अध्याय 02 दो गौरैया (कहानी)

घर में हम तीन ही व्यक्ति रहते हैं-माँ, पिताजी और मैं। पर पिताजी कहते हैं कि यह घर सराय बना हुआ है। हम तो जैसे यहाँ मेहमान हैं, घर के मालिक तो कोई दूसरे ही हैं।

आँगन में आम का पेड़ है। तरह-तरह के पक्षी उस पर डेरा डाले रहते हैं। जो भी पक्षी पहाड़ियों-घाटियों पर से उड़ता हुआ दिल्ली पहुँचता है, पिताजी कहते हैं वही सीधा हमारे घर पहुँच जाता है, जैसे हमारे घर का पता लिखवाकर लाया हो। यहाँ कभी तोते पहुँच जाते हैं, तो कभी कौवे और कभी तरह-तरह की गौरैयाँ। वह शोर मचता है कि कानों के पर्दे फट जाएँ, पर लोग कहते हैं कि पक्षी गा रहे हैं!

घर के अंदर भी यही हाल है। बीसियों तो चूहे बसते हैं। रात-भर एक कमरे से दूसरे कमरे में भागते फिरते हैं। वह धमा-चौकड़ी मचती है कि हम लोग ठीक तरह से सो भी नहीं पाते। बर्तन गिरते हैं, डिब्बे खुलते हैं, प्याले टूटते हैं। एक चूहा अँगीठी के पीछे बैठना पसंद करता है, शायद बूढ़ा है उसे सर्दी बहुत लगती है। एक दूसरा है जिसे बाथरूम की टंकी पर चढ़कर बैठना पसंद है। उसे शायद गर्मी बहुत लगती है। बिल्ली हमारे घर में रहती तो नहीं मगर घर उसे भी पसंद है और वह कभी-कभी झाँक जाती है। मन आया तो अंदर आकर दूध पी गई, न मन आया तो बाहर से ही ‘फिर आऊँगी’ कहकर चली जाती है। शाम पड़ते ही दो-तीन चमगादड़ कमरों के आर-पार पर फैलाए कसरत करने लगते हैं। घर में

कबूतर भी हैं। दिन-भर ‘गुटर-गूँ गुटर-गूँ’ का संगीत सुनाई देता रहता है। इतने पर ही बस नहीं, घर में छिपकलियाँ भी हैं और बर्रे भी हैं और चींटियों की तो जैसे फौज ही छावनी डाले हुए है।

अब एक दिन दो गौरैया सीधी अंदर घुस आईं और बिना पूछे उड़-उड़कर मकान देखने लगीं। पिताजी कहने लगे कि मकान का निरीक्षण कर रही हैं कि उनके रहने योग्य है या नहीं। कभी वे किसी रोशनदान पर जा बैठतों, तो कभी खिड़की पर। फिर जैसे आईं थीं वैसे ही उड़ भी गईं। पर दो दिन बाद हमने क्या देखा कि बैठक की छत में लगे पंखे के गोले में उन्होंने अपना बिछावन बिछा लिया है, और सामान भी ले आईं हैं और मज़े से दोनों बैठी गाना गा रही हैं। जाहिर है, उन्हें घर पसंद आ गया था।

माँ और पिताजी दोनों सोफे पर बैठे उनकी ओर देखे जा रहे थे। थोड़ी देर बाद माँ सिर हिलाकर बोलों, “अब तो ये नहीं उड़ेंगी। पहले इन्हें उड़ा देते, तो उड़ जातीं। अब तो इन्होंने यहाँ घोंसला बना लिया है।"

इस पर पिताजी को गुस्सा आ गया। वह उठ खड़े हुए और बोले, “देखता हूँ ये कैसे यहाँ रहती हैं! गौरैयाँ मेरे आगे क्या चीज़ हैं! मैं अभी निकाल बाहर करता हूँ।”

“छोड़ो जी, चूहों को तो निकाल नहीं पाए, अब चिड़ियों को निकालेंगे!” माँ ने व्यंग्य से कहा।

माँ कोई बात व्यंग्य में कहें, तो पिताजी उबल पड़ते हैं वह समझते हैं कि माँ उनका मज़ाक उड़ा रही हैं। वह फौरन उठ खड़े हुए और पंखे के नीचे जाकर ज़ोर से ताली बजाई

और मुँह से ‘श…..शू’ कहा, बाँहें झुलाईं, फिर खड़े-खड़े कूदने लगे, कभी बाहें झुलाते, कभी ‘श. ..शू करते।

गौरैयों ने घोंसले में से सिर निकालकर नीचे की ओर झाँककर देखा और दोनों एक साथ ‘चीं-चीं करने लगीं। और माँ खिलखिलाकर हँसने लगीं।

पिताजी को गुस्सा आ गया, इसमें हँसने की क्या बात है?

