अध्याय 14 बच्चों के प्रिय श्री केशव शंकर पिल्लै

बच्चो, तुम डाक-टिकट, पुराने सिक्के आदि जमा करते हो न! छोटी लड़कियाँ गुड़ियों का भी संग्रह करती हैं लेकिन ढेर सारी गुड़ियों का संग्रह करना उनके लिए मुश्रिक है क्योंकि एक तो गुड़िया महँगी होती है, दूसरे उन्हें सुरक्षित रखने के लिए जगह भी ज़्यादा चाहिए।

लेकिन क्या तुमने कभी किसी बड़ी उम्र के पुरुष को गुड़ियों का संग्रह करते देखा है?

यहाँ मैं तुम्हें उस व्यक्ति के बारे में बताने जा रही हूँ, जिसने दो-चार, पाँच-दस नहीं, पाँच हज़ार से भी अधिक गुड़ियों का संग्रह किया है। सारी दुनिया में घूम-घूमकर विभिन्न देशों से भाँति-भाँति की रंग-बिरंगी खूबसूरत गुड़ियों का संग्रह।

जानते हो, ये इतनी सारी गुड़ियाँ उसने अपने लिए नहीं इकट्डी कीं। देश-विदेशों की भिन्न-भिन्न वेशभूषा में सजी, अपने-अपने देश के तौर-तरीकों वाली खूबसूरत गुड़ियाएँ उसने भारतीय बच्चों के लिए ही जमा की हैं। इन गुड़ियों को उसने दिल्ली के एक विशाल संग्रहालय में इस तरह सजा राा है कि बच्चे उन्हें देख सकें। उन्हें बच्चों से प्रेम था, इतना कि वह उनकी खुशी के लिए और भी बहुत सारे काम करते थे और सुबह से शाम तक इन्हीं कामों में लगे रहते थे।

इस व्यक्ति का नाम था, केशव शंकर पिल्लै। वही शंकर पिल्लै जो लंबे समय तक ‘शंकर्स वीकली’ के लिए कार्टून बनाते रहे थे। वे

बच्चों के लिए प्यारी-प्यारी पुस्तकें और पत्रिकाएँ निकालते थे। उनके लिए चित्रकला प्रतियोगिताएँ आयोजित करते थे। सिर्फ़ भारत के ही नहीं बल्कि सारी दुनिया के बच्चे उन्हें जानते हैं। बच्चे ही उनकी कमज़ोरी थे और बच्चे ही उनकी ताकत।

केशव शंकर पिल्लै का जन्म 1902 में त्रिवेंद्रम में हुआ था। त्रिवेंद्रम विश्वविद्यालय से बी.ए. करने के बाद उन्होंने मुंबई में सिंधिया शिपिंग कंपनी के संस्थापक के निजी सचिव के रूप में नौकरी की। साथ ही साथ कानून का अध्ययन और चित्रकला का अभ्यास भी चलता रहा। कार्टून बनाना उनकी हॉबी थी। ‘बाम्बे-क्रॉनिकल’ में उनके कुछ कार्टून छपे तो उन्हें हिंदुस्तान टाइम्स में कार्टूनिस्ट की नौकरी मिल गई। 1932 से 1946 तक उन्होंने वहाँ काम किया। वे भारत के पहले कार्टूनिस्ट थे जिन्हें किसी पत्र ने पूरे समय के लिए नौकरी दी थी। देश-विदेश की बड़ी-बड़ी हस्तियों पर बनाए उनके कार्टूनों ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा और शंकर पिल्लै प्रसिद्ध होते गए। प्रतिभा छुपी नहीं रह सकती, उसे प्रकट होना ही था।

‘बड़ा साहब’ और ‘मेम साहब’ शीर्षक नियमित कार्टूनों में ‘बड़े लोगों’ की खोखली दुनिया पर हास्य-व्यंग्य को बहुत पसंद किया गया।

लगभग पच्चीस साल पहले इन ‘बड़े लोगों’ को इनके हाल पर छोड़ शंकर बच्चों की ओर झुक गए। उन्हें लगा ये सुंदर, प्यारे-प्यारे, भोले-भाले बच्चे कितने उपेक्षित हैं, क्यों न इनके लिए, इनकी खुशी के लिए ही काम किया जाए।

