अध्याय 01 प्रागैतिहासिक शैल-चित्र

अत्यंत प्राचीन अतीत यानी बीते हुए काल को, जिसके लिए न तो कोई पुस्तक और न ही कोई लिखित दस्तावेज़ उपलब्ध है, उसे प्राक् इतिहास (Pre-history) कहा जाता है। पुस्तकें या दस्तावेज़ उपलब्ध होते भी कैसे? उस समय न तो कागज़ था, न ही कोई भाषा या लिखित शब्द। प्राक् इतिहास को हम अक्सर प्रागैतिहासिक काल (Pre-historic times) कहते हैं। ऐसी परिस्थिति में मनुष्य कैसे रहता होगा, यह विश्वास करना तब तक बहुत कठिन बना रहा, जब तक कि विद्वानों ने उन स्थानों को खोजना शुरू नहीं कर दिया, जहाँ प्रागैतिहासिक काल के मनुष्य रहा करते थे। ऐसे स्थलों की खुदाई से पुराने औजारों, मिट्टी के बर्तनों, आवास स्थलों और उस काल के मनुष्यों तथा जानवरों की हड्डियों के अवशेष मिले हैं। इन चीजों से प्राप्त जानकारियों को और तत्कालीन मनुष्यों द्वारा गुफाओं की दीवारों पर खींची गई आकृतियों को एक साथ जोड़कर, विद्वानों ने एक अच्छा-खासा विवरण तैयार किया है। इससे यह जाना जा सकता है कि उस समय क्या होता था और प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य किस प्रकार रहा करते थे। जब मनुष्यों की खाना, पानी, कपड़ा तथा आवास संबंधी बुनियादी ज़रूरतें पूरी होने लगीं तो वे अपने विचारों तथा मनोभावों को अभिव्यक्त करने का भी प्रयास करने लगे। इसके लिए उन्होंने गुफाओं की दीवारों को आधार बनाकर चित्र और रेखाचित्र बनाने शुरू कर दिए और उनके माध्यम से अपने आपको यानी अपने भावों तथा विचारों को अभिव्यक्त करने लगे।

प्रागैतिहासिक काल के मानव ने इन चित्रों को क्यों खींचा? शायद उस समय के मनुष्यों ने अपने घरों को अधिक रंगीन और सुंदर बनाने के लिए ये भित्ति-चित्र बनाए अथवा यह भी हो सकता है कि उन्होंने अपने रोजमर्रा के जीवन का दृश्य-अभिलेख रखने के लिए ये चित्र खींचे, जैसे कि आजकल हम में से कुछ लोग अपनी डायरी लिखते हैं।

मानव के आरंभिक विकास के इस प्रागैतिहासिक काल को आमतौर पर पुरापाषाण युग (Paleolithic Age) यानी पुराना पत्थर काल कहा जाता है।

प्रागैतिहासिक चित्रकारियाँ दुनिया के अनेक भागों में पाई गई हैं। हम वास्तव में यह नहीं जानते कि पूर्व-पुरापाषाण युग (Lower Paleolithic) के मनुष्यों ने क्या कभी कोई कला वस्तु बनाई थी। लेकिन हमें पता चलता है कि उत्तर पुरापाषाण काल (Upper Paleolithic Time) तक आते-आते मनुष्य के कलात्मक क्रियाकलापों में भारी वृद्धि हो गई थी।


दुनियाभर में इस काल की ऐसी अनेक गुफाएँ पाई गई हैं जिनकी दीवारें उन जानवरों के सुदर चित्रों से भरी पड़ी हैं, जिनका उन गुफाओं में रहने वाले लोग शिकार किया करते थे। वे लोग मनुष्यों और उनकी गतिविधियों के दृश्य चित्रित करते थे और वृत्त, वर्ग, आयत जैसी अनेक ज्यामितीय आकृतियाँ और प्रतीक भी बनाते थे। भारत में अब तक जो प्राचीनतम चित्र मिले हैं, वे उत्तर पुरापाषाण काल (Upper Paleolithic Time) के हैं। यह जानना दिलचस्प होगा कि भारत में शैल-चित्रों की सर्वप्रथम खोज वर्ष 1867-68 में पुराविद् आर्किबोल्ड कार्लाइल ने स्पेन में हुई आल्तामीरा की खोज से भी 12 वर्ष पहले की थी। कॉकबर्ब, एंडसस, मित्र और घोष पहले अनुसंधानकर्ता थे जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप में ऐसे अनेक स्थल खोजे थे।

