अध्याय 06 प्राकृतिक संकट तथा आपदाएँ

आपने सुनामी के बारे में पढ़ा होगा या उसके प्रकोप की तस्वीरें टेलीविजन पर देखों होंगी। आपको कश्मीर में नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ आए भयावह भूकंप की जानकारी भी होगी। इन आपदाओं से होने वाले जान और माल के नुकसान ने हमें हिला कर रख दिया था। ये परिघटनाओं के रूप में क्या हैं और कैसे घटती हैं? हम इनसे अपने आपको कैसे बचा सकते हैं? ये कुछ सवाल हैं, जो हमारे दिमाग में आते हैं। इस अध्याय में हम इन्हीं सवालों का विश्लेषण करने की कोशिश करेंगे।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है, जो विभिन्न तत्त्वों में, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, पदार्थ हो या अपदार्थ, अनवरत चलती रहती है तथा हमारे प्राकृतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण को प्रभावित करती है। यह प्रक्रिया हर जगह व्याप्त है परंतु इसके परिमाण, सघनता और पैमाने में अंतर होता है। ये बदलाव धीमी गति से भी आ सकते हैं, जैसेस्थलाकृतियों और जीवों में। ये बदलाव तेज गति से भी आ सकते हैं, जैसे- ज्वालामुखी विस्फोट, सुनामी, भूकंप और तूफान इत्यादि। इसी प्रकार इसका प्रभाव छोटे क्षेत्र तक सीमित हो सकता है, जैसे- आँधी, करकापात और टॉरनेडो और इतना व्यापक हो सकता है, जैसेभूमंडलीय उष्णीकरण और ओजोन परत का ह्रास।

इसके अतिरिक्त परिवर्तन का विभिन्न लोगों के लिए भिन्न-भिन्न अर्थ होता है। यह इनको समझने की कोशिश करने वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। प्रकृति के दृष्ट्टिकोण से परिवर्तन मूल्य-तटस्थ होता है, (न अच्छा होता है, और न बुरा)। परंतु मानव दृष्टिकोण से परिवर्तन मूल्य बोझिल होता है। कुछ परिवर्तन अपेक्षित और अच्छे होते हैं, जैसे- ऋतुओं में परिवर्तन, फलों का पकना आदि जबकि कुछ परिवर्तन अनपेक्षित और बुरे होते हैं, जैसे- भूकंप, बाढ़ और युद्ध।

आप अपने पर्यावरण का प्रेक्षण करें और उन परिवर्तनों की सूची तैयार करें जो दीर्घकालीन हैं और उनकी भी जो अल्पकालीन हैं। क्या आप जानते हैं कि क्यों कुछ बदलाव अच्छे समझे जाते हैं और दूसरे बुरे? उन बदलावों की सूची बनाएँ, जो आप हर रोज अनुभव करते हैं? कारण बताएँ कि क्यों इनमें से कुछ अच्छे और दूसरे बुरे माने जाते हैं।

इस अध्याय में हम कुछ ऐसे परिवर्तनों को समझने की कोशिश करेंगे जो बुरे माने जाते हैं और जो बहुत लंबे समय से मानव को भयभीत किए हुए हैं।

सामान्यतः आपदा और विशेष रूप से प्राकृतिक आपदाओं से मानव हमेशा भयभीत रहा है।

आपदा क्या है?

आपदा प्राय: एक अनपेक्षित घटना होती है, जो ऐसी ताकतों द्वारा घटित होती है, जो मानव के नियंत्रण में नहीं हैं। यह थोड़े समय में और बिना चेतावनी के घटित होती है जिसकी वजह से मानव जीवन के क्रियाकलाप अवरुद्ध होते हैं तथा बड़े पैमाने पर जानमाल का नुकसान होता है। अतः इससे निपटने के लिए हमें सामान्यतः दी जाने वाली वैधानिक आपातकालीन सेवाओं की अपेक्षा अधिक प्रयत्न करने पड़ते हैं।

