अध्याय 05 परवर्ती भिन्ति-चित्रिण पंपराएँ

अजंता के बाद भी, चित्रकला के बहुत कम पुरास्थल बचे हैं जो चित्रकला की परंपरा के पुर्निर्माण के लिए बहुमूल्य साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि प्रतिमाएँ अत्यधिक पलस्तर और रंग रोगन की हुईं थीं। गुफ़ाएँ खोदने की परंपरा भी अनेक ऐसे स्थानों पर चलती रही जहाँ मूर्तिकला और चित्रकला दोनों का एक साथ उपयोग होता रहा।

बादामी

एक ऐसा स्थल कर्नाटक राज्य में स्थित बादामी है। यह चालुक्य वंश के आरंभिकराजाओं की राजधानी थी, जिन्होंने 543 ई. से 598 ई. तक शासन किया था। वाकाटक शासन के पतन के बाद, चालुक्यों ने दक्कन/दक्षिण भारत में अपनी सत्ता स्थापित की। चालुक्य नेशे मंगलेश ने बादामी गुफ़ाओं की खुदाई का संरक्षण किया। वह चालुक्य नरेश पुलकेशिन प्रथम का छोटा पुत्र और कीर्तिवर्मन प्रथम का भाई था। गुफ़ा सं. 4 के शिलालेख में 578-579 ई. का उल्लेख है और यह भी बताया गया है कि गुफ़ा बहुत सुंदर बनी थी और विष्णु की प्रतिमा को समर्पित की गई थी। इसलिए यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह गुफ़ा इसी युग में खोदी गई थी और इसका संरक्षक राजा मंगलेश वैण्णव धर्म का अनुयायी था। अतः आमतौर पर इस गुफ़ा को विष्णु गुफ़ा के नाम से जाना जाता है। इसमें सामने के मंडप की मेहराबदार छत पर चित्रकारी का सिर्फ़ एक ही अंश बचा है।

इस गुफ़ा के चित्रों में राजमहल के दृश्य चित्रित किए गए हैं। इसमें एक ऐसा दृश्य चित्रित किया गया है जिसमें कीर्तिवर्मन जो कि पुलकेशिन प्रथम का पुत्र और मंगलेश का बड़ा भाई था, अपनी पत्नी और सामंतों के साथ एक नृत्य का आनंद लेता हुआ दर्शाया गया है। दृश्य फलक के कोने की ओर इंर्र और उसके परिकरों की आकृतियाँ हैं। शैली की दृष्टि से कहा जाए तो यह चित्र दक्षिण भारत में अंताता से लेकर बादामी तक की भित्तिचित्र परंपरा का विस्तार है।

सहायकों के साथ महरानी, बादामी

इसकी लयबद्ध रेखाएँ धारा प्रवाह रूप और सुसंहत/चुस्त संयोजन कला की कुशलता और परिपक्वता के सुंदर उदाहरण हैं जो ईसा की छठी शताब्दी के कलाकारों में पाई जाती थी। राजा और रानी के रमणीय एवं लावण्यमय मुखमंडल हमें अजंता की चित्रण शैली की याद दिलाते हैं। उनकी आँखों के गर्तिका (सॉकेट) बड़े, आँखें आधी मिची और होंठ आगे निकले हुए दिखलाए गए हैं। यह ध्यातव्य है कि चेहरे के अलग-अलग हिस्सों की बाहरी रेखाएँ सुस्पष्ट हैं और संपूर्ण चेहरे को सुंदरता प्रदान करती हैं। इस प्रकार कलाकारों ने साधारण रेखाओं के जरिए संपूर्ण आकृति को भव्य बना दिया है।

पल्लव, पांड्य और चोल राजाओं के शासन काल में भित्तिचित्र

उत्तर चित्रकला की परंपरा, पूर्ववर्ती शताब्दियों में पल्लव, पांड्य और चोल वंशीय राजाओं के शासन काल में दक्षिण भारत में आगे तमिलनाडु तक फैल चुकी थी, अलबत्ता उसमें क्षेत्रीय अंतर अवश्य पाए जाते थे। पल्लव राजा जो दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में राजसत्ता में आए थे, बड़े कला प्रेमी और कलाओं के संरक्षक थे। महेंद्रवर्मन प्रथम, जिसने सातवीं शताब्दी में राज किया था, उसने पनामलई, मंडगपट्टु और कांचीपुरम् (तमिलनाडु) में मंदिरों का निर्माण करवाया था। मंडगपट्टु के शिलालेख में कहा गया है कि महेंद्रवर्मन प्रथम अनेक उपाधियों से विभूषित था, जैसे- विचित्रचित्त (जिज्ञासु मन वाला), चित्रकारपुलि (कलाकार केशरी), चैत्यकारी (मंदिर निर्माता)। इन उपाधियों से पता चलता है कि महेंद्रवर्मन प्रथम कला संबंधी गतिविधियों में बहुत दिलचस्पी रखता था। इन मंदिरों/देवालयों में पाए