माँ को ऐसे मौकों पर हमेशा मज़ाक सूझता है। हँसकर बोली, चिड़ियाँ एक दूसरी से पूछ रही हैं कि यह आदमी कौन है और नाच क्यों रहा है?

तब पिताजी को और भी ज़्यादा गुस्सा आ गया और वह पहले से भी ज़्यादा ऊँचा कूदने लगे।

गौरैैयाँ घोंसले में से निकलकर दूसरे पंखे के डैने पर जा बैठीं। उन्हें पिताजी का नाचना जैसे बहुत पसंद आ रहा था। माँ फिर हँसने लगीं, ये निकलेंगी नहीं, जी। अब इन्होंने अंडे दे दिए होंगे।"

“निकलेंगी कैसे नहीं?” पिताजी बोले और बाहर से लाठी उठा लाए। इसी बीच गौरैयाँ फिर घोंसले में जा बैठी थीं। उन्होंने लाठी ऊँची उठाकर पंखे के गोले को ठकोरा। ‘चीं-चीं’ करती गौरैयाँ उड़कर पर्दे के डंडे पर जा बैठीं।

इतनी तकलीफ़ करने की क्या ज़रूरत थी। पंखा चला देते तो ये उड़ जातीं। माँ ने हँसकर कहा।

पिताजी लाठी उठाए पर्दे के डंडे की ओर लपके। एक गौरैया उड़कर किचन के दरवाज़े पर जा बैठी। दूसरी सीढ़ियों वाले दरवाज़े पर।

माँ फिर हँस दी। तुम तो बड़े समझदार हो जी, सभी दरवाज़े खुले हैं और तुम गौरैयों को बाहर निकाल रहे हो। एक दरवाज़ा खुला छोड़ो, बाकी दरवाज़े बंद कर दो। तभी ये निकलेंगी।

अब पिताजी ने मुझे झिड़ककर कहा, “तू खड़ा क्या देख रहा है? जा, दोनों दरवाजे बंद कर दे!” मैंने भागकर दोनों दरवाज़े बंद कर दिए केवल किचन वाला दरवाज़ा खुला रहा।

पिताजी ने फिर लाठी उठाई और गौरैयों पर हमला बोल दिया। एक बार तो झूलती लाठी माँ के सिर पर लगते-लगते बची। चीं-चीं करती चिड़ियाँ कभी एक जगह तो कभी दूसरी जगह जा बैठतीं। आखिर दोनों किचन की ओर खुलने वाले दरवाज़े में से बाहर निकल गईं। माँ तालियाँ बजाने लगीं। पिताजी ने लाठी दीवार के साथ टिकाकर रख दी और छाती फैलाए कुर्सी पर आ बैठे।

“आज दरवाज़े बंद रखो” उन्होंने हुक्म दिया। “एक दिन अंदर नहीं घुस पाएँगी, तो घर छोड़ देंगी।”

तभी पंखे के ऊपर से चीं-चीं की आवाज सुनाई पड़ी। और माँ खिलखिलाकर हँस दीं। मैंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा, दोनों गौरैया फिर से अपने घोंसले में मौजूद थीं।

“दरवाज़े के नीचे से आ गई हैं, " माँ बोलीं।

मैंने दरवाजे के नीचे देखा। सचमुच दरवाजों के नीचे थोड़ी-थोड़ी जगह खाली थी।

पिताजी को फिर गुस्सा आ गया। माँ मदद तो करती नहीं थीं, बैठी हँसे जा रही थीं।

अब तो पिताजी गौरैयों पर पिल पड़े। उन्होंने दरवाज़ों के नीचे कपड़े ठूँस दिए ताकि कहीं कोई छेद बचा नहीं रह जाए। और फिर लाठी झुलाते हुए उन पर टूट पड़े। चिड़ियाँ चीं-चीं करती फिर बाहर निकल गईं। पर थोड़ी ही देर बाद वे फिर कमरे में मौजूद थीं। अबकी बार वे रोशनदान

में से आ गई थीं जिसका एक शीशा टूटा हुआ था।

“देखो-जी, चिड़ियों को मत निकालो,” माँ ने अबकी बार गंभीरता से कहा, अब तो इन्होंने अंडे भी दे दिए होंगे। अब ये यहाँ से नहीं जाएँगी।