कलाकार तो भावुक होते ही हैं। बच्चों के प्रति उनके मन में जो प्रेम उमड़ा तो वे उन्हीं के खयालों में डूबते चले गए। उन्होंने पहली बार ‘शंकर्स वीकली’ द्वारा 1948 में बाल-चित्रकला प्रतियोगिता का विचार लोगों के सामने रखा। विचार नया था, बच्चों के हित का, इसलिए लोगों ने उसे बहुत पसंद किया। उस समय देश के प्रधानमंत्री और बच्चों के प्यारे चाचा नेहरू को भी यह विचार अच्छा लगा। 1949 में पहली अंतर्राष्ट्रीय बाल-चित्रकला प्रतियोगिता हुई। 1950 में ‘शंकर्स वीकली" के बाल-विशेषांक में श्री नेहरू ने लिखा था, “अनेक देशों के बच्चों की यह फौज अलग-अलग भाषा, वेशभूषा में होकर भी एक-जैसी ही है। कई देशों के बच्चों को इकट्ठा कर दो, वे या तो खेलेंगे या लड़ेंगे और यह लड़ाई भी खेल जैसी ही होगी। वे रंग, भाषा या जाति पर कभी नहीं लड़ेंगे।” शंकर पिल्ले का उद्देश्य भी यही था, संसार भर के बच्चों को निकट लाना। इसके बाद हर वर्ष ‘शंकर्स वीकली’ के बाल-विशेषांक निकलते रहे, हर वर्ष यह प्रतियोगिता होती रही और उसमें भाग लेने वाले बच्चों की संख्या भी बढ़ती रही।

शंकर चित्रकला प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए ढाई साल से सोलह साल के बच्चे भारत के स्कूलों में तैयारी करते रहते हैं। भारत के बाहर भी लगभग 100 देशों के बच्चे हर वर्ष इस अंतर्राष्ट्रीय बाल-चित्रकला प्रतियोगिता में भाग लेते हैं। सन् 1970 में 103 देशों से कुल 1 लाख 90 हज़ार बच्चों ने इस प्रतियोगिता में भाग लिया था और 18 देशों के 22 बच्चों ने ‘नेहरू स्वर्ण पदक’ जीता था। कुल 482 पुरस्कार दिए गए थे, जिनमें से 50 पुरस्कार लेखन के लिए और शेष चित्रकला के लिए थे। नेहरू जी जब तक जीवित रहे, इस वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह में मुख्य अतिथि बने और बाल-लेखकों और बाल-चित्रकारों के साथ तसवीरें खिंचवाते रहे। बच्चों की प्रतिभा के विकास में उनकी भी गहरी रुचि थी। इसीलिए शंकर पिल्लै के इस कार्य को उन्होंने प्रोत्साहन और सरकारी सहायता दिलवाई। आज नयी दिल्ली में चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट, बाल-पुस्तकालय, गुड़िया-घर है। एक नया ‘हॉबी सेंटर’ है।

शंकर ने जिस तरह सभी देशों की सुंदर, कलापूर्ण गुड़ियों की खोज़ की उसी तरह बच्चों के लिए विश्व-भर की चुनी हुई हज़ारों पुस्तकों का भी एक संग्रह किया। उनका स्थापित किया हुआ ‘चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट’ हर वर्ष बहुत सारी पुस्तकों का

प्रकाशन भी करता है। इन पुस्तकों में भारत की लोक-कथाएँ, पौराणिक कथाएँ, पंचतंत्र और हितोपदेश की कहानियाँ तथा ज्ञान-विज्ञान की कहानियाँ होती हैं, जिनकी छपाई का स्तर बहुत ऊँचा है। भारत की संस्कृति की इन कहानियों को देश की सभी भाषाओं में प्रस्तुत करने की योजना है। देश में छपाई का स्तर ऊँचा हो, इसके लिए वे प्रशिक्षण कोर्स भी चलाते थे।

1954 में शंकर को हंगरी की एक गुड़िया उपहार में मिली। वह गुड़िया इतनी सुंदर थी कि शंकर बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने विभिन्न देशों से ढेर सारी गुड़ियाँ ला-लाकर भारतीय बच्चों के लिए जमा करनी शुरू कर दीं। पहले उन्होंने अपनी गुड़ियों के इस संग्रह को कई जगह प्रदर्शनियाँ लगाकर बच्चों को दिखाया। जब गुड़ियों की संख्या बहुत ज़्यादा हो गई तो जगह-जगह प्रदर्शनियों में उन्हें ले जाना मुश्किल हो गया। ऐसे में कीमती गुड़ियों के खराब हो जाने का भी डर था। तब शंकर के मन में एक गुड़िया-संग्रहालय बनाने का विचार आया। देश की राजधानी में बना विशाल गुड़िया-घर उनके उसी विचार का परिणाम है।