लंबे समय तक भौगोलिक साहित्य में आपदाओं को प्राकृतिक बलों का परिणाम माना जाता रहा और मानव को इसका अबोध एवं असहाय शिकार। परंतु प्राकृतिक बल ही आपदाओं के एकमात्र कारक नहीं हैं। आपदाओं की उत्पत्ति का संबंध मानव क्रियाकलापों से भी है। कुछ मानवीय गतिविधियाँ तो सीधे रूप से इन आपदाओं के लिए उत्तरदायी हैं। भोपाल गैस त्रासदी, चेरनोबिल नाभिकीय आपदा, युद्ध, सी एफ सी (क्लोरोफलोरो कार्बन) गैसें वायुमंडल में छोड़ना तथा ग्रीन हाउस गैसें, ध्वनि, वायु, जल तथा मिट्टी संबंधी पर्यावरण प्रदूषण आदि आपदाएँ इसके उदाहरण हैं। कुछ मानवीय गतिविधियाँ परोक्ष रूप से भी आपदाओं को बढ़ावा देती हैं। वनों को काटने की वजह से भू-स्खलन और बाढ़, भंगुर जमीन पर निर्माण कार्य और अवैज्ञानिक भूमि उपयोग कुछ उदाहरण हैं जिनकी वजह से आपदा परोक्ष रूप में प्रभावित होती है। क्या आप अपने पड़ोस या विद्यालय के आस-पास चल रही गतिविधियों की पहचान कर सकते हैं जिनकी वजह से भविष्य में आपदाएँ आ सकती हैं? क्या आप इनसे बचाव के लिए सुझाव दे सकते हैं? यह सर्वमान्य है कि पिछले कुछ सालों से मानवकृत आपदाओं की संख्या और परिमाण, दोनों में ही वृद्धि हुई है और कई स्तर पर ऐसी घटनाओं से बचने के भरसक प्रयत्न किए जा रहे हैं। यद्यपि इस संदर्भ में अब तक सफलता नाम मात्र ही हाथ लगी है, परंतु इन मानवकृत आपदाओं में से कुछ का निवारण संभव है। इसके विपरीत प्राकृतिक आपदाओं पर रोक लगाने की संभावना बहुत कम है इसलिए सबसे अच्छा तरीका है इनके असर को कम करना और इनका प्रबंध करना। इस दिशा में विभिन्न स्तरों पर कई प्रकार के ठोस कदम उठाए गए हैं जिनमें भारतीय राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की स्थापना, 1993 में रियो डि जनेरो, ब्राजील में भू-शिखर सम्मेलन (Earth Summit) और मई 1994 में यॉकोहामा, जापान में आपदा प्रबंध पर विश्व संगोष्ठी आदि, विभिन्न स्तरों पर इस दिशा में उठाए जाने वाले ठोस कदम हैं।

प्राय: यह देखा गया है कि विद्वान आपदा और प्राकृतिक संकट शब्दों का इस्तेमाल एक-दूसरे की जगह कर लेते हैं। ये दोनों एक-दूसरे से संबंधित हैं परंतु फिर भी इनमें अंतर है। इसलिए इन दोनों में भेद करना आवश्यक है। प्राकृतिक संकट, प्राकृतिक पर्यावरण में हालात के वे तत्त्व हैं जिनसे धन-जन या दोनों को नुकसान पहुँचने की संभाव्यता होती है। ये बहुत तीव्र हो सकते हैं या पर्यावरण विशेष के स्थायी पक्ष भी हो सकते हैं, जैसेमहासागरीय धाराएँ, हिमालय में तीव्र ढाल तथा अस्थिर संरचनात्मक आकृतियाँ अथवा रेगिस्तानों तथा हिमाच्छादित क्षेत्रों में विषम जलवायु दशाएँ आदि।

प्राकृतिक संकट की तुलना में प्राकृतिक आपदाएँ अपेक्षाकृत तीव्रता से घटित होती हैं तथा बड़े पैमाने पर जन-धन की हानि तथा सामाजिक तंत्र एवं जीवन को छिन्न-भिन्न कर देती हैं तथा उन पर लोगों का बहुत कम या कुछ भी नियंत्रण नहीं होता।

सामान्यतः प्राकृतिक आपदाएँ संसार भर के लोगों के व्यापकीकृत (generalised) अनुभव होते हैं और दो आपदाएँ न तो समान होती हैं और न उनमें आपस में तुलना की जा सकती है। प्रत्येक आपदा, अपने नियंत्रणकारी सामाजिक-पर्यावरणीय घटकों, सामाजिक अनुक्रिया, जो यह उत्पन्न करते हैं तथा जिस ढंग से प्रत्येक सामाजिक वर्ग इससे निपटता है, अद्वितीय होती है। ऊपर व्यक्त विचार तीन महत्त्वपूर्ण चीजों को इंगित करता है। पहला, प्राकृतिक आपदा के परिमाण, गहनता एवं बारंबारता तथा इसके द्वारा किए गए नुकसान समयांतर पर बढ़ते जा रहे हैं। दूसरे, संसार के लोगों में इन आपदाओं द्वारा पैदा किए हुए भय के प्रति चिंता बढ़ रही है तथा इनसे जान-माल की क्षति को कम करने का रास्ता ढूँढने का प्रयत्न कर रहे हैं और अंततः प्राकृतिक आपदा के प्रारूप में समयांतर पर महत्त्वपूर्ण परिवर्तन आया है।