क्या मतलब? मैं कालीन बरबाद करवा लूँ? पिताजी बोले और कुर्सी पर चढ़कर रोशनदान में कपड़ा ठूँस दिया और फिर लाठी झुलाकर एक बार फिर चिड़ियों को खदेड़ दिया। दोनों पिछले आँगन की दीवार पर जा बैठीं।

इतने में रात पड़ गई। हम खाना खाकर ऊपर जाकर सो गए। जाने से पहले मैंने आँगन में झाँककर देखा, चिड़ियाँ वहाँ पर नहीं थीं। मैंने समझ लिया कि उन्हें अक्ल आ गई होगी। अपनी हार मानकर किसी दूसरी जगह चली गई होंगी।

दूसरे दिन इतवार था। जब हम लोग नीचे उतरकर आए तो वे फिर से मौजूू थीं और मज़े से बैठी मल्हार गा रही थीं। पिताजी ने फिर लाठी उठा ली। उस दिन उन्हें गौरैयों को बाहर निकालने में बहुत देर नहीं लगी।

अब तो रोज़ यही कुछ होने लगा। दिन में तो वे बाहर निकाल दी जातीं पर रात के वक्त जब हम सो रहे होते, तो न जाने किस रास्ते से वे अंदर घुस आतीं।

पिताजी परेशान हो उठे। आखिर कोई कहाँ तक लाठी झुला सकता है? पिताजी बार-बार कहें, “मैं हार मानने वाला आदमी नहीं हूँ” पर आखिर वह भी तंग आ गए थे। आखिर जब उनकी सहनशीलता चुक गई तो वह कहने लगे कि वह गौरैयों का घोंसला नोचकर निकाल देंगे। और वह फौरन ही बाहर से एक स्टूल उठा लाए।

घोंसला तोड़ना कठिन काम नहीं था। उन्होंने पंखे के नीचे फर्श पर स्टूल रखा और लाठी लेकर स्टूल पर चढ़ गए। “किसी को सचमुच बाहर निकालना हो, तो उसका घर तोड़ देना चाहिए,” उन्होंने गुस्से से कहा।

घोंसले में से अनेक तिनके बाहर की ओर लटक रहे थे, गौरैयों ने सजावट के लिए मानो

झालर टाँग रखी हो। पिताजी ने लाठी का सिरा सूखी घास के तिनकों पर जमाया और दाई्ई ओर को खींचा। दो तिनके घोंसले में से अलग हो गए और फरफराते हुए नीचे उतरने लगे।

“चलो, दो तिनके तो निकल गए,” माँ हँसकर बोलों, अब बाकी दो हज़ार भी निकल जाएँगे!

तभी मैंने बाहर आँगन की ओर देखा और मुझे दोनों गौरैयाँ नज़र आईं। दोनों चुपचाप दीवार पर बैठी थीं। इस बीच दोनों कुछ-कुछ दुबला गई थीं, कुछ-कुछ काली पड़ गई थीं। अब वे चहक भी नहीं रही थीं।

अब पिताजी लाठी का सिरा घास के तिनकों के ऊपर रखकर वहीं रखे-रखे घुमाने लगे। इससे घोंसले के लंबे-लंबे तिनके लाठी के सिरे के साथ लिपटने लगे। वे लिपटते गए, लिपटते गए, और घोंसला लाठी के इर्द-गिर्द खिंचता चला आने लगा। फिर वह खींच-खींचकर लाठी के सिरे के इर्द-गिर्द लपेटा जाने लगा। सूखी घास और रूई के फाहे, और धागे और थिगलियाँ लाठी के सिरे पर लिपटने लगीं। तभी सहसा ज़ोर की आवाज़ आई, “चीं-चीं, चीं-चीं!!!"

पिताजी के हाथ ठिठक गए। यह क्या? क्या गौरैयाँ लौट आईं हैं? मैंने झट से बाहर की ओर देखा। नहीं, दोनों गौरैयाँ बाहर दीवार पर गुमसुम बैठी थीं।

“चीं-चीं, चीं-चीं!” फिर आवाज़ आई। मैंने ऊपर देखा। पंखे के गोले के ऊपर से नन्हीं-नन्हीं गौरैयाँ सिर निकाले नीचे की ओर देख रही थीं और चीं-चीं किए जा रही थीं। अभी भी पिताजी के हाथ में लाठी थी और उस पर लिपटा घोंसले का बहुत-सा हिस्सा था। नन्हीं-नन्हीं दो गौरैयाँ! वे अभी भी झाँके जा रही थीं और चीं-चीं करके मानो अपना परिचय दे रही थीं, हम आ गई हैं। हमारे माँ-बाप कहाँ हैं?

