अध्याय 17 धृतराष्ट्र की चिंता

जब द्रौपदी को साथ लेकर पांडव वन की ओर जाने लगे थे, तो धृतराष्ट्र ने विदुर को बुला भेजा और पूछा- “विदुर, पांडु के बेटे और द्रौपदी कैसे जा रहे हैं? मैं कुछ देख नहीं सकता हूँ। तुम्हीं बताओ, कैसे जा रहे हैं वे?”

विदुर ने कहा- “कुंती-पुत्र युधिष्ठिर, कपड़े से चेहरा ढककर जा रहे हैं। भीमसेन अपनी दोनों भुजाओं को निहारता, अर्जुन हाथ में कुछ बालू लिए उसे बिखेरता, नकुल और सहदेव सारे शरीर पर धूल रमाए हुए, क्रमशः युधिष्ठिर के पीछे-पीछे जा रहे हैं। द्रौपदी ने बिखरे हुए केशों से सारा मुख ढक लिया है और आँसू बहाती हुई, युधिष्ठिर का अनुसरण कर रही है।”

यह सुनकर धृतराष्ट्र की आशंका और चिंता पहले से भी अधिक प्रबल हो उठी।

विदुर बार-बार धृतराष्ट्र से आग्रह करते थे कि आप पांडवों के साथ संधि कर लें। विदुर अकसर इसी भाँति धृतराष्ट्र को उपदेश दिया करते थे। विदुर की बुद्धिमता का धृतराष्ट्र पर भारी प्रभाव था। इसलिए शुरू-शुरू में वह विदुर की बातें सुन लिया करते थे। परंतु बार-बार विदुर की ऐसी ही बातें सुनते-सुनते वह ऊब गए।

एक दिन विदुर ने फिर वही बात छेड़ी, तो धृतराष्ट्र झुँझलाकर बोले- “विदुर! मुझे अब तुम्हारी सलाह की ज़रूरत नहीं है। अगर चाहो तो तुम भी पांडवों के पास चले जाओ।”

धृतराष्ट्र यह कहकर बड़े क्रोध के साथ विदुर के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना अंतःपुर में चले गए। विदुर ने मन में कहा कि अब इस वंश का सर्वनाश निश्चित है। उन्होंने तुरंत अपना रथ जुतवाया और उस पर चढ़कर जंगल में उस ओर तेज़ी से चल पड़े, जहाँ पांडव अपने वनवास का काल व्यतीत कर रहे थे। विदुर के चले जाने पर धृतराष्ट्र और भी चिंतित हो गए। वह सोचने लगे कि मैंने यह क्या कर दिया। विदुर को भगाकर मैंने भारी भूल कर दी। यह सोचकर धृतराष्ट्र ने संजय को बुलाया और कहा- “संजय! मैंने अपने प्रिय विदुर को बहुत बुरा-भला कह दिया था, इससे गुस्सा होकर वह वन में चला गया है। तुम जाकर उसे किसी तरह समझा-बुझाकर मेरे पास वापस ले आओ।”

धृतराष्ट्र की बात मानकर संजय जंगल में पांडवों के आश्रम में जा पहुँचे। संजय ने विदुर से बड़ी नम्रता के साथ कहा-“धृतराष्ट्र अपनी भूल पर पछता रहे हैं। आप यदि वापस नहीं लौटेंगे, तो वह अपने प्राण छोड़ देंगे। कृपया अभी लौट चलिए।"

यह बात सुनकर विदुर युधिष्ठिर आदि से विदा लेकर हस्तिनापुर के लिए चल पड़े। हस्तिनापुर पहुँचकर जब धृतराष्ट्र के सामने गए, तो धृतराष्ट्र ने उन्हें बड़े प्रेम से गले लगा लिया और गद्गद स्वर में बोले- “निर्दोष विदुर! मैं उतावली में जो बुरा-भला कह बैठा, उसका बुरा मत मानना और मुझे क्षमा कर देना।”

इसी तरह एक बार महर्षि मैत्रेय धृतराष्ट्र के दरबार में पधारे। राजा ने उनका समुचित आदर-सत्कार करके प्रसन्न किया। फिर महर्षि से हाथ जोड़कर पूछा- “कुरुजांगल के वन में आपने मेरे प्यारे पुत्र वीर पांडवों को तो देखा होगा! वे कुशल से तो हैं!”