गुड़िया-घर में अब एक वर्कशाप भी खोल दी गई है जहाँ भारतीय गुड़ियों का निर्माण होता है और फिर उन्हें विदेशी बच्चों को भेजा जाता है। हर साल उस गुड़िया-घर को देखने वाले भारतीय बच्चों की संख्या एक लाख से अधिक होती है। यहाँ लगभग 85 देशों की प्राचीन और आधुनिक गुड़ियों का आकर्षक संग्रह है। भारत के सभी राज्यों की गुड़ियाँ यहाँ एकत्रित हैं। इनके माध्यम से बच्चे भारत के हर राज्य के और विदेशों के रहन-सहन, तौर-तरीकों, फैशन, वेशभूषाओं तथा रीति-रिवाज़ों से परिचित हो सकते हैं। गुड़िया-घर के कुछ प्रमुख आकर्षण हैं, हंगरी की ऊन कातती वृद्धाएँ, टर्की की संगीतज्ञ-टोली, स्पेन की प्रसिद्ध ‘साँड’ से लड़ाई, जापान का चाय उत्सव और काबुकी नर्तकियाँ, इंग्लैंड का राजपरिवार और शेक्सपीयर जैसे कवि, अफ्रीका के आदिवासी, भारत की सांस्कृतिक झाँकियाँ और देश-विदेश के बच्चों का कक्ष, चंद्र-तल पर मानव आदि।

ये गुड़ियाएँ इतनी आकर्षक हैं कि हँसती-बोलती, काम करती, चलती-फिरती सजीव-सी लगती हैं। बच्चे इनके बीच जाकर घंटों खो जाते हैं। इस संग्रहालय को एक दिन में अच्छी तरह देखा भी नहीं जा सकता और इसे कई बार देखने पर भी मन नहीं भरता। बच्चों का भरपूर मनोरंजन हो

और देश-विदेश के बारे में उनकी जानकारी बढ़े, गुड़िया-घर की स्थापना के पीछे शंकर का यही उद्देश्य था।

बच्चों के विकास के लिए शंकर की अगली योजनाएँ थीं-आर्ट क्लब और हॉबी सेंटर चलाना, ‘भारत के बच्चे’ नामक पुस्तकों की एक लंबी सीरीज निकालना और हर वर्ष छुट्टियों में 3-4 कैंप लगाकर सारे भारत के बच्चों को एक जगह मिलने का अवसर देना। अपनी इस योजना को वे ‘बच्चों का जनतंत्र’ नाम देना चाहते थे।

इस तरह केशव शंकर पिल्लै अपने बाल-प्रेम और कृतियों से न सिर्फ़ भारत में बल्कि पूरे विश्व में विख्यात हो गए। दुनिया-भर के बच्चों से उन्हें प्यार था तो देश-विदेश के लाखों बच्चों का प्यार भी उन्हें मिला।

  • आशा रानी व्होरा
शब्दार्थ
निजी - स्वयं का, व्यक्तिगत
एकत्रित - जमा की हुई, इकट्डा किया हुआ
हस्तियाँ - विशिष्ट लोग
अनूठी - अनोखी, अद्भुत
उपेक्षित - जिसकी ओर पूरी तरह ध्यान न दिया जाए
विशेषांक - विशेष प्रकार का अंक, किसी विशेष विषय को आधार बनाकर छापा गया अंक (पत्रिका)
अंतर्राष्ट्रीय - विभिन्न राष्ट्रों के बीच
कलापूर्ण - कला से युक्त
पौराणिक - पुराणों से संबंधित
प्रशिक्षण - सिखाना, शिक्षण देना
आकर्षक - मोहक, सुंदर
माध्यम - के द्वारा, जरिए
कृतियाँ - रचनाएँ, पुस्तकें
विख्यात - प्रसिद्ध, मशहूर
संग्रह - जमा करना, एकत्र करना
संग्रहालय - वह स्थान जहाँ कई वस्तुएँ इकट्टी करके जमा कर रखी जाती हैं।
संस्थापक - स्थापना करने वाला
खोखली - पोली, किसी ठोस वस्तु के भीतर खाली स्थान होना
प्रदर्शनी - कुछ वस्तुओं को एक स्थान पर देखने के लिए रखना

1. पाठ से

(क) गुड़ियों का संग्रह करने में केशव शंकर पिल्लै को कौन-कौन सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?