सित्तनवासल, पूर्व पांड्य काल के चित्र, नवीं शताब्दी ईसवी

जाने वाले चित्र भी महेंद्रवर्मन प्रथम की प्रेरणा से ही बनाए गए थे। हालांकि अब उन चित्रों के कुछ अंश ही बचे हैं। पनामलई देवी की आकृति लालित्यपूर्ण बनाई गई है। कांचीपुरम् मंदिर के चित्र तत्कालीन पल्लव नरेश राजसिंह के संरक्षण में बने थे। अब तो उन चित्रों के कुछ अंश ही उपलब्ध हैं जिनमें सोमस्कंद को चित्रित किया गया है। इन चित्रों के चेहरे गोल और बड़े हैं। रेखाओं में लयबद्धता पाई जाती है। पूर्ववर्ती काल के चित्रों की तुलना में इन चित्रों में अलंकरण की मात्रा अधिक है। धड़ का चित्रण पहले जैसा ही है। मगर अब उसे लंबा बना दिया गया है।

जब पांड्य सत्ता में आए तो उन्होंने भी कला को संरक्षण प्रदान किया। तिरुमलईपुरम् की गुफ़ाएँ और सित्तनवासल (पुदुकोट्टई, तमिलनाडु) स्थित जैन गुफ़ाएँ इसका जीवंत उदाहरण हैं। तिरुमलईईुपरम के चित्रों में कुछ टूटी हुई परतें देखी जा सकती हैं। सित्तनवासल में, चैत्य के बरामदे में भीतरी छत पर और ब्रैकेट पर चित्र दिखाई देते हैं।

बरामदे के खंभों पर नाचती हुई स्वर्गीय परियों की आकृतियाँ देखी जा सकती हैं। इन आकृतियों की बाहरी रेखाएँ दृढ़ता के साथ खींची गई हैं और हल्की पृष्ठभूमि पर सिंदूरी लाल रंग से चित्रित की गई हैं। शरीर का रंग पीला है, अंगों में लचक दिखाई देती है। नर्तकियों के चेहरों पर भावों की झलक है, अनेक गतिमान अंगों-प्रत्यंगों में लयबद्धता है। ये सभी विशेषताएँ कलाकार की सर्जनात्मक कल्पना-शक्ति और कुशलता की द्योतक हैं। इन आकृतियों की आँखें बड़ी-बड़ी और कहीं-कहीं चेहरे से बाहर निकली हुई भी दिखाई देती हैं। आँखों की यह विशेषता दक्कन और दक्षिण भारत के परवर्ती काल के अनेक चित्रों में भी देखने को मिलती है।

देवी, सातवीं शताब्दी ईसवी, पनामलई

देवालय बनाने और उन्हें उत्कीर्णित आकृतियों तथा चित्रों से सजाने-सँवारने की परंपरा चोल नरेशों के शासन काल में भी जारी रही, जिन्होंने नौवीं से तेरहवीं शताब्दी तक इस प्रदेश पर शासन किया था। लेकिन ग्यारहवीं शताब्दी में, जब चोल राजा अपनी शक्ति के चरम शिखर पर पहुँचे तो चोल कला और स्थापत्य कला (वास्तु कला) के सर्वोत्कृष्ट नमूने प्रकट होने लगे। तामिलनाडु में तंजावुर, गंगैकोंडचोलपुरम् और दारासुरम् के मंदिर क्रमश: राजराज चोल, उसके पुत्र राजेन्द्र चोल और राजराज चोल द्वितीय के शासन काल में बने।

वैसे तो नर्तनमलई में चोल काल के चित्र देखने को मिलते हैं पर सबसे अधिक महत्वपूर्ण चित्र बृहदेश्वर मंदिर, तंजावुर में पाए जाते हैं। ये चित्र देवालय के संकीर्ण परिक्रमा पथ की दीवारों पर चित्रित किए गए हैं। इन्हें खोजने पर पाया गया कि वहाँ चित्रकारी की दो परतें थीं। ऊपरी परत सोलहवीं शताब्दी में नायक शासकों के काल में चित्रित की गई थी। जब इन चित्रों की सतह को साफ़ किया गया तो चोल कालीन महान परंपरा के नमूने सामने आ गए। इन चित्रों में भगवान शिव के अनेक आख्यानों और रूपों, जैसे—कैलाशवासी शिव, त्रिपुरांतक शिव, नटराज शिव को और साथ ही संरक्षक राजराज चोल और परामर्शदाता कुरुवर तथा नृत्यांगनाओं आदि के चित्रों को भी दर्शाया गया है।

