अध्याय 05 क्या निराश हुआ जाए

केवल पढ़ने के लिए

कदम मिलाकर चलना होगा

बाधाएँ आती हैं, आएँ,
घिरें प्रलय की घोर घटाएँ
पाँवों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ
निज हाथों से हँसते-हँसते,
आग लगा कर जलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

हास्य-रुदन में, तूफानों में,
अमर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

उजियारे में, अंधकार में,
कल कछार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,

क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को दलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

सम्मुख फैला अमर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अथ,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल-सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न माँगते,
पावस बनकर ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

कुश काँटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुवन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।

$\quad$ $\quad$ $\quad$ - अटल बिहारी वाजपेयी

भारत के दसवें प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर रियासत की शिंदे छावनी में हुआ था। उनके पिता पंडित कृष्ण बिहारी वाजपेयी अध्यापक और माँ कृष्ण वाजपेयी गृहणी थीं। अटल बिहारी वाजपेयी वटेश्वर, आगरा, उत्तर प्रदेश के मूल निवासी थे। वे हिंदी कवि, पत्रकार व प्रखर वक्ता के रूप में लोकप्रिय हुए। अटल जी की कविताएँ काूद्बिनी, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत तथा राष्ट्र धर्म आदि सुप्रसिद्ध राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। मंच से उनका काव्य पाठ उनके भाषण की तरह ही अत्यंत प्रभावशाली होता था। उन्होंने राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन का कुशल सम्पादन किया

अटल बिहारी वाजपेयी तीन बार भारत के प्रधानमंत्री, एक बार विदेश मंत्री और 12 बार सासंद रहे। राष्ट्र के प्रति उनकी सेवाओं के लिए उन्हें सर्वोच्च भारतीय नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से भी विभूषित किया गया। 16 अगस्त 2018 को 93 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

प्रश्न-अभ्यास

कविता से

1. इस कविता से आप अपने को जोड़कर कैसे देखते हैं?

2. आपकी दृष्टि में कदम मिलाकर चलने के लिए कवि क्यों प्रेरित करता है?

3. इस कविता की लयात्मकता पर चर्चा कीजिए।

क्या निराश हुआ जाए

मे रा मन कभी-कभी बैठ जाता है। समाचार-पत्रों में ठगी, डकैती, चोरी, तस्करी और भ्रष्टाचार के समाचार भरे रहते हैं। आरोप-प्रत्यारोप का कुछ ऐसा वातावरण बन गया है कि लगता है, देश में कोई ईमानदार आदमी ही नहीं रह गया है। हर व्यक्ति संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। जो जितने ही ऊँचे पद पर हैं उनमें उतने ही अधिक दोष दिखाए जाते हैं।

एक बहुत बड़े आदमी ने मुझसे एक बार कहा था कि इस समय सुखी वही है जो कुछ नहीं करता। जो कुछ भी करेगा उसमें लोग दोष खोजने लगेंगे। उसके सारे गुण भुला दिए जाएँगे और दोषों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाने लगेगा। दोष किसमें नहीं होते? यही कारण है कि हर आदमी दोषी अधिक दिख रहा है, गुणी कम या बिलकुल ही नहीं। स्थिति अगर ऐसी है तो निश्चय ही चिंता का विषय है।

क्या यही भारतवर्ष है जिसका सपना तिलक और गांधी ने देखा था? रवींद्रनाथ ठाकुर और मदनमोहन मालवीय का महान संस्कृति-सभ्य भारतवर्ष किस अतीत के गह्वर में डूब गया? आर्य और द्रविड़, हिंदू और मुसलमान, यूरोपीय और भारतीय आदर्शों की मिलन-भूमि ‘मानव महा-समुद्र’ क्या सूख ही गया? मेरा मन कहता है ऐसा हो नहीं सकता। हमारे महान मनीषियों के सपनों का भारत है और रहेगा।

यह सही है कि इन दिनों कुछ ऐसा माहौल बना है कि ईमानदारी से मेहनत करके जीविका चलानेवाले निरीह और भोले-भाले श्रमजीवी पिस रहे हैं और झूठ तथा फ़रेब का रोज़गार करनेवाले फल-फूल रहे हैं। ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है, सचाई केवल भीरु और बेबस लोगों के हिस्से पड़ी है। ऐसी स्थिति में जीवन के महान मूल्यों के बारे में लोगों की आस्था ही हिलने लगी है।