मैं अवाक् उनकी ओर देखता रहा। फिर मैंने देखा, पिताजी स्टूल पर से नीचे उतर आए हैं। और घोंसले के तिनकों में से लाठी निकालकर उन्होंने लाठी को एक ओर रख दिया है और चुपचाप कुर्सी पर आकर बैठ गए हैं। इस बीच माँ कुर्सी पर से उठीं और सभी दरवाजे खोल दिए। नन्हीं चिड़ियाँ अभी भी हाँफ-हाँफकर चिल्लाए जा रही थीं और अपने माँ-बाप को बुला रही थीं।

उनके माँ-बाप झट-से उड़कर अंदर आ गए और चीं-चीं करते उनसे जा मिले और उनकी नन्हीं-नन्हीं चोंचों में चुग्गा डालने लगे। माँ-पिताजी और मैं उनकी ओर देखते रह गए। कमरे में फिर से शोर होने लगा था, पर अबकी बार पिताजी उनकी ओर देख-देखकर केवल मुसकराते रहे।

-भीष्म साहनी

शब्दार्थ
सराय - यात्रियों के लिए कुछ रोशनदान - कमरे के अंदर रोशनी आने
समय रुकने की जगह, के लिए बनी खिड़की
मुसाफिर खाना बिछावन - बिस्तर
डेरा - रहने की जगह, पड़ाव उबल पड़ना - गुस्साना
शोर - हल्ला, कोलाहल हुक्म - आदेश
धमा-चौकड़ी - उछल-कूद अक्ल - बुद्धि
अँगीठी - आग रखने का बरतन इर्द-गिर्द - आस-पास
कसरत - व्यायाम धिगलियाँ - छेद बंद करने के लिए टाँका
- जहाँ सेना या पुलिस रहती - गया कपड़े का टुकड़ा, पैबंद
- हो. शिविर निरीक्षण -जाँच

1. पाठ से

(क) दोनों गौरैयों को पिताजी जब घर से बाहर निकालने की कोशिश कर रहे थे तो माँ क्यों मदद नहीं कर रही थी? बस, वह हँसती क्यों जा रही थी?

(ख) देखो जी, चिड़ियों को मत निकालो। माँ ने पिताजी से गंभीरता से यह क्यों कहा?

(ग) “किसी को सचमुच बाहर निकालना हो तो उसका घर तोड़ देना चाहिए,” पिताजी ने गुस्से में ऐसा क्यों कहा? क्या पिताजी के इस कथन से माँ सहमत थी? क्या तुम सहमत हो? अगर नहीं तो क्यों?

(घ) कमरे में फिर से शोर होने पर भी पिताजी अबकी बार गौंरैया की तरफ़ देखकर मुसकुराते क्यों रहे?

2. पशु-पक्षी और हम

इस कहानी के शुरू में कई पशु-पक्षियों की चर्चा की गई है। कहानी में वे ऐसे कुछ काम करते हैं जैसे मनुष्य करते हैं। उनको ढूँढ़कर तालिका पूरी करो-

(क) पक्षी - $\qquad$ घर का पता लिखवाकर लाए हैं।

(ख) बूढ़ा चूहा -

(ग) बिल्ली -

(घ) चमगादड़ -

(ड़) चींटियाँ -

3. मल्हार

नीचे दिए गए वाक्य को पढ़ो-

“जब हम लोग नीचे उतरकर आए, तब वे फिर से मौजूद थीं और मज़े से बैठी मल्हार गा रही थीं।”

(क) अब तुम पता करो कि मल्हार क्या होता है? इस काम में तुम बड़ों की सहायता भी ले सकते हो।

(ख) बताओ कि क्या सचमुच चिड़ियाँ ‘मल्हार’ गा सकती हैं?

(ग) बताओ की कहानी में चिड़ियों द्वारा मल्हार गाने की बात क्यों कही गई है?

