक नई धारा महायान का विकास हुआ। इसकी दो मुख्य विशेषताएँ थी। पहले, मूर्तियों में बुद्ध की उपस्थिति सिर्फ़ कुछ संकेतों के माध्यम से दर्शाई जाती थी। मिसाल के तौर पर उनकी निर्वाण प्राप्ति को पीपल के पेड़ की मूर्ति द्वारा दर्शाया जाता था पर अब बुद्ध की प्रतिमाएँ बनाई जाने लगीं। इनमें से अधिकांश मथुरा में, तो कुछ तक्षशिला में बनाई जाने लगीं।

दूसरा परिवर्तन बोधिसत्त्व में आस्था को लेकर आया। बोधिसत्त्व उन्हें कहते हैं जो ज्ञान प्राप्ति के बाद एकांत वास करते हुए ध्यान साधना कर सकते थे। लेकिन ऐसा करने के बजाए, वे लोगों को शिक्षा देने और मदद करने के लिए सांसारिक परिवेश में ही रहना ठीक समझने लगे। धीरे-धीरे बोधिसत्त्व की पूजा काफी लोकप्रिय हो गई और पूरे मध्य एशिया, चीन और बाद में कोरिया तथा जापान तक भी फैल गई।

बौद्ध धर्म का प्रसार पश्चिमी और दक्षिणी भारत में हुआ, जहाँ बौद्ध भिक्खुओं के रहने के लिए पहाड़ों में दर्जनों गुफाएँ खोदी गईं।

बौद्ध धर्म दक्षिण-पूर्व की ओर श्रीलंका, म्यांमार, थाइलैंड तथा इंडोनेशिया सहित दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य भागों में भी फैला। थेरवाद नामक बौद्ध धर्म का आरंभिक रूप इन क्षेत्रों में कहीं अधिक प्रचलित था।

तीर्थयात्री

तीर्थयात्री वे स्त्री-पुरुष होते हैं, जो प्रार्थना के लिए पवित्र स्थानों की यात्रा किया करते हैं। इसी तरह भारत की यात्रा पर आया चीनी बौद्ध तीर्थयात्री फा-शिएन काफी प्रसिद्ध है। वह करीब 1600 साल पहले आया। श्वैन त्सांग 1400 साल पहले भारत आया और उसके करीब 50 साल बाद इत्सिंग आया। वे सब बुद्ध के जीवन से जुड़ी जगहों और प्रसिद्ध मठों को देखने के लिए भारत आए थे।

इनमें से प्रत्येक तीर्थयात्री ने अपनी यात्रा का वर्णन लिखा। इन्होंने अपनी यात्रा के दौरान आई मुश्किलों के बारे में भी लिखा। इन यात्राओं में कई वर्ष लग जाया करते थे। जिन देशों और मठों को उन्होंने देखा, उनके बारे में उन्होंने लिखा और उन किताबों के बारे में भी उन्होंने लिखा, जिन्हें वे अपने साथ ले गए थे।

नालंदा — शिक्षा का एक विशिष्ट केंद्र

शैन त्सांग तथा अन्य तीर्थयात्रियों ने उस समय के सबसे प्रसिद्ध बौद्ध विद्या केंद्र नालंदा (बिहार) में अध्ययन किया। उसने नालंदा के बारे में इस प्रकार लिखा है :

यहाँ के शिक्षक योग्यता तथा बुद्धि में सबसे आगे हैं। बुद्ध के उपदेशों का वह पूरी ईमानदारी से पालन करते हैं। मठ के नियम काफी सख्त हैं, जिन्हें सबको मानना पड़ता है। पूरे दिन वाद-विवाद चलते ही रहते हैं। जिससे युवा और वृद्ध दोनों ही एक-दूसरे की मदद करते हैं। विभिन्न शहरों से विद्वान लोग अपनी शंकाएँ दूर करने यहाँ आते हैं। नए आगन्तुकों से पहले द्वारपाल ही कठिन प्रश्न पूछते हैं। उन्हें अंदर जाने की अनुमति तभी मिलती है, जब वे द्वारपाल को सही उत्तर दे पाते हैं। दस में से सात-आठ सही उत्तर नहीं दे पाते हैं।

श्‍वैन त्सांग नालंदा में क्यों पढ़ना चाहता था, कारण बताओ?