शैलचित्रों के अवशेष वर्तमान मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और बिहार के कई जिलों में स्थित गुफाओं की दीवारों पर पाए गए हैं। उत्तराखण्ड में कुमाऊँ की पहाड़ियों में भी कुछ शैल-चित्र मिले हैं। अल्मोड़ा बारेछिना मार्ग पर अल्मोड़ा से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर सुयाल नदी के किनारे स्थित लखुडियार में पाए गए शैलाश्रयों में प्रागैतिहासिक काल के अनेक चित्र मिले हैं। लखुडियार का शाठ्दिक अर्थ है एक लाख गुफाएँ। यहाँ पाए जाने वाले चित्रों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता हैमानव चित्र, पशु चित्र और ज्यामितीय आकृतियाँ। ये चित्र सफेद, काले और लाल रंगों के हैं। इनमें मनुष्यों को छड़ी जैसे रूप में दिखाया गया है। पशु चित्रों में, एक लंबे थूथन वाला जानवर, एक लोमड़ी और कई ंगों वाली छिपकली, चित्रकारी के मुख्य विषय हैं। लहरदार रेखाएँ, आयताकार ज्यामितीय डिजाइनों और अनेक बिंदुओं के समूह इन चित्रों में देखे जा सकते हैं। इन चित्रों में दर्शाए गए दृश्यों में से एक दृश्य अत्यंत आकर्षक है, जिसमें मानव आकृतियों को हाथ पकड़कर नाचते हुए दिखाया गया है। कुछ चित्र पहले से बने चित्रों पर बने पाए गए हैं। वहाँ सबसे पहले काले रंग के चित्र बनाए गए, फिर उन पर लाल रंग के चित्र और अंत में उन पर सफेद रंग के चित्र बने हुए पाए गए हैं। कश्मीर से

हाथों में हाथ डाले नृत्य करते हुए लोग, लखुडियार, उत्तराखण्ड

लहरदार लकीरें, लखुडियार, उत्तराखण्ड

भी ऐसे दो शिलापट्ट मिले हैं, जिन पर कुछ चित्र उकेरे हुए हैं। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक की ग्रेनाइट की चट्टानों ने नव पाषाण काल के मानव को अपने चित्र बनाने के लिए उपयुक्त कैन्वस दिया। यहाँ अनेक स्थलों पर ऐसे चित्र पाए जाते हैं। इनमें तीन स्थान अर्थात् कुपगल्लू, पिकलिहाल और टेक्कलकोटा अधिक प्रसिद्ध हैं। यहाँ तीन तरह के चित्र पाए जाते हैं। कुछ चित्र सफेद रंग के हैं, कुछ लाल रंग के और कुछ सफेद पृष्ठभूमि पर लाल रंग के। ये चित्र परवर्ती ऐतिहासिक काल, आरंभिक ऐतिहासिक काल और नवपाषाण काल के हैं। इन चित्रों के विषय हैं-साँड़, हाथी, सांभर, चिंकारा, भेड़, बकरी, घोड़ा, शैलकृत मानव, त्रिशूल आदि। वनस्पतियों के चित्र बहुत ही कम पाए जाते हैं। कुपगल्लू के एक चित्र में एक अत्यंत विचित्र दृश्य प्रस्तुत किया गया है जिसमें बड़े-बड़े अंगों वाले कामोद्वीप्त पुरुषों को स्त्रियों को भगाकर ले जाते हुए दिखाया गया है।