विजयनगर के भित्तिचित्र

बृहदेश्वर मंदिर के चित्रों में कलाकारों की शैलीगत परिपक्वता दृष्टिगोचर होती है जिसका विकास कई वर्षों के अभ्यास के बाद हुआ था। इनमें लहरियेदार सुंदर रेखाओं का प्रवाह, आकृतियों में हाव-भाव और अंगों-प्रत्यंगों की लचक देखते ही बनती है। उनमें एक ओर चोल कालीन कलाकारों की परिपक्वता एवं पूर्णता प्रदर्शित होती है तो दूसरी ओर संक्रमण के दौर की शुरूआत होने का पता चलता है। तीसरी शताब्दी में चोल वंश के पतन के बाद विजयनगर के राजवंश (चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी) ने अपना आधिपत्य जमा लिया और हम्पी से त्रिची तक के समस्त क्षेत्र को अपने नियंत्रण में ले लिया और हम्पी को अपने

दक्षिणामूर्ति, विजयनगर, लेपाक्षी

राज्य की राजधानी बनाया। अनेक मंदिरों में उस काल के अनेक चित्र आज भी मौजूद हैं। त्रिची के पास (तिरूपराकुनरम्, तमिलनाडु) में पाए गए चित्र जो चौदहवीं शताब्दी में बनाए गए थे, विजयनगर शैली के आरंभिक चरण के नमूने हैं। हम्पी में, विरूपाक्ष मंदिर में मंडप की भीतरी छत पर अनेक चित्र बने हुए हैं जो उस वंश के इतिहास की घटनाओं तथा रामायण और महाभारत के प्रसंगों को दर्शाते हैं। अनेक महत्वपूर्ण चित्र फलकों में से एक चित्र में बुक्काराय के आध्यात्मिक गुरु विद्यारण्य को एक पालकी में बैठाकर एक शोभा यात्रा में ले जाया जा रहा है। साथ ही विष्णु के अवतारों को भी चित्रित किया गया है। चित्रों में आकृतियों के पार्श्व चित्र और चेहरे दिखाए गए हैं। आकृतियों की आँखें बड़ी-बड़ी और कमर पतली दिखाई गई है।

आधुनिक आंध्र प्रदेश में, हिंदूपूर के पास लेपाक्षी में वहाँ के शिव मंदिर की दीवारों पर विजयनगरीय चित्रकला के शानदार नमूने देखने को मिलते हैं।

परंपरा का पालन करते हुए विजयनगर के चित्रकारों ने एक चित्रात्मक भाषा का विकास किया जिसमें चेहरों को पार्श्वचित्र के रूप में और आकृतियों तथा वस्तुओं को दो आयामों में दिखाया गया है। रेखाएँ निश्चल लेकिन सरल दिखाई गई हैं और संयोजन सरल रेखीय उपखंडों में प्रकट होता है। पूर्ववर्ती शताब्दियों की इन शैलीगत परिपाटियों को दक्षिण भारत में विभिन्न केंद्रों के कलाकारों द्वारा अपना लिया गया था जैसा कि नायक काल के चित्रों में देखने को मिलता है।

सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के नायककालीन चित्र तिरूपराकुनरम्, श्रीरंगम्, तिरूवरूर में देखे जा सकते हैं। तिरूपराकुनरम् में दो अलग-अलग कालों यानी चौदहवीं शताब्दी और सत्रहवीं शताब्दी के चित्र पाए जाते हैं। आरंभिक चित्रों में वर्द्धमान महावीर के जीवन के संदर्भ का चित्रण किया गया है।

नायक कालीन चित्रों में महाभारत और रामायण के प्रसंग और कृष्णलीला के दृश्य भी चित्रित किए गए हैं। तिरूवरूर में एक चित्रफलक में मुचुकुंद की कथा चित्रित की गई है।

पार्वती एवं उनकी सहायिकाएँ, वीरभद्र मंदिर, लेपाक्षी

चिदंबरम्, तमिलनाडु में अनेक चित्र फलकों में शिव और विष्णु से संबंधित कथाएँ चित्रित हैं। शिव को भिक्षाटन मूर्ति और विष्णु को मोहिनी रूप आदि में चित्रित किया गया है। तमिलनाडु के अर्काट जिले में चेंगम स्थल पर स्थित श्रीकृष्ण मंदिर में 60 ऐसे चित्रफलक हैं जिनमें कथाओं का चित्रण किया गया है। ये चित्र नायक चित्रकला के परवर्ती चरण के नमूने हैं।