महर्षि मैत्रेय ने कहा- “राजन्, काम्यक वन में संयोग से युधिष्ठिर से मेरी भेंट हो गई थी। वन के दूसरे ऋषि-मुनि भी उनसे मिलने उनके आश्रम में आए थे। हस्तिनापुर में जो कुछ हुआ था, उसका सारा हाल उन्होंने मुझे बताया था। यही कारण हैं कि मैं आपके यहाँ आया हूँ। आपके और भीष्म के रहते ऐसा नहीं होना चाहिए था।”

इस अवसर पर दुर्योधन भी सभा में मौजूद था। मुनि ने उसकी ओर देखकर कहा- “राजकुमार, तुम्हारी भलाई के लिए कहता हूँ, सुनो! पांडवों को धोखा देने का विचार छोड़ दो। उनसे वैर मोल न लो। उनके साथ संधि कर लो। इसी में तुम्हारी भलाई है।”

ऋषि ने यों मीठी बातों से दुर्योधन को समझाया, पर ज़िद्दी व नासमझ दुर्योधन ने उसकी ओर देखा तक नहीं। वह कुछ बोला भी नहीं, बल्कि अपनी जाँघ पर हाथ ठोकता और पैर के अँगूठे से ज़मीन कुरेदता, मुसकराता हुआ खड़ा रहा। दुर्योधन की इस ढिठाई को देखकर महर्षि बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने कहा- “दुर्योधन! याद रखो, अपने घमंड का फल तुम अवश्य पाओगे।”

इसी बीच हस्तिनापुर में हुई घटनाओं की खबर श्रीकृष्ण को लगी। उन्हें यह पता चला कि पाँचों पांडव द्रौपदी समेत वन में चले गए हैं। यह खबर पाते ही वह फ़ौरन उस वन को चल पड़े जहाँ पांडव ठहरे हुए थे।

श्रीकृष्ण जब पांडवों से भेंट करने के लिए जाने लगे, तो उनके साथ कैकेय, भोज और वृष्टि जाति के नेता, चेदिराज धृष्टकेतु आदि भी गए। इन लोगों के साथ पांडवों का बड़ा स्नेह-संबंध था और वे उनको बड़ी श्रद्धा से देखते थे। द्रौपदी श्रीकृष्ण से मिली। श्रीकृष्ण को देखते ही उसकी आँखों से अविरल अश्रुधार बह चली। बड़ी मुश्किल से वह बोली- “इस तरह अपमानित होने के बाद मेरा जीना ही बेकार है। मेरा कोई नहीं रहा और आप भी मेरे न रहे!” यह कहते-कहते द्रौपदी की बड़ी-बड़ी आँखों से गरम-गरम आँसुओं की धारा बहने लगी। वह आगे न बोल सकी। करुण स्वर में विलाप करती हुई द्रौपदी को श्रीकृष्ण ने बहुत समझाया और धीरज बँधाया। वह बोले- “बहन द्रौपदी! जिन्होंने तुम्हारा अपमान किया है, उन सबकी लाशें युद्ध के मैदान में खून से लथपथ होकर पड़ेंगी। तुम शोक न करो। मैं वचन देता हूँ कि पांडवों की हर प्रकार से सहायता करूँगा। यह भी निश्चय मानो कि तुम साम्राज्ञी के पद को फिर सुशोभित करोगी।”

धृष्टद्युम्न ने भी बहन को सांत्वना दी और समझाते हुए कहा कि श्रीकृष्ण की प्रतिज्ञा अवश्य पूरी होगी। इसके बाद श्रीकृष्ण पांडवों से विदा हुए। साथ में अर्जुन की पत्नी सुभद्रा और उसके पुत्र अभिमन्यु को भी वे द्वारकापुरी लेते गए। द्रौपदी के पुत्रों को लेकर धृष्टद्युम्न पांचाल देश चला गया।



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