परन्तु सबसे अधिक और सुन्दर शैल-चित्र मध्य प्रदेश में विंध्यांचल की श्रृंखलाओं और उत्तर प्रदेश में कैमूर की पहाड़ियों में मिले हैं। ये पहाड़ी श्रृंखलाएँ पुरापाषाण कालीन और मध्यपाषाण कालीन अवशेषों से भरी पड़ी हैं और वहाँ ऐसे जंगलों, जंगली पौधों, फलों, जलधाराओं और कंदराओं की बहुतायत है, जो पाषाण काल के लोगों के रहने के लिए हर तरह से उपयुक्त थीं। वहाँ के प्राकृतिक शैलाश्रय (चट्टानी आवास) वर्षा, बिजली की गरज, ठंड और चिलचिलाती धूप की गर्मी से बचने के लिए उन्हें पर्याप्त सहारा देते थे। इनमें सबसे बड़ा और अत्यंत दर्शनीय स्थल मध्य प्रदेश में विंध्यांचल की पहाड़ियों में स्थित भीमबेटका है। भीमबेटका मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के दक्षिण में 45 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, जहाँ 10 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में लगभग 800 शैलाश्रय (शेल्टर) मौजूद हैं। इनमें से 500 शैलाश्रयों में चित्र पाए जाते हैं।

गुफा द्वार, भीमबेटका, मध्‍य प्रदेश

भीमबेटका की गुफाओं की खोज वर्ष 1957-58 में डॉ वी.ए. वाकणकर द्वारा की गई थी और बाद में अन्य अनुसंधानकर्ताओं ने भी उनका अनुसरण किया। वाकणकर ने इन चित्रों का अध्ययन करने के लिए वर्षों तक इन दुर्गम पहाड़ियों और जंगलों का सर्वेक्षण किया।

यहाँ पाए गए चित्रों के विषय अनेक प्रकार के हैं। इनमें उस समय की रोज़मर्रा की जिंदगी की घटनाओं के अलावा, धार्मिक एवं भव्य दृश्य भी चित्रित किए गए हैं, जिनमें शिकार, नृत्य, संगीत, हाथी-घोड़ों की सवारी, जानवरों की लड़ाई, शहद इकट्ठा करने, शररीर-सज्जा, छद्मवेष, मुखौटा लगाने जैसी अनेकानेक घरेलू गतिविधियों के चित्र शामिल हैं। भीमबेटका की शैल-कला को शैली, तकनीक और आधार के अनुसार कई श्रेणियों में बाँटा गया है। रेखाचित्रों तथा चित्रकारियों को सात कालावधियों में वर्गीकृत किया जा सकता है। पहला काल है उत्तर

क्या आप बता सकते हैं कि चित्रार इस चित्र में क्या दर्शाना चाहता है?

पुरापाषाण युग, दूसरा मध्यपाषाण युग और तीसरा है ताम्रपाषाण युग। इन तीन कालावधियों के बाद एक के बाद एक चार ऐतिहासिक कालावधियाँ आती हैं। लेकिन यहाँ हम पहले तीन कालों का ही विवेचन करेंगे।

उत्तर पुरापाषाण युग (अपर पैलिओलिथिक पीरियड)

उत्तर पुरापाषाण युग के चित्र हरी और गहरी लाल रेखाओं से बनाए गए हैं। इनमें से कुछ छड़ी जैसी पतली मानव आकृतियाँ हैं लेकिन अधिकांश चित्र बड़े-बड़े जानवरों, जैसेभैंसों, हाथियों, बाघों, गैडों और सूअरों के हैं। कुछ चित्र धवन चित्र (wash paintings) हैं। लेकिन अधिकांश चित्र ज्यामितीय आकृतियों से भरे हुए हैं। ऐसे चित्रों का शिकारियों से कोई संबंध नहीं दिखाया गया है। हरे चित्र नर्तकों के और लाल चित्र शिकारियों के हैं।

मध्यपाषाण युग (मेसोलिथिक पीरियड)

