अध्याय 23 प्रतिज्ञा-पूर्ति

द्रोण ने कहा- “मालूम होता है, यह तो अर्जुन ही आया है।” आचार्य की शंका और घबराहट दुर्योधन को ठीक न लगी। तभी कर्ण बोला- “पांडव जुए के खेल में जब हार गए थे, तो शर्त के अनुसार उन्हें बारह बरस का वनवास और एक बरस अज्ञातवास में बिताना था। अभी तेरहवाँ बरस पूरा नहीं हुआ है और अर्जुन हमारे सामने प्रकट हो गया है, तो डर किस बात का है? शर्त के अनुसार पांडवों को फिर से बारह बरस वनवास और एक बरस अज्ञातवास में बिताना होगा। अजीब बात है कि सेना के योद्धा भय के मारे काँप रहे हैं, जबकि उन्हें दिल खोलकर लड़ना चाहिए। आप लोग यही रट लगा रहे हैं कि सामने जो रथ आ रहा है, उस पर अर्जुन धनुष ताने हुए बैठा है। पर वहाँ अर्जुन की बजाए परशुराम हों, तो भी हम क्यों डरें? मैं तो अकेला ही जाकर उसका मुकाबला करूँगा और मैंने दुर्योधन को जो वचन दिया था, उसे आज पूरा करके दिखाऊँगा।”

कर्ण को यों दम भरते हुए देखकर कृपाचार्य झल्लाकर बोले- “कर्ण! मूर्खता की बातें न करो। हम सबको एक साथ मिलकर अर्जुन का मुकाबला करना होगा।”

यह सुनकर कर्ण को गुस्सा आ गया। वह बोला- “आचार्य तो अर्जुन की प्रशंसा करते कभी थकते ही नहीं हैं। अर्जुन की शक्ति को बढ़ा-चढ़ाकर बताने की इन्हें एक आदत-सी पड़ गई है। न मालूम यह भय के कारण है या अर्जुन को अधिक प्यार करते हैं, इस कारण है। जो भी हो, मैं अकेला ही डटा रहूँगा।”

जब कर्ण ने आचार्य की यों चुटकी ली, तो कृपाचार्य के भानजे अश्वत्थामा से न रहा गया। वह बोला- “कर्ण! किया तुमने कुछ नहीं है और कोरी डींगें मारने में समय गँवा रहे हो।”

इस प्रकार कौरव-सेना के वीर आपस में ही वाद-विवाद तथा झगड़ा करने लगे। यह देखकर भीष्म बड़े खिन्न हुए। वह बोले-“यह आपस में बैर-विरोध या झगड़े का समय नहीं है। अभी तो सबको एक साथ मिलकर शत्रु का मुकाबला करना है।"

पितामह के इस प्रकार समझाने पर कर्ण, अश्वत्थामा आदि वीर जो उत्तेजित हो रहे थे, शांत हो गए। सबको शांत देखकर भीष्म दुर्योधन से फिर बोले- “बेटा दुर्योधन, अर्जुन प्रकट हो गया, वह ठीक है। पर प्रतिज्ञा का समय कल ही पूरा हो चुका है। चंद्र और सूर्य की गति, वर्ष, महीने और पक्ष विभाग के पारस्परिक संबंध को अच्छी तरह जाननेवाले मेरे कथन की पुष्टि करेंगे। प्रत्येक वर्ष में एक जैसे महीने नहीं होते। मालूम होता है कि तुम लोगों की गणना में भूल हुई है। इसलिए तुम्हें भ्रम हुआ है। जैसे ही अर्जुन ने गांडीव धनुष की टंकार की थी, मैं समझ गया था कि प्रतिज्ञा की अवधि पूरी हो गई है। दुर्योधन! युद्ध शुरू करने से पहले इस बात का निश्चय कर लेना होगा कि पांडवों के साथ संधि कर लें या नहीं। यदि संधि करने की इच्छा है, तो उसके लिए अभी समय है।”

दुर्योधन ने कहा- “पूज्य पितामह! मैं संधि नहीं चाहता हूँ। राज्य तो दूर रहा, मैं तो एक गाँव तक पांडवों को देने के लिए तैयार नहीं हूँ।”

यह सुनकर द्रोणाचार्य की आज्ञानुसार कौरव वीरों ने व्यूह-रचना की। उधर उत्तर ने रथ उसी ओर हाँक दिया, जिधर दुर्योधन था। अर्जुन ने गांडीव पर चढ़ाकर दो-दो बाण आचार्य द्रोण और पितामह भीष्म की ओर इस तरह से छोड़े जो उनके चरणों में जाकर गिरे। इस प्रकार अपने बड़ों की वंदना करके, अर्जुन ने दुर्योधन का पीछा किया। अर्जुन को दुर्योधन का पीछा करते देखकर भीष्म आदि सेना लेकर अर्जुन का पीछा करने लगे। अर्जुन ने उस समय अद्भुत रण-कौशल का परिचय दिया। पहले तो उसने कर्ण पर हमला करके उसे बुरी तरह से घायल करके मैदान से भगा दिया। इसके बाद द्रोणाचार्य की बुरी गत होते देखकर अश्वत्थामा आगे बढ़ा और अर्जुन पर बाण बरसाने लगा। अर्जुन ने ज़रा सा हटकर द्रोणाचार्य को खिसक जाने का मौका दे दिया। मौका पाकर आचार्य जल्दी से खिसक गए। उनके चले जाने के बाद अर्जुन अब अश्वत्थामा पर टूट पड़ा। दोनों में भयानक युद्ध होता रहा। अंत में अश्वत्थामा को हार माननी पड़ी। उसके बाद कृपाचार्य की बारी आई और वह भी हार गए। पाँचों महारथी जब इस भाँति परास्त हो गए, तो फिर सेना किसके बल पर टिकती! सारी कौरव-सेना को अर्जुन ने जल्दी ही तितर-बितर कर दिया। सैनिक अपनी जान बचाकर भाग खड़े हुए।

इस भाँति भीषण युद्ध करते हुए भी अर्जुन ने दुर्योधन का पीछा करना न छोड़ा। पाँचों महारथियों द्वारा अर्जुन को एक साथ रोकने का प्रयत्न करने पर भी उसे रोका न जा सका। अर्जुन आखिर दुर्योधन के निकट पहुँच ही गया। उसने दुर्योधन पर भीषण हमला कर दिया। दुर्योधन घायल हो गया और मैदान छोड़कर भाग खड़ा हुआ।

भीष्म ने उससे कहा कि अब वापस हस्तिनापुर लौट चलना चाहिए। भीष्म की सलाह मानकर सारी सेना हार मानकर हस्तिनापुर की ओर लौट चली।

इधर युद्ध से लौटते हुए अर्जुन ने कहा- “उत्तर! अपना रथ नगर की ओर ले चलो। तुम्हारी गायें छुड़ा ली गई हैं। शत्रु भी भाग खड़े हुए हैं। इस विजय का यश तुम्हीं को मिलना चाहिए। इसलिए चंदन लगाकर और फूलों का हार पहनकर नगर में प्रवेश करना।”

रास्ते में अर्जुन ने फिर से बृहन्नला का वेश धारण कर लिया और राजकुमार उत्तर को रथ पर बैठाकर सारथी के स्थान पर खुद बैठ गया। उन्होंने विराटनगर की ओर कुछ दूतों को यह आज्ञा देकर भेज दिया कि जाकर घोषणा कर दो कि राजकुमार उत्तर की विजय हुई है।



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