(ख) वे बाल चित्रकला प्रतियोगिता क्यों करना चाहते थे?

(ग) केशव शंकर पिल्लै ने बच्चों के लिए विश्वभर की चुनी हुई गुड़ियों का संग्रह क्यों किया?

(घ) केशव शंकर पिल्लै हर वर्ष छुट्टियों में कैंप लगाकर सारे भारत के बच्चों को एक जगह मिलने का अवसर देकर क्या करना चाहते थे?

2. तरह-तरह के काम

केशव ने कार्टून बनाना, गुड़ियों व पुस्तकों का संग्रह करना, पत्रिका में लिखना व पत्रिका निकालना, बाल चित्रकला प्रतियोगिता का आयोजन व बच्चों का सम्मेलन कराना जैसे तरह-तरह के काम किए। उनको किसी एक काम के लिए भी तरह-तरह के काम करने पड़े होंगे। अब बताओ कि-

(क) कार्टून बनाने के लिए उन्हें कौन-कौन से काम करने पड़े होंगे?

(ख) बच्चों के लिए बाल चित्रकला प्रतियोगिता कराने के लिए क्या-क्या करना पड़ा होगा?

(ग) केशव शंकर पिल्लै की तरह कुछ और भी लोग हुए हैं जिन्होंने तरह-तरह के काम करके काफी नाम कमाया। तुम्हारी पसंद के वो कौन-कौन लोग हो सकते हैं? तुम उनमें से कुछ के नाम लिखो और उन्होंने जो कुछ विशेष काम किए हैं उनके नाम के आगे उसका भी उल्लेख करो।

3. घर

तुमने इस पाठ में गुड़ियाघर के बारे में पढ़ा। पता करो कि ‘चिड़ियाघर’, ‘सिनेमाघर’ और ‘किताबघर’ कौन और क्यों बनवाता है? तुम इनमें से अपनी पसंद के किसी एक घर के बारे में बताओ जहाँ तुम्हें जाना बेहद पसंद हो?

4. संग्रह की चीज़ें

आमतौर पर लोग अपनी मनपसंद, महत्वपूर्ण

और आवश्यक चीज़ों का संग्रह करते हैं। नीचे कुछ चीज़ों के नाम दिए गए हैं। जैसे-

(क) डाक-टिकट

(ख) पुराने सिक्के

(ग) गुड़िया

(घ) महत्वपूर्ण पुस्तकें

(ङ) चित्र

(च) महत्वपूर्ण व्यक्तियों के हस्तलेख

इसके अतिरिक्त भी तुम्हारे आसपास कुछ चीज़ें होती है जिसे लोग बेकार या अनुपयोगी समझकर कूड़ेदान या अन्य उपयुक्त जगह पर रख या फेंक देते हैं।

(क) तुम पता करो यदि उसका भी कोई संग्रह करता है तो क्यों?

(ख) उसका संग्रह करने वालों को क्या परेशानियाँ होती होंगी?

(इनके उत्तर के लिए तुम बड़ों की सहायता ले सकते हो।)

5. लड़ाई भी खेल जैसी

“अनेक देशों के बच्चों की यह फ़ौज अलग-अलग भाषा, वेशभूषा में होकर भी एक जैसी ही है। कई देशों के बच्चों को इकट्ठा कर दो, वे खेलेंगे या लड़ंगे और यह लड़ाई भी खेल जैसी ही होगी। वे रंग, भाषा या जाति पर कभी नहीं लड़ेंगे।”

ऊपर के वाक्यों को पढ़ो और बताओ कि-

(क) यह कब, किसने, किसमें और क्यों लिखा?

(ख) क्या लड़ाई भी खेल जैसी हो सकती है? अगर हो तो कैसे और उस खेल में तुम्हारे विचार से क्या-क्या हो सकता है।

6. सुबह से शाम

केशव शंकर पिल्लै बच्चों के लिए सुबह से शाम तक काम में लगे रहते थे। तुम सुबह से शाम तक कौन-कौन से काम करना चाहोगे? नीचे उपयुक्त जगह में अपनी पसंद के काम को भी लिखो और सही $(\checkmark)$ का निशान लगाओ। तुम उसका कारण भी बताओ।

क्रम सं. काम का नाम $\checkmark$ या $\times$ कारण

(क) खेलना

(ख) पढ़ना

(ग) चित्रकारी करना

(घ) ……………………….

(ङ) ……………………….

(च) ……………………….



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