भारतवर्ष ने कभी भी भौतिक वस्तुओं के संग्रह को बहुत अधिक महत्त्व नहीं दिया है, उसकी दृष्टि से मनुष्य के भीतर जो महान आंतरिक गुण स्थिर भाव से बैठा हुआ है, वही चरम और परम है। लोभ-मोह, काम-क्रोध आदि विचार मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं, पर उन्हें प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन तथा बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देना बहुत बुरा आचरण है। भारतवर्ष ने कभी भी उन्हें उचित नहीं माना, उन्हें सदा संयम के बंधन से बाँधकर रखने का प्रयत्न किया है। परंतु भूख की उपेक्षा नहीं की जा सकती, बीमार के लिए दवा की उपेक्षा नहीं की जा सकती, गुमराह को ठीक रास्ते पर ले जाने के उपायों की उपेक्षा नहीं की जा सकती।

हुआ यह है कि इस देश के कोटि-कोटि दरिद्रजनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए ऐसे अनेक कायदे-कानून बनाए गए हैं जो कृषि, उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति को अधिक उन्नत और सुचारु बनाने के लक्ष्य से प्रेरित हैं, परंतु जिन लोगों को इन कार्यों में लगना है, उनका मन सब समय पवित्र नहीं होता। प्राय: वे ही लक्ष्य को भूल जाते हैं और अपनी ही सुख-सुविधा की ओर ज़्यादा ध्यान देने लगते हैं।

भारतवर्ष सदा कानून को धर्म के रूप में देखता आ रहा है। आज एकाएक कानून और धर्म में अंतर कर दिया गया है। धर्म को धोखा नहीं दिया जा सकता, कानून को दिया जा सकता है। यही कारण है कि जो लोग धर्मभीरु हैं, वे कानून की त्रुटियों से लाभ उठाने में संकोच नहीं करते।

इस बात के पर्याप्त प्रमाण खोजे जा सकते हैं कि समाज के ऊपरी वर्ग में चाहे जो भी होता रहा हो, भीतर-भीतर भारतवर्ष अब भी यह अनुभव कर रहा है कि धर्म कानून से बड़ी चीज़ है। अब भी सेवा, ईमानदारी, सचाई और आध्यात्मिकता के मूल्य बने हुए हैं। वे दब अवश्य गए हैं लेकिन नष्ट नहीं हुए हैं। आज भी वह मनुष्य से प्रेम करता है, महिलाओं का सम्मान करता है, झूठ और चोरी को गलत समझता है, दूसरे को पीड़ा पहुँचाने को पाप समझता है। हर आदमी अपने व्यक्तिगत जीवन में इस बात का अनुभव करता है। समाचार पत्रों में जो भ्रष्टाचार के प्रति इतना आक्रोश है, वह यही साबित करता है कि हम ऐसी

चीज़ों को गलत समझते हैं और समाज में उन तत्वों की प्रतिष्ठा कम करना चाहते हैं जो गलत तरीके से धन या मान संग्रह करते हैं।

दोषों का पर्दाफाश करना बुरी बात नहीं है। बुराई यह मालूम होती है कि किसी के आचरण के गलत पक्ष को उद्घाटित करके उसमें रस लिया जाता है और दोषोद्घाटन को एकमात्र कर्तव्य मान लिया जाता है। बुराई में रस लेना बुरी बात है, अच्छाई में उतना ही रस लेकर उजागर न करना और भी बुरी बात है। सैकड़ों घटनाएँ ऐसी घटती हैं जिन्हें उजागर करने से लोक-चित्त में अच्छाई के प्रति अच्छी भावना जगती है।

एक बार रेलवे स्टेशन पर टिकट लेते हुए गलती से मैंने दस के बजाय सौ रुपये का नोट दिया और मैं जल्दी-जल्दी गाड़ी में आकर बैठ गया। थोड़ी देर में टिकट बाबू उन दिनों के सेकंड क्लास के डिब्बे में हर आदमी का चेहरा पहचानता हुआ उपस्थित हुआ। उसने मुझे पहचान लिया और बड़ी विनम्रता के साथ मेरे हाथ में नब्बे रुपये रख दिए और बोला, “यह बहुत गलती हो गई थी। आपने भी नहीं देखा, मैंने भी नहीं देखा।” उसके चेहरे पर विचित्र संतोष की गरिमा थी। मैं चकित रह गया।

कैसे कहूँ कि दुनिया से सचाई और ईमानदारी लुप्त हो गई है, वैसी अनेक अवांछित घटनाएँ भी हुई हैं, परंतु यह एक घटना ठगी और वंचना की अनेक घटनाओं से अधिक शक्तिशाली है।

एक बार मैं बस में यात्रा कर रहा था। मेरे साथ मेरी पत्नी और तीन बच्चे भी थे। बस में कुछ खराबी थी, रुक-रुककर चलती थी। गंतव्य से कोई आठ किलोमीटर पहले ही एक निर्जन सुनसान स्थान में बस ने जवाब दे दिया। रात के कोई दस बजे होंगे। बस में यात्री घबरा गए। कंडक्टर उतर गया और एक साइकिल लेकर चलता बना। लोगों को संदेह हो गया कि हमें धोखा दिया जा रहा है।