उपर्युक्त उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि नायक शैली के चित्र बहुत कुछ विजयनगर शैली के ही विस्तृत रूप हैं। अलबत्ता उनमें कुछ क्षेत्रीय परिवर्तन कर दिए गए हैं। आकृतियों के पार्श्व चित्र अधिकतर समतल पृष्ठभूमि पर दर्शाए गए हैं। यहाँ की पुरुष आकृतियों की कमर पतली दिखाई गई है जबकि विजयनगर शैली में उनके पेट भारी या बाहर निकले हुए दिखाए गए हैं। कलाकारों ने पूर्ववर्ती शताब्दियों की तरह परंपराओं का पालन करते हुए चित्रों में गति भरने का प्रयत्न किया है और चित्रों के अंतराल को भी गतिशील बनाने की कोशिश की है। तिरुवलंजुलि, तमिलनाडु में नटराज का चित्र इस बात का अच्छा उदाहरण है।

केरल के भित्तिचित्र

केरल के चित्रकारों ने (सोलहवीं से अठारहवीं शताब्दी के दौरान) स्वयं अपनी ही एक चित्रात्मक भाषा तथा तकनीक का विकास कर लिया था, अलबत्ता उन्होंने अपनी शैली में नायक और विजयनगर शैली के कुछ तत्वों को आवश्यक सोच-समझकर अपना लिया था। इन कलाकारों ने कथककलि, कलम ऐझुथु (केरल में अनुष्ठान इत्यादि के समय भूमि पर की जाने वाली चित्रकारी) जैसी समकालीन परंपराओं से प्रभावित होकर एक ऐसी भाषा विकसित कर ली, जिसमें कंपनशील और चमकदार रंगों का प्रयोग होता था और मानव आकृतियों को त्रिआयामी रूप में प्रस्तुत किया जा सकता था। उनमें से अधिकांश चित्र पूजागॄह की दीवारों और मंदिरों की मेहराबदार दीवारों पर और कुछ राजमहलों के

वेणुगोपाल, श्रीराम मंदिर, त्रिपरयार

भीतर भी देखे जा सकते हैं। विषय की दृष्टि से भी केरल के चित्र शेष परंपराओं से अलग दिखाई देते हैं। इनमें चित्रित अधिकांश आख्यान हिंदुओं की धार्मिक कथाओं तथा पौराणिक प्रसंगों पर आधारित हैं जो उस समय केरल में लोकत्रिय थे। ऐसा भी प्रतीत होता है कि कलाकारों ने अपने चित्रण के विषय के लिए रामायण और महाभारत के स्थानीय रूपांतर और मौखिक परंपराओं को आधार बनाया था।

केरल के भित्तिचित्र 60 से भी अधिक स्थलों पर पाए गए हैं जिनमें ये तीन महल भी शामिल हैं-कोचि का डच महल, कायमकुलम् का कृष्णापुरम् महल और पद्मनाभपुरम् महल। जिन स्थलों पर केरल के भित्ति चित्रण परंपरा की परिपक्व अवस्था दृष्टिगोचर होती है, वे हैं-पुंडरीकपुरम् का कृष्ण मंदिर, पनायनरकावु, तिरूकोडिथानम, त्रिपरयार का श्रीराम मंदिर और त्रिसूर का वडक्कुनाथन मंदिर।

गोपिकाओं के साथ बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण, कृष्ण मंदिर, पुण्डरीकपुरम्

आज भी देश के विभिन्न भागों में ग्रामीण अंचल के घरों और हवेलियों के बाहर की दीवारों पर भित्तिचित्र बने हुए देखे जा सकते हैं। इन्हें प्राय: विधि-विधान अथवा त्यौहारों पर महिलाओं द्वारा बनाया जाता है या दीवारों को साफ कर महज उनकी सजावट हेतु। भित्ति-चित्रों के कुछ परंपरागत उदाहरण हैं-राजस्थान और गुजरात के कुछ भागों में प्रचलित पिठोरो, उत्तर बिहार के मिथिला क्षेत्र में मिथिला भित्तिचित्र, महाराष्ट्र में वर्ली अथवा ओडिशा या बंगाल, मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ के किसी भी गांव में दीवारों की साधारण सजावट।

अभ्यास

1. बादामी के गुफ़ा भित्ति-चित्रों की क्या विशेषताएँ हैं?

2. विजयनगर के चित्रों पर एक निबंध लिखें।

3. केरल एवं तमिलनाडु की भित्ति-चित्र पर्प्पराओं का वर्णन करें।



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