जीवन के चरण : आश्रम

आश्रम शब्द का तात्पर्य जीवन के एक चरण से है।

ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास नामक चार आश्रमों की व्यवस्था की गई।

ब्रह्मचर्य के अंतर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य से यह अपेक्षा की जाती थी कि इस चरण के दौरान वे सादा जीवन बिताकर वेदों का अध्ययन करेंगे।

गृहस्थ आश्रम के अंतर्गत उन्हें विवाह कर एक गृहस्थ के रूप में रहना होता था। वानप्रस्थ के अंतर्गत उन्हें जंगल में रहकर साधना करनी थी। अंततः उन्हें सब कुछ त्यागकर संन्यासी बन जाना था।

आश्रम व्यवस्था ने लोगों को अपने जीवन का कुछ हिस्सा ध्यान में लगाने पर बल दिया।

संघ के जीवन से आश्रमों की यह व्यवस्था किस तरह भिन्न थी?

कल्पना करो

तुम लगभग 2500 वर्ष पूर्व के एक उपदेशक को सुनने जाना चाहती हो। वहाँ जाने की अनुमति लेने के लिए तुम अपने माता-पिता को कैसे सहमत करोगी, इसका वर्णन करो।

उपयोगी शब्द

तज्हा (तृष्णा)
प्राकृत
आत्मा ब्रह्म
उपनिषद्
जैन
अहिंसा
भिक्खु
संघ
विहार
आश्रम

आओ याद करें

1. बुद्ध ने लोगों तक अपने विचारों का प्रसार करने के लिए किन-किन बातों पर जोर दिया?

2. ‘सही’ व ‘गलत’ वाक्य बताओ

(क) बुद्ध ने पशुबलि को बढ़ावा दिया।

(ख) बुद्ध द्वारा प्रथम उपदेश सारनाथ में देने के कारण इस जगह का बहुत महत्त्व है।

(ग) बुद्ध ने शिक्षा दी कि कर्म का हमारे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

(घ) बुद्ध ने बोध गया में ज्ञान प्राप्त किया।

(ङ) उपनिषदों के विचारकों का मानना था कि आत्मा और ब्रह्म वास्तव में एक ही हैं।

3. उपनिषदों के विचारक किन प्रश्नों का उत्तर देना चाहते थे?

4. महावीर की प्रमुख शिक्षाएँ क्या थीं?

आओ चर्चा करें

5. अनघा की माँ क्यों चाहती थी कि उनकी बेटी बुद्ध की कहानी से परिचित हो? तुम्हारा इसके बारे में क्या कहना है?

6. क्या तुम सोचते हो कि दासों के लिए संघ में प्रवेश करना आसान रहा होगा, तर्क सहित उत्तर दो।

7. चीनी तीर्थयात्री भारत क्यों आए? कारण बताओ।

आओ करके देखें

8. इस अध्याय में उल्लिखित कम से कम पाँच विचारों तथा प्रश्नों की सूची बनाओ। उनमें से किन्हीं तीन का चुनाव कर चर्चा करो कि वे आज भी क्यों महत्वपूर्ण हैं?

9. आज दुनिया का त्याग करने वाले स्त्रियों और पुरुषों के बारे में और अधिक जानने का प्रयास करो। ये लोग कहाँ रहते हैं, किस तरीके के कपड़े पहनते हैं तथा क्या खाते हैं? ये दुनिया का त्याग क्यों करते हैं?

कुछ महत्वपूर्ण तिथियाँ

  • उपनिषदों के विचारक, जैन महावीर तथा बुद्ध (लगभग 2500 वर्ष पूर्व)

  • जैन ग्रंथों का लेखन (लगभग 1500 वर्ष पूर्व)



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