प्राकृतिक आपदाओं एवं संकटों के अवगम में परिवर्तन भी आया है। पहले प्राकृतिक आपदाएँ एवं संकट, दो परस्पर अंतर्संबंधी परिघटनाएँ समझी जाती थी अर्थात् जिन क्षेत्रों में प्राकृतिक संकट आते थे, वे आपदाओं के द्वारा भी सुभेद्य थे। अतः उस समय मानव पारिस्थितिक तंत्र के साथ ज़्यादा छेड़छाड़ नहीं करता था। इसलिए इन आपदाओं से नुकसान कम होता था। तकनीकी विकास ने मानव को, पर्यावरण को प्रभावित करने की बहुत क्षमता प्रदान कर दी है। परिणामतः

मनुष्य ने आपदा के खतरे वाले क्षेत्रों में गहन क्रियाकलाप शुरू कर दिया है और इस प्रकार आपदाओं की सुभेद्यता को बढ़ा दिया है। अधिकांश नदियों के बाढ़-मैदानों में भू-उपयोग तथा भूमि की कीमतों के कारण तथा तटों पर बड़े नगरों एवं बंदरगाहों, जैसे- मुंबई तथा चेन्नई आदि के विकास ने इन क्षेत्रों को चक्रवातों, प्रभंजनों तथा सुनामी आदि के लिए सुभेद्य बना दिया है।

प्राकृतिक आपदाओं ने विस्तृत रूप से जन एवं धन की हानि की है। इस स्थिति से निपटने के लिए भरसक प्रयत्न किए जा रहे हैं। यह भी महसूस किया जा रहा है प्राकृतिक आपदा द्वारा पहुँचाई गई क्षति के परिणाम भू-मंडलीय प्रतिघात है और अकेले किसी राष्ट्र में इतनी क्षमता नहीं है कि वह इन्हें सहन कर पाए। अतः 1989 में संयुक्त राष्ट्र सामान्य असेंबली में इस मुद्दे को उठाया गया था और मई 1994 में जापान के यॉकोहामा नगर में आपदा प्रबंधन की विश्व कांफ्रेंस में इसे औपचारिकता प्रदान कर दी गई और यही बाद में ‘यॉकोहामा रणनीति तथा अधिक सुरक्षित संसार के लिए कार्य योजना’ कहा गया।

प्राकृतिक आपदाओं का वर्गीकरण

विश्व भर में लोग विभिन्न प्रकार की आपदाओं को अनुभव करते हैं और उनका सामना करते हुए इन्हें सहन करते हैं। अब लोग इसके बारे में जागरूक हैं और इससे होने वाले नुकसान को कम करने की चेष्टा में कार्यरत हैं। इनके प्रभाव को कम करने के लिए विभिन्न स्तरों पर विभिन्न कदम उठाए जा रहे हैं। प्राकृतिक आपदाओं से, दक्षता से निपटने के लिए उनकी पहचान एवं वर्गीकरण को एक प्रभावशाली तथा वैज्ञानिक कदम समझा जा रहा है। प्राकृतिक आपदा को मोटे तौर पर चार प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है।

भारत उन देशों में है, सभी प्राकृतिक आपदाएँ घटित हो चुकी हैं। इन आपदाओं की वजह से भारत में हर वर्ष हजारों लोगों की जान जाती है और करोड़ों रुपये का माली नुकसान होता है। आगे भारत में सबसे नुकसानदायक प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन किया गया है।

प्राकृतिक आपदा न्यूनीकरण का अंतर्राष्ट्रीय दशक
यॉकोहामा रणनीति तथा सुरक्षित संसार के लिए कार्य योजना

संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देश तथा अन्य देशों की एक बैठक ‘प्राकृतिक आपदा न्यूनीकरण’ विश्व कांफ्रेंस 23 से 27 मई 1994 को यॉकोहामा नगर में हुई। इस बैठक में यह स्वीकार किया गया कि पिछले कुछ वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं के कारण मानव जीवन तथा आर्थिक क्षति अधिक हुई है तथा समाज, सामान्यतः प्राकृतिक आपदाओं के लिए सुभेद्य हो गया है। यह भी स्वीकार किया गया कि ये आपदाएँ विशेषत: विकासशील देशों के गरीबों एवं साधनहीन समुदायों को अधिक प्रभावित करती हैं क्योंकि ये देश इनका मुकाबला करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए इस बैठक में एक दशक तथा उसके बाद भी इन आपदाओं से होने वाली क्षति को कम करने की रणनीति यॉकोहामा रणनीति के नाम से अपनाई गई।

विश्व बैठक में प्राकृतिक आपदा न्यूनीकरण के लिए पारित प्रस्ताव निम्नलिखित हैं:-

(i) यह दर्ज होगा कि हर देश की प्रमुख ज़िम्मेदारी है कि वे प्राकृतिक आपदा से अपने नागरिकों की रक्षा करे।

(ii) यह विकासशील देशों, विशेष रूप से, सबसे कम विकसित एवं चारों ओर से भू-बृद्ध देशों तथा छोटे द्वीपीय विकासशील देशों पर आग्रतापूर्वक ध्यान देगा।