4. पाठ से आगे

अलग-अलग पक्षी अलग-अलग तरह से घोंसला बनाते हैं। तुम कुछ पक्षियों के घोसलों के चित्र इकट्डे करके उसे अपनी कॉपी पर चिपकाकर शिक्षक को दिखाओ।

5. अंदर आने के रास्ते

(क) पूरी कहानी में गौरैया, कहाँ-कहाँ से घर के अंदर घुसी थीं? सूची बनाओ।

(ख) अब अपने घर के बारे में सोचो। तुम्हारे घर में यदि गौरैया आना चाहे तो वह कहाँ-कहाँ से अंदर घुस सकती है? इसे अपने शिक्षक को बताओ।

6. कहने का अंदाज़

“माँ खिलखिलाकर हँस दीं।" इस वाक्य में ‘खिलखिलाकर’ शब्द बता रहा है कि माँ कैसे हँसी थीं। इसी प्रकार नीचे दिए गए रेखांकित शब्दों पर भी ध्यान दो। इन शब्दों से एक-एक वाक्य बनाओ।

(क) पिताजी ने झिड़ककर कहा, “तू खड़ा क्या देख रहा है?”

(ख) “आज दरवाज़े बंद रखो,” उन्होंने हुक्म दिया।

(ग) “देखो जी, चिड़ियों को मत निकालो,” माँ ने अबकी बार गंभीरता से कहा।

(घ) “किसी को सचमुच बाहर निकालना हो, तो उसका घर तोड़ देना चाहिए,” उन्होंने गुस्से में कहा।

तुम इनसे मिलते-जुलते कुछ और शब्द सोचो और उनका प्रयोग करते हुए कुछ वाक्य बनाओ।

संकेत- धीरे से, ज़ोर से, अटकते हुए, हकलाते हुए, फुसफुसाते हुए आदि।

7. किससे-क्यों-कैसे

“पिताजी बोले, क्या मतलब? मैं कालीन बरबाद करवा लूँ?” ऊपर दिए गए वाक्य पर ध्यान दो और बताओ कि-

(क) पिताजी ने यह बात किससे कही?

(ख) उन्होंने यह बात क्यों कही?

(ग) गौरैयों के आने से कालीन कैसे बरबाद होता?

8. सराय

“पिताजी कहते हैं कि यह घर सराय बना हुआ है।” ऊपर के वाक्य को पढ़ो और बताओ कि-

(क) सराय और घर में क्या अंतर होता है? आपस में इस पर चर्चा करो।

(ख) पिताजी को अपना घर सराय क्यों लगता है?

9. गौरैयों की चर्चा

मान लो तुम लेखक के घर की एक गौरैया हो। अब अपने साथी गौरैया को बताओ कि तुम्हारे साथ इस घर में क्या-क्या हुआ?

10. कैसे लगे

तुम्हें इस कहानी में कौन सबसे अधिक पसंद आया? तुम्हें उसकी कौन-सी बात सबसे अधिक अन्छी लगी? (क) माँ (ख) पिताजी (ग) लेखक (घ) गौरैया (ङ) चूहे (च) बिल्ली (छ) कबूतर (ज) कोई अन्य/कुछ और

11. माँ की बात

नीचे माँ द्वारा कही गई कुछ बातें लिखी हुई हैं। उन्हें पढ़ो।

“अब तो ये नहीं उड़ेंगी। पहले इन्हें उड़ा देते, तो उड़ जातीं।”

“एक दरवाज़ा खुला छोड़ो, बाकी दरवाजे़ बंद कर दो। तभी ये निकलेंगी।”

“देखो जी, चिड़ियों को मत निकालो। अब तो इन्होंने अंडे भी दे दिए होंगे। अब ये यहाँ से नहीं जाएँगी।”

अब बताओ कि-

(क) क्या माँ सचमुच चिड़ियों को घर से निकालना चाहती थीं?

(ख) माँ बार-बार क्यों कह रही थीं कि ये चिड़ियाँ नहीं जाएँगी?

12. कहानी की चर्चा

(क) तुम्हारे विचार से इस कहानी को कौन सुना रहा है? तुम्हें यह किन बातों से पता चला?

(ख) लेखक ने यह अनुमान कैसे लगाया कि एक चूहा बूढ़ा है और उसको सर्दी लगती है?

13. शब्द की समझ

चुक - चूक

(क) अब उनकी सहनशीलता चुक गई।

(ख) उनका निशाना चूक गया।

अब तुम भी इन शब्दों को समझो और उनसे वाक्य बनाओ।

(i) सुख - सूख

(क) ……………………………………………………………

(ख) ……………………………………………………………

(ii) धुल - धूल

(क) ……………………………………………………………

(ख) ……………………………………………………………

(iii) सुना - सूना

(क) ……………………………………………………………

(ख) ……………………………………………………………



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