दूसरी कालावधि यानी मध्यपाषाण युग के चित्रों की संख्या सबसे अधिक है। इस अवधि के दौरान विषयों की संख्या कई गुना बढ़ गई, मगर चित्रों का आकार छोटा हो गया। शिकार के दृश्यों को प्रमुखता मिल गई। शिकार के दृश्यों में लोगों को समूह बनाकर काँटेदार भाले, नोकदार डंडे, तीर-कमान लेकर जानवरों का शिकार करते हुए दिखाया गया है। कुछ चित्रों में आदिमानवों को जाल-फंदे लेकर या गड्ढे आदि खोदकर जानवरों को पकड़ने की कोशिश करते हुए दिखाया गया है। शिकारियों को साधारण कपड़े और गहने पहने हुए चित्रित किया गया है। कुछ चित्रों में मनुष्यों को सुंदर कपड़ों में सजा हुआ और कुछ में मुखौटे पहने हुए भी दर्शाया गया है। कुछ चित्रों में हाथी, जंगली साँड़, बाघ, शेर, सूअर, बारहसिंगा, हिरन, तेंदुआ, चीता, गैंडा, मछली, मेढक, छिपकली, गिलहरी जैसे छोटे-बड़े जानवरों को और पक्षियों को भी चित्रित किया गया है। मध्यपाषाण काल के कलाकार जानवरों को चित्रित करना अधिक पसंद करते थे। कुछ चित्रों में जानवरों को मनुष्यों का पीछा करते हुए दिखाया गया है। कुछ और चित्रों में मनुष्यों द्वारा जानवरों का पीछा करके शिकार करते हुए दिखाया गया है। कुछ जानवरों के चित्रों में, विशेष रूप से शिकार के दृश्यों में, मनुष्यों को जानवरों से डरते हुए दिखाया गया है।

केवल एक जानवर का चित्रांकन, भीमबेटका

लेकिन बहुत से चित्रों में मनुष्यों को जानवरों के प्रति प्यार और सौहार्द का भाव प्रदर्शित करते हुए भी चित्रित किया गया है तथा कुछ ऐसे भी चित्र हैं जिनमें प्रमुख रूप से जानवर ही उकेरे गए हैं।

यद्यपि जानवरों को प्राकृतिक अवस्था में ही चित्रित किया गया है मगर मनुष्यों को साज-सज्जा के साथ सुरुचिपूर्ण रीति से प्रस्तुत किया गया है। स्त्रियों को निर्वस्त्र और सवस्त्र दोनों ही रूपों में चित्रित किया गया है। इन चित्रों में बूढ़े व जवान सभी को समान रूप से स्थान दिया गया है। बच्चों को दौड़ते-भागते, उछलते-कूदते और खेलते हुए दर्शाया गया है। सामूहिक नृत्य इन चित्रों का आम विषय रहा है। परंतु ऐसे भी चित्र हैं जिनमें लोगों

को पेड़ों से फल या शहद इकहा करते हुए और स्त्रियों को अनाज पीसते हुए और खाना बनाते हुए दिखाया गया है। कुछछ शैल-चित्रों में मनुष्यों, स्त्रियों और बच्चों को एक साथ दिखाया गया है, मानों वे एक ही परिवार के सदस्य हों। अनेक शैलाश्रयों में हम हाथ और मुद्री की छाप पाते हैं तो कुछ में अँगुली के सिरों के बने निशान।

भीमबेटका के कलाकार अनेक रंगों का प्रयोग करते थे जिनमें काला, पीला, लाल, बैंगनी, भूरा, हरा और सफेद रंगों की विभिन्न रंगतें शामिल थीं लेकिन सफेद और लाल उनके अधिक पसंदीदा रंग थे। रंग और रंजक द्रव्य विभिन्न चट्टानों तथा खनिजों को कूटपीस कर तैयार किए जाते थे। लाल रंग हिममच (जिसे गेरू भी कहा जाता है) से बनाया जाता था।

जंगली जानवर का शिकार, भीमबेटका

जानवर की आकृति व्यक्ति के आकार से इतनी बड़ी क्यों है?