(iii) जहाँ भी ठीक समझा जायेगा, वहाँ आपदा से बचाव, निवारण एवं तैयारी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कानून बना कर क्षमता एवं सामर्थ्य का विकास करेगा तथा इस कार्य में स्वैच्छिक संगठनों तथा स्थानीय समुदायों को संगठित किया जाना चाहिए।

(iv) यह उप-क्षेत्रीय, क्षेत्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग द्वारा उन कार्यों को बढ़ावा तथा मजबूती देगा जिनसे प्राकृतिक तथा दूसरी आपदाओं को रोका अथवा कम किया जा सके या उसका निवारण किया जा सके। इस प्रक्रिया में निम्नलिखित पर विशेष बल दिया जाएगा-

(क) मानव तथा संस्थागत क्षमता निर्माण तथा सशक्तिकरण;

(ख) तकनीकों में भागीदारी: सूचना का एकत्रण, प्रकीर्णन (dissemination) तथा उपयोग और;

(ग) संसाधनों का संग्रह करना।

1999-2000 को आपदा न्यूनीकरण का अंतर्राष्ट्रीय दशक भी घोषित किया गया।

भारत में प्राकृतिक आपदाएँ

जैसाकि पहले के अध्यायों में वर्णन किया गया है, भारत एक प्राकृतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक विविधताओं वाला देश है। बृहत भौगोलिक आकार, पर्यावरणीय विविधताओं और सांस्कृतिक बहुलता के कारण भारत को ‘भारतीय उपमहाद्वीप’ और ‘अनेकता में एकता वाली धरती’ के नाम से जाना जाता है। बृहत आकार, प्राकृतिक परिस्थितियों में विभिन्नता, लंबे समय तक उपनिवेशन, अभी भी जारी सामाजिक भेदमूलन तथा बहुत अधिक जनसंख्या के कारण भारत की प्राकृतिक आपदाओं द्वारा सुभेद्यता (vulnerability) को बढ़ा दिया है। इन प्रेक्षणों को भारत की कुछ मुख्य प्राकृतिक आपदाओं के वर्णन द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।

भूकंप

भूकंप सबसे ज्यादा अपूर्वसूचनीय और विध्वंसक प्राकृतिक आपदा है। आपने पहले ही अपनी पुस्तक ‘प्राकृतिक भूगोल के सिद्धांत, रा.शै.अ.प्र.प., 2006 ’ में भूकंपों के कारण के बारे में पढ़ा है। भूकंपों की उत्पत्ति विवर्तनिकी से संबंधित है। ये विध्वंसक है और विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं। भूकंप पृथ्वी की ऊपरी सतह में विवर्तनिक गतिविधियों से निकली ऊर्जा से पैदा होते हैं। इसकी तुलना में ज्वालामुखी विस्फोट, चट्टान गिरने, भू-स्खलन, जमीन के अवतलन (धँसने) (विशेषकर खदानों वाले क्षेत्र में), बाँध व जलाशयों के बैठने इत्यादि से आने वाला भूकंप कम क्षेत्र को प्रभावित करता है और नुकसान भी कम पहुँचाता है।

जैसाकि इस पुस्तक के अध्याय- 2 में पहले भी वर्णन किया गया है, इंडियन प्लेट प्रति वर्ष उत्तर व उत्तर-पूर्व दिशा में एक सेंटीमीटर खिसक रही है। परंतु उत्तर में स्थित यूरेशियन प्लेट इसके लिए अवरोध पैदा करती है। परिणामस्वरूप इन प्लेटों के किनारे लॉक हो जाते हैं और कई स्थानों पर लगातार ऊर्जा संग्रह होता रहता है। अधिक मात्रा में ऊर्जा संग्रह से तनाव बढ़ता रहता है और दोनों प्लेटों के बीच लॉक टूट जाता है और एकाएक ऊर्जा मोचन से हिमालय के चाप के साथ भूकंप आ जाता है। इससे प्रभावित मुख्य केंद्र शासित प्रदेशों और राज्यों में जम्मू और कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, सिक्किम, पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग उपमंडल तथा उत्तर-पूर्व के सात राज्य शामिल हैं।

चित्र 6.1 : भूकंप द्वारा क्षतिग्रस्त एक भवन

इन क्षेत्रों के अतिरिक्त, मध्य-पश्चिमी क्षेत्र, विशेषकर गुजरात (1819, 1956 और 2001) और महाराष्ट्र (1967 और 1993) में कुछ प्रचंड भूकंप आए हैं। लंबे समय तक भूवैज्ञानिक प्रायद्वीपीय पठार, जो कि सबसे पुराना, स्थिर और प्रौढ़ भूभाग है, पर आए इन भूकंपों की व्याख्या करने में कठिनाई महसूस करते हैं। कुछ समय पहले भूवैज्ञानिकों ने एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया है जिसके अनुसार लातूर और ओसमानाबाद (महाराष्ट्र) के नजदीक भीमा (कृष्णा) नदी के साथ-साथ एक भ्रंश रेखा विकसित हुई है। इसके साथ ऊर्जा संग्रह होता है तथा इसकी विमुक्ति भूकंप का कारण बनती है। इस सिद्धांत के अनुसार संभवतः इंडियन प्लेट टूट रही है।