बस में बैठे लोगों ने तरह-तरह की बातें शुरू कर दीं। किसी ने कहा, “यहाँ डकैती होती है, दो दिन पहले इसी तरह एक बस को लूटा गया था।” परिवार सहित अकेला मैं ही था। बच्चे पानी-पानी चिल्ला रहे थे। पानी का कहीं ठिकाना न था। ऊपर से आदमियों का डर समा गया था।

कुछ नौजवानों ने ड्राइवर को पकड़कर मारने-पीटने का हिसाब बनाया। ड्राइवर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। लोगों ने उसे पकड़ लिया। वह बड़े कातर ढंग से मेरी ओर देखने लगा और बोला, “हम लोग बस का कोई उपाय कर रहे हैं, बचाइए, ये लोग मारेंगे।” डर तो मेरे मन में था पर उसकी कातर मुद्रा

देखकर मैंने यात्रियों को समझाया कि मारना ठीक नहीं है। परंतु यात्री इतने घबरा गए कि मेरी बात सुनने को तैयार नहीं हुए। कहने लगे, “इसकी बातों में मत आइए, धोखा दे रहा है। कंडक्टर को पहले ही डाकुओं के यहाँ भेज दिया है।”

मैं भी बहुत भयभीत था पर ड्राइवर को किसी तरह मार-पीट से बचाया। डेढ़-दो घंटे बीत गए। मेरे बच्चे भोजन और पानी के लिए व्याकुल थे। मेरी और पत्नी की हालत बुरी थी। लोगों ने ड्राइवर को मारा तो नहीं पर उसे बस से उतारकर एक जगह घेरकर रखा। कोई भी दुर्घटना होती है तो पहले ड्रावइर को समाप्त कर देना उन्हें उचित जान पड़ा। मेरे गिड़गिड़ाने का कोई विशेष असर नहीं पड़ा। इसी समय क्या देखता हूँ कि एक खाली बस चली आ रही है और उस पर हमारा बस कंडक्टर भी बैठा हुआ है। उसने आते ही कहा, “अड्डे से नई बस लाया हूँ, इस बस पर बैठिए। वह बस चलाने लायक नहीं है।” फिर मेरे पास एक लोटे में पानी और थोड़ा दूध लेकर आया और बोला, “पंडित जी! बच्चों का रोना मुझसे देखा नहीं गया। वहीं दूध मिल गया, थोड़ा लेता आया।” यात्रियों में फिर

जान आई। सबने उसे धन्यवाद दिया। ड्राइवर से माफ़ी माँगी और बारह बजे से पहले ही सब लोग बस अड्डे पहुँच गए।

कैसे कहूँ कि मनुष्यता एकदम समाप्त हो गई! कैसे कहूँ कि लोगों में दया-माया रह ही नहीं गई! जीवन में जाने कितनी ऐसी घटनाएँ हुई हैं जिन्हें मैं भूल नहीं सकता।

ठगा भी गया हूँ, धोखा भी खाया है, परंतु बहुत कम स्थलों पर विश्वासघात नाम की चीज़ मिलती है। केवल उन्हीं बातों का हिसाब रखो, जिनमें धोखा खाया है तो जीवन कष्टकर हो जाएगा, परंतु ऐसी घटनाएँ भी बहुत कम नहीं हैं जब लोगों ने अकारण सहायता की है, निराश मन को ढाँढ़स दिया है और हिम्मत बँधाई है। कविवर रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने प्रार्थना गीत में भगवान से प्रार्थना की थी कि संसार में केवल नुकसान ही उठाना पड़े, धोखा ही खाना पड़े तो ऐसे अवसरों पर भी हे प्रभो! मुझे ऐसी शक्ति दो कि मैं तुम्हारे ऊपर संदेह न करूँ।

मनुष्य की बनाई विधियाँ गलत नतीजे तक पहुँच रही हैं तो इन्हें बदलना होगा। वस्तुतः आए दिन इन्हें बदला ही जा रहा है, लेकिन अब भी आशा की ज्योति बुझी नहीं है। महान भारतवर्ष को पाने की संभावना बनी हुई है, बनी रहेगी।

मेरे मन! निराश होने की जरूरत नहीं है।

-हजारी प्रसाद द्विवेदी

प्रश्न-अभ्यास

आप विके विचार से

1. लेखक ने स्वीकार किया है कि लोगों ने उन्हें भी धोखा दिया है फिर भी वह निराश नहीं है। आपके विचार से इस बात का क्या कारण हो सकता है?

2. समाचार-पत्रों, पत्रिकाओं और टेलीविज़न पर आपने ऐसी अनेक घटनाएँ देखी-सुनी होंगी जिनमें लोगों ने बिना किसी लालच के दूसरों की सहायता की हो या ईमानदारी से काम किया हो। ऐसे समाचार तथा लेख एकत्रित करें और कम-से-कम दो घटनाओं पर अपनी टिप्पणी लिखें।

3. लेखक ने अपने जीवन की दो घटनाओं में रेलवे के टिकट बाबू और बस कंडक्टर की अच्छाई और ईमानदारी की बात बताई है। आप भी अपने या अपने किसी परिचित के साथ हुई किसी घटना के बारे में बताइए जिसमें किसी ने बिना किसी स्वार्थ के भलाई, ईमानदारी और अच्छाई के कार्य किए हों।

4 पर्दाफ़ाश

1. दोषों का पर्दाफ़ाश करना कब बुरा रूप ले सकता है?

2. आजकल के बहुत से समाचार पत्र या समाचार चैनल ‘दोषों का पर्दाफ़ाश’ कर रहे हैं। इस प्रकार के समाचारों और कार्यक्रमों की सार्थकता पर तर्क सहित विचार लिखिए?

कारण बताइए

निम्नलिखित के संभावित परिणाम क्या-क्या हो सकते हैं? आपस में चर्चा कीजिए, जैसे-“ईमानदारी को मूर्खता का पर्याय समझा जाने लगा है।” परिणाम-भ्रष्टाचार बढ़ेगा।

1. “सचाई केवल भीरु और बेबस लोगों के हिस्से पड़ी है।” …………………………….

2. “झूठ और फरेब का रोज़गार करनेवाले फल-फूल रहे हैं।” …………………………….

3. “हर आदमी दोषी अधिक दिख रहा है, गुणी कम।” …………………………….

दो लेखक और बस यात्रा

आपने इस लेख में एक बस की यात्रा के बारे में पढ़ा। इससे पहले भी आप एक बस यात्रा के बारे में पढ़ चुके हैं। यदि दोनों बस-यात्राओं के लेखक आपस में मिलते तो एक-दूसरे को कौन-कौन सी बातें बताते? अपनी कल्पना से उनकी बातचीत लिखिए।

सार्थक शीर्षक

1. लेखक ने लेख का शीर्षक ‘क्या निराश हुआ जाए’ क्यों रखा होगा? क्या आप इससे भी बेहतर शीर्षक सुझा सकते हैं?

2. यदि ‘क्या निराश हुआ जाए’ के बाद कोई विराम चिन्न लगाने के लिए कहा जाए तो आप दिए गए चिह्नों में से कौन-सा चिह्न लगाएँगे? अपने चुनाव का कारण भी बताइए। - , । . ! ? . ; - , …. ।

  • “आदर्शों की बातें करना तो बहुत आसान है पर उन पर चलना बहुत कठिन है।” क्या आप इस बात से सहमत हैं? तर्क सहित उत्तर दीजिए।

सपनों का भारत

“हमारे महान मनीषियों के सपनों का भारत है और रहेगा।”

1. आपके विचार से हमारे महान विद्वानों ने किस तरह के भारत के सपने देखे थे? लिखिए।

2. आपके सपनों का भारत कैसा होना चाहिए? लिखिए।

भाषा की बात

1. दो शब्दों के मिलने से समास बनता है। समास का एक प्रकार है-द्वंद्व समास। इसमें दोनों शब्द प्रधान होते हैं। जब दोनों भाग प्रधान होंगे तो एक-दूसरे में द्वंद्व (स्पर्धा, होड़) की संभावना होती है। कोई किसी से पीछे रहना नहों चाहता, जैसे-चरम और परम $=$ चरम-परम, भीरु और बेबस $=$ भीरु-बेबस। दिन और रात $=$ दिन-रात।

‘और’ के साथ आए शब्दों के जोड़े को ‘और’ हटाकर (-) योजक चिह्न भी लगाया जाता है। कभी-कभी एक साथ भी लिखा जाता है। द्वंद्व समास के बारह उदाहरण ढूँढ़कर लिखिए।

2. पाठ से तीनों प्रकार की संज्ञाओं के उदाहरण खोजकर लिखिए।

शब्दार्थ
धर्मभीरु - जिसे धर्म छूटने का भय हो, अधर्म से डरनेवाला
पर्दाफ़ाश - भेद खोलना, दोष प्रकट करना
उजागर - प्रकट करना
गंतव्य - स्थान जहाँ किसी को जाना हो
ढाँढ़स - दिलासा, धीरज


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