हरा रंग कैल्सेडोनी नामक पत्थर की हरी किस्म से तैयार किया जाता था तथा सफेद रंग संभवत: चूना पत्थर से बनाया जाता था। रंग बनाने के लिए पहले खनिज की चट्टान के टुकड़ों को कूट-पीस कर पाउडर जैसा बना लिया जाता था। फिर उसमें कुछ पानी और गाढ़ा या चिपचिपा पदार्थ, जैसे कि जानवरों की चर्बी या पेड़ों से निकाला गया गोंद या राल मिला लिया जाता था। इस प्रकार रंग तैयार हो जाने के बाद उससे पेड़ की पतली रेशेदार टहनियों से बने ब्रुश का प्रयोग करते हुए चित्र आदि बनाए जाते थे। आश्चर्य की बात तो यह है कि हजारों साल पहले बनाए गए इन चित्रों के रंग हवा-पानी की मार को झेलने के बाद आज भी बरकरार हैं। यह समझा जाता है कि ये रंग अब तक इसलिए अक्षुण्ण रहे क्योंकि चट्टानों की सतह पर जो ऑक्साइड मौजूद थे, उनके साथ इन रंगों की रासायनिक प्रतिक्रिया ने इन्हें स्थायी बना दिया।

यहाँ कलाकारों ने अपने चित्र इन शैलाश्रयों की सतहों, दीवारों और भीतरी छतों पर बनाए। कुछ चित्र तो ऐसी गुफ़फओं या शैलाश्रयों से मिले हैं जहां लोग रहते थे। लेकिन कुछ चित्र ऐसी जगहों से भी मिले हैं जहां शायद लोग कभी रहे ही नहीं होंगे। संभवत: इन स्थानों का कोई धार्मिक महत्व रहा होगा। शैलाश्रयों में पाए गए कुछ अत्यंत सुंदर चित्र बहुत ऊँचे स्थान पर या शैलाश्रय की छत के पास बने हुए हैं। प्रश्न उठता है कि आदिकालीन मानवों ने चट्टानों में ऐसे असुविधाजनक स्थानों पर ये चित्र क्यों बनाए? शायद ये चित्र बहुत दूर से लोगों के ध्यान को आकर्षित करने के लिए ऊँचाई पर बनाए गए थे।

ये चित्र हालांकि बहुत पुराने जमाने के हैं पर इनमें चित्रात्मक गुणों एवं विशेषताओं की कोई कमी नहीं है। कार्य करने की प्रतिकूल परिस्थितियों, औजजारों तथा सामग्रियों आदि की कमी होते हुए भी इन चित्रों में तत्कालीन पर्यावरण के सामान्य दृश्य आकर्षक रूप में प्रस्तुत किए गए हैं जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय के लोग बहुत साहसी थे और अपने जीवन का आनंद ले रहे थे। पशुओं को तो वास्तविकता से भी अधिक तगड़ा और रौबदार दिखाया गया है। यह भी प्रतीत होता है कि आदिकालीन कलाकारों में कहानी कहने-सुनने की गहरी रुचि थी। इन चित्रों में बड़े ही नाटकीय रूप से मनुष्यों और जानवरों को स्वयं को जीवित रखने के लिए संघर्षरत दिखाया गया है। एक दृश्य में कुछ लोगों को

शिकार का दृश्य

मध्यपाषाण युग के चित्रों में शिकार के दृश्य बहुलता में पाए जाते हैं। यह ऐसा ही एक दृश्य है जिसमें लोगों का एक समूह भैंसे को मारते हुए दिखाया गया है। कुछ घायल व्यक्तियों को इधर-उधर पड़ा दर्शाया गया है। ये चित्र अंकन की कला में श्रेष्ठता का प्रदर्शन करते हैं।

नृत्य का दृश्य

इस दृश्य में एक-दूसरे का हाथ पकड़कर नृत्य करती हुई आकृतियाँ दिखाई गई हैं। वस्तुत: यह एक ऐसा विषय है जिसे बार-बार दोहराया गया है। नृत्य का यह दृश्य हमें उत्तराखंड के लखुडियार के पाषाण दृश्य की याद दिलाता है।

जंगली साँड़ का शिकार करते हुए दिखाया गया है और इस प्रक्रिया के दौरान कुछ लोग घायल होकर इधर-उधर पड़े हैं। एक अन्य दृश्य में एक जानवर को मौत की पीड़ा से तड़पते

आज भी अनेक आदिम जाति के लोग ऐसा व्यवहार करते हैं। वे जन्म, मृत्यु, वयस्कताप्राप्ति और विवाह आदि के समय संपन्न की जाने वाली धार्मिक एवं सामाजिक क्रियाओं को चट्वानों पर चित्रित या उत्कीर्णित करते हैं। वे शिकार हेतु जानवरों को आकर्षित करने के लिए मुखौटे पहनते हैं और उन्हें मार डालने के बाद खुशी से उनके चारों ओर नाचते-गाते हैं।

हुए और शिकारियों को खुशी से उसके चारों और नाचते हुए दिखाया गया है। ऐसे चित्रों से यह प्रकट होता है कि मनुष्यों में जानवरों पर अधिकार रखने का भाव पैदा हो गया था।

जहाँ अकेले जानवरों के चित्र बनाए गए हैं, उनमें आदिकालीन कलाकार की उत्कृष्ट चित्रण कला स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। ऐसे चित्रों में रंग-सामंजस्य और समानुपात दोनों का यथार्थ एवं संतुलित मिश्रण दिखाई देता है।

एक दिलचस्प बात यह है कि शैल-कला के अनेक स्थलों पर अक्सर नए चित्र पुराने चित्रों पर बनाए गए हैं। भीमबेटका में कुछ स्थानों पर चित्रों की 20 परतें तक हैं, जो एक-दूसरे पर बनाये गये हैं। यहाँ प्रश्न उठता है कि कलाकार एक ही स्थान पर बार-बार चित्र क्यों बनाते थे? इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि जब किसी कलाकार को अपनी रचना पसंद नहीं आती थी तो वह उस पर अपनी दूसरी रचना चित्रित कर लेता था। दूसरा कारण यह हो सकता है कि वे चित्र और स्थान पवित्र या विशिष्ट माने जाते थे और उन पर कलाकार बार-बार चित्र बनाते थे। यह भी संभव है कि भिन्न-भिन्न पीढ़ियों के लोगों ने भिन्न-भिन्न समय पर एक ही क्षेत्र में ये चित्र बनाए थे।

इन प्राक् ऐतिहासिक चित्रों से हमें तत्कालीन मनुष्यों, उनकी जीवन-शैली, उनका खान-पान, उनकी आदतों, उनकी दैनिक गतिविधियों और यहाँ तक कि उनके मन-मस्तिष्क तथा चिंतन को जानने-समझने में सहायता मिलती है। प्रागैतिहासिक काल के अवशेष, विशेष रूप से अनेक प्रकार के पत्थरों के हथियार, औजार, मिट्टी के खिलौने और हड्डिडयों के टुकड़े मानव सभ्यता के विकास के महान साक्ष्य हैं, तथापि उन सबसे अधिक महत्वपूर्ण तो ये शैल-चित्र हैं, जो आदिकालीन मानव हमारी अमूल्य धरोहर के रूप में हमारे लिए छोड़ गया है।

अभ्यास

1. आपके विचार से प्रागैतिहासिक काल के लोग अपने चित्रों के लिए विषयों का चयन/चुनाव किस प्रकार करते थे?

2. गुफ़ा चित्रों में मानव आकृतियों की अपेक्षा जानवरों की आकृतियाँ अधिक होने के क्या कारण रहे होंगे?

3. इस अध्याय में प्रागैतिहासिक काल के अनेक गुफ़ा चित्र दिए गए हैं। इनमें कौन सा चित्र आपको सबसे अधिक पसंद है और क्यों? उस चित्र का समालोचनात्मक विवेचन कीजिए।

4. भीमबेटका के अलावा और कौन-से प्रमुख स्थल हैं जहाँसे प्रागैतिहासिक चित्र पाए गए हैं? इन चित्रों के भिन्न-भिन्न पहलुओं पर इनकी तस्वीरों या रेखाचित्रों के साथ, एक रिपोर्ट तैयार करें।

5. आज के समय में चित्र, ग्राफ़िक आदि बनाने के लिए दीवारों का सतह के रूप में किस प्रकार उपयोग किया जाता है?



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