राष्ट्रीय भूभौतिकी प्रयोगशाला, भारतीय भूगर्भीय सर्वेक्षण, मौसम विज्ञान विभाग, भारत सरकार और इनके साथ कुछ समय पूर्व बने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान ने भारत में आए 1200 भूकंपों का गहन विश्लेषण किया और भारत को निम्नलिखित पाँच भूकंपीय क्षेत्रों (zones) में बाँटा है।

(i) अति अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र
(ii) अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र
(iii) मध्यम क्षति जोखिम क्षेत्र
(iv) निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र
(v) अति निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र

इनमें से पहले दो क्षेत्रों में भारत के सबसे प्रचंड भूकंप अनुभव किए गए हैं। जैसाकि मानचित्र 6.2 में

चित्र 6.2 : भारत : भूकंप संभावित क्षेत्र

दिखाया गया है, भूकंप सुभेद्य क्षेत्रों में उत्तरी-पूर्वी प्रांत, दरभंगा से उत्तर में स्थित क्षेत्र तथा अरेरिया (बिहार में भारत-नेपाल सीमा के साथ), उत्तराखण्ड, पश्चिमी हिमाचल प्रदेश (धर्मशाला के चारों ओर), कश्मीर घाटी और कच्छ (गुजरात) शामिल हैं। ये अति अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र का हिस्सा है। जम्मू और कश्मीर, लद्दाख और हिमाचल प्रदेश के बचे हुए भाग, उत्तरी पंजाब, हरियाणा का पूर्वी भाग, दिल्ली, पश्चिम उत्तर प्रदेश और उत्तर बिहार अधिक क्षति जोखिम क्षेत्र में आते हैं। देश के बचे हुए भाग मध्य तथा निम्न क्षति जोखिम क्षेत्र में हैं। भूकंप से सुरक्षित समझे जाने वाले क्षेत्रों का एक बड़ा हिस्सा दक्कन पठार के स्थिर भूभाग में पड़ता है।

भूकंप के सामाजिक-पर्यावरणीय परिणाम

भूकंप के साथ भय जुड़ा है क्योंकि इससे बड़े पैमाने पर और बहुत तीव्रता के साथ भूतल पर विनाश होता है। अधिक जनसंख्या घनत्व वाले क्षेत्रों में तो यह आपदा कहर बरसाती है। ये न सिर्फ बस्तियों, बुनियादी ढाँचे, परिवहन व संचार व्यवस्था, उद्योग और अन्य विकासशील क्रियाओं को ध्वस्त करता है, अपितु लोगों के पीढ़ियों से संचित पदार्थ और सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत भी नष्ट कर देता है। यह लोगों को बेघर कर देता है और इससे विकासशील देशों की कमजोर अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट पहुँचती है।

भूकंप के प्रभाव

भूकंप जिन क्षेत्रों में आते हैं उनमें सम्मिलित विनाशकारी प्रभाव पाए जाते हैं। इसके कुछ मुख्य प्रभाव तालिका 6.1 में दिए गए हैं-

तालिका 6.1 : भूकंप के प्रभाव

भूतल पर मानवकृत ढाँचों पर जल पर
दरारें दरारें पड़ना लहरें
बस्तियाँ खिसकना जल-गतिशीलता
दबाव
भू-स्खलन उलटना सुनामी
द्रवीकरण आकुंचन
भू-दबाव निपात
संभावित भृंखला
प्रतिक्रिया
संभावित शृंखला
प्रतिक्रिया
संभावित शृंखला
प्रतिक्रिया

इसके अतिरिक्त भूकंप के कुछ गंभीर और दूरगामी पर्यावरणीय परिणाम हो सकते हैं। पृथ्वी की पर्पटी पर धरातलीय भूकंपी तरंगें दरारें डाल देती हैं जिसमें से पानी और दूसरा ज्वलनशील पदार्थ बाहर निकल आता है और आस-पड़ोस को डुबो देता है। भूकंप के कारण भू-स्खलन भी होता है, जो नदी वाहिकाओं को अवरुद्ध कर जलाशयों में बदल देता है। कई बार नदियाँ अपना रास्ता बदल लेती हैं जिससे प्रभावित क्षेत्र में बाढ़ और दूसरी आपदाएँ आ जाती हैं।

भूकंप न्यूनीकरण

दूसरी आपदाओं की तुलना में भूकंप अधिक विध्वंसकारी हैं। चूँकि यह परिवहन और संचार व्यवस्था भी नष्ट कर देते हैं इसलिए लोगों तक राहत पहुँचाना कठिन होता है। भूकंप को रोका नहीं जा सकता। अतः इसके लिए विकल्प यह है कि इस आपदा से निपटने की तैयारी रखी जाए और इससे होने वाले नुकसान को कम किया जाए। इसके निम्नलिखित तरीके हैं :

(i) भूकंप नियंत्रण केंद्रों की स्थापना, जिससे भूकंप संभावित क्षेत्रों में लोगों को सूचना पहुँचाई जा सके। जी.पी.एस (Geographical Positioning System) की मदद से प्लेट हलचल का पता लगाया जा सकता है।

(ii) देश में भूकंप संभावित क्षेत्रों का सुभेद्यता मानचित्र तैयार करना और संभावित जोखिम की सूचना लोगों तक पहुँचाना तथा उन्हें इसके प्रभाव को कम करने के बारे में शिक्षित करना।

(iii) भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में घरों के प्रकार और भवन डिज़ाइन में सुधार लाना। ऐसे क्षेत्रों में ऊँची इमारतें, बड़े औद्योगिक संस्थान और शहरीकरण को बढ़ावा न देना।

(iv) अंततः भूकंप प्रभावित क्षेत्रों में भूकंप प्रतिरोधी (resistant) इमारतें बनाना और सुभेद्य क्षेत्रों में हल्के निर्माण सामग्री का इस्तेमाल करना।

सुनामी

भूकंप और ज्वालामुखी से महासागरीय धरातल में अचानक हलचल पैदा होती है और महासागरीय जल का अचानक विस्थापन होता है। परिणामस्वरूप ऊर्ध्वाधर ऊँची तरंगें पैदा होती हैं जिन्हें सुनामी (बंदरगाह लहरें) या भूकंपीय समुद्री लहरें कहा जाता है। सामान्यतः शुरू में सिर्फ एक ऊर्ध्वाधर तरंग ही पैदा होती है, परतु कालांतर में जल तरंगों की एक श्रृंखला बन जाती है क्योंकि प्रारंभिक तरंग की ऊँची शिखर और नीची गर्त के बीच जल अपना स्तर बनाए रखने की कोशिश करता है।

महासागर में जल तरंग की गति जल की गहराई पर निर्भर करती है। इसकी गति उथले समुद्र में ज़्यादा और गहरे समुद्र में कम होती है। परिणामस्वरूप महासागरों के अंदरुनी भाग इससे कम प्रभावित होते हैं। तटीय क्षेत्रों में ये तरंगे ज़्यादा प्रभावी होती हैं और व्यापक नुकसान पहुँचाती हैं। इसलिए समुद्र में जलपोत पर, सुनामी का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। समुद्र के आंतरिक गहरे भाग में तो सुनामी महसूस भी नहीं होती। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि गहरे समुद्र में सुनामी की लहरों की लंबाई अधिक होती है और ऊँचाई कम होती है। इसलिए, समुद्र के इस भाग में सुनामी जलपोत को एक या दो मीटर तक ही ऊपर उठा सकती है और वह भी कई मिनट में। इसके विपरीत, जब सुनामी उथले समुद्र में प्रवेश करती है, इसकी तरंग लंबाई कम होती चली जाती है, समय वही रहता है और तरंग की ऊँचाई बढ़ती जाती है। कई बार तो इसकी ऊँचाई 15 मीटर या इससे भी अधिक हो सकती है जिससे तटीय क्षेत्र में भीषण विध्वंस होता है। इसलिए इन्हें उथले जल की तरंगें भी कहते हैं। सुनामी आमतौर पर प्रशांत महासागरीय तट पर, जिसमें अलास्का, जापान, फिलिपाइन, दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे द्वीप, इंडोनेशिया और मलेशिया तथा हिंद महासागर में म्यांमार, श्रीलंका और भारत के तटीय भागों में आती है।

तर पर पहुँचने पर सुनामी तरंगें बहुत अधिक मात्रा में ऊर्जा निर्मुक्त करती हैं और समुद्र का जल तेजी से तटीय क्षेत्रों में घुस जाता है और बंदरगाह शहरों, कस्बों, अनेक प्रकार के ढाँचों, इमारतों और बस्तियों को तबाह करता है। चूँकि विश्वभर में तटीय क्षेत्रों में जनसंख्या सघन होती है और ये क्षेत्र बहुत-सी मानव गतिविधियों के केंद्र होते हैं, अतः यहाँ दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में सुनामी अधिक जान-माल का नुकसान पहुँचाती है। सुनामी से हुई बर्बादी का अनुमान आपकी पुस्तक ‘भूगोल में प्रायोगिक कार्य भाग-I, रा.शै.अ.प्र.प., 2006’ में दिए हुए बांदा (इंडोनेशिया) के चित्र से लगाया जा सकता है।

चित्र 6.3: सुनामी प्रभावित क्षेत्र

दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में सुनामी के प्रभाव को कम करना कठिन है क्योंकि इससे होने वाले नुकसान का पैमाना बहुत बृहत् है।

किसी अकेले देश या सरकार के लिए सुनामी जैसी आपदा से निपटना संभव नहीं है। अतः इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रयास आवश्यक हैं जैसाकि 26 दिसंबर, 2004 को आयी सुनामी के समय किया गया था। जिसके कारण 3 लाख से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा था। इस सुनामी आपदा के बाद भारत ने अंतराष्ट्रीय सुनामी चेतावनी तंत्र में शामिल होने का फैसला किया है।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात कम दबाव वाले उग्र मौसम तंत्र हैं और $30^{\circ}$ उत्तर तथा $30^{\circ}$ दक्षिण अक्षांशों के बीच पाए जाते हैं। ये आमतौर पर 500 से 1000 किलोमीटर क्षेत्र में फैला होता है और इसकी ऊर्ध्वाधर ऊँचाई 12 से 14 किलोमीटर हो सकती है। उष्ण कटिबंधीय चक्रवात या प्रभंजन एक ऊष्मा इंजन की तरह होते हैं, जिसे ऊर्जा प्राप्ति, समुद्र सतह से प्राप्त जलवाष्प की संघनन प्रक्रिया में छोड़ी गई गुप्त ऊष्मा से होती है।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवात की उत्पत्ति के बारे में वैज्ञानिकों में मतभेद हैं। इनकी उत्पत्ति के लिए निम्नलिखित प्रारंभिक परिस्थितियों का होना आवश्यक है।

(i) लगातार और पर्याप्त मात्रा में उष्ण व आर्द्र वायु की सतत् उपलब्धता जिससे बहुत बड़ी मात्रा में गुप्त ऊष्मा निर्मुक्त हो।

(ii) तीव्र कोरियोलिस बल जो केंद्र के निम्न वायु दाब को भरने न दे। (भूमध्य रेखा के आस पास 0 से 5 कोरियोलिस बल कम होता है और परिणामस्वरूप यहाँ ये चक्रवात उत्पन्न नहीं होते)।

(iii) क्षोभमंडल में अस्थिरता, जिससे स्थानीय स्तर पर निम्न वायु दाब क्षेत्र बन जाते हैं। इन्हीं के चारों ओर चक्रवात भी विकसित हो सकते हैं।

(iv) मजबूत ऊर्ध्वाधर वायु फान (wedge) की अनुपस्थिति, जो नम और गुप्त ऊष्मा युक्त वायु के ऊर्ध्वाधर बहाव को अवरुद्ध करे।

भारत में चक्रवातों का क्षेत्रीय और समयानुसार वितरण

भारत की आकृति प्रायद्वीपीय है और इसके पूर्व में बंगाल की खाड़ी तथा पश्चिम में अरब सागर है। अतः यहाँ आने वाले चक्रवात इन्हीं दो जलीय क्षेत्रों में पैदा होते हैं। मानसूनी मौसम के दौरान चक्रवात $10^{\circ}$ से $15^{\circ}$ उत्तर अक्षांशों के बीच पैदा होते हैं। बंगाल की खाड़ी में चक्रवात ज़्यादातर अक्तूबर और नवम्बर में बनते हैं। यहाँ ये चक्रवात $16^{\circ}$ से $21^{\circ}$ उत्तर तथा $92^{\circ}$ पूर्व देशांतर से पश्चिम में पैदा होते हैं, परंतु जुलाई में ये सुंदर वन डेल्टा के करीब $18^{\circ}$ उत्तर और $90^{\circ}$ पूर्व देशांतर से पश्चिम में उत्पन्न होते हैं।

उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों के परिणाम

यह पहले बताया जा चुका है कि उष्ण कटिबंधीय चक्रवातों की ऊर्जा का स्रोत उष्ण आर्द्र वायु से प्राप्त होने वाली गुप्त ऊष्मा है। अतः समुद्र से दूरी बढ़ने पर चक्रवात का बल कमजोर हो जाता है। भारत में, चक्रवात जैसे-जैसे बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से दूर जाता है उसका बल कमजोर हो जाता है। तटीय क्षेत्रों में अकसर उष्ण कटिबंधीय चक्रवात 180 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से टकराते हैं। इससे तूफानी क्षेत्र में समुद्र तल भी असाधारण रूप से ऊपर उठा होता है जिसे ‘तूफान महोर्मि’ (storm surge) कहा जाता है।

समुद्र तल में महोर्मि वायु, समुद्र और जमीन की अंतःक्रिया से उत्पन्न होता है। तूफान में अत्यधिक वायुदाब प्रवणता और अत्यधिक तेज सतही पवनें उफान को उठाने वाले बल हैं। इससे समुद्री जल तटीय क्षेत्रों में घुस जाता है, वायु की गति तेज होती है और भारी वर्षा होती है।

इससे तटीय क्षेत्र में बस्तियाँ, खेत पानी में डूब जाते हैं तथा फसलों और कई प्रकार के मानवकृत ढाँचों का विनाश होता है।

बाढ़

आपने बाढ़ के बारे में समाचार पत्रों में पढ़ा होगा और टेलीविजन पर इसके दृश्य देखे होंगे कि किस तरह कुछ क्षेत्र वर्षा ऋतु में बाढ़ ग्रस्त हो जाते हैं। नदी का जल उफान के समय जल वाहिकाओं को तोड़ता हुआ मानव बस्तियों और आस-पास की जमीन पर खड़ा हो जाता है और बाढ़ की स्थिति पैदा कर देता है। दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में बाढ़ आने के कारण जाने-पहचाने हैं। बाढ़ आमतौर पर अचानक नहीं आती और कुछ विशेष क्षेत्रों और ऋतु में ही आती है। बाढ़ तब आती है जब नदी जल-वाहिकाओं में इसकी क्षमता से अधिक जल बहाव होता है और जल, बाढ़ के रूप में मैदान के निचले हिस्सों में भर जाता है। कई बार तो झीलें और आंतरिक जल क्षेत्रों में भी क्षमता से अधिक जल भर जाता है। बाढ़ आने के और भी कई कारण हो सकते हैं, जैसे- तटीय क्षेत्रों में तूफानी महोर्मि, लंबे समय तक होने वाली तेज बारिश, हिम का पिघलना, जमीन की अंतःस्पंदन (infiltration) दर में कमी आना और अधिक मृदा अपरदन के कारण नदी जल में जलोढ़ की मात्रा में वृद्धि होना। हालाँकि बाढ़ विश्व में विस्तृत क्षेत्र में आती है तथा काफी तबाही लाती है, परंतु दक्षिण, दक्षिण-पूर्व और पूर्व एशिया के देशों, विशेषकर चीन, भारत और बांग्लादेश में इसकी बारंबारता और होने वाले नुकसान अधिक हैं।

दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में, बाढ़ की उत्पत्ति और इसके क्षेत्रीय फैलाव में मानव एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। मानवीय क्रियाकलापों, अँधाधुँध वन कटाव, अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ, प्राकृतिक अपवाह

चित्र 6.4 : भारत : वायु तथा चक्रवात आपदा क्षेत्र

चित्र 6.5 : बाढ़ के समय ब्रह्मपुत्र

तंत्रों का अवरुद्ध होना तथा नदी तल और बाढ़कृत मैदानों पर मानव बसाव की वजह से बाढ़ की तीव्रता, परिमाण और विध्वंसता बढ़ जाती है।

भारत के विभिन्न राज्यों में बार-बार आने वाली बाढ़ के कारण जान-माल का भारी नुकसान होता है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने देश में 4 करोड़ हैक्टेयर भूमि को बाढ़ प्रभावित क्षेत्र घोषित किया है। मानचित्र 6.6 भारत के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों को दर्शाता है। असम, पश्चिम बंगाल और बिहार राज्य सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में से हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत की ज़्यादातर नदियाँ, विशेषकर पंजाब और उत्तर प्रदेश में बाढ़ लाती रहती हैं। राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और पंजाब, आकस्मिक बाढ़ से पिछले कुछ दशकों में जलमग्न होते रहे हैं। इसका कारण मानसून वर्षा की तीव्रता तथा मानव कार्यकलापों द्वारा प्राकृतिक अपवाह तंत्र का अवरुद्ध होना है। कई बार तमिलनाडु में बाढ़ नवंबर से जनवरी माह के बीच वापिस लौटती मानसून द्वारा आती है।

बाढ़ परिणाम और नियंत्रण

असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश (मैदानी क्षेत्र) और ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात के तटीय क्षेत्र तथा पंजाब, राजस्थान, उत्तर गुजरात और हरियाणा में बार-बार बाढ़ आने और कृषि भूमि तथा मानव बस्तियों के डूबने से देश की आर्थिक व्यवस्था तथा समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बाढ़ न सिर्फ फसलों को बर्बाद करती है बल्कि आधारभूत ढाँचा, जैसे- सड़वेंं, रेल पटरी, पुल और मानव बस्तियों को भी नुकसान पहुँचाती है। बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में कई तरह की बीमारियाँ, जैसे- हैजा, आंत्रशोथ, हेपेटाईटिस और दूसरी दूषित जल जनित बीमारियाँ फैल जाती हैं। दूसरी ओर बाढ़ से कुछ लाभ भी हैं। हर वर्ष बाढ़ खेतों में उपजाऊ मिट्टी लाकर जमा करती है जो फसलों के लिए बहुत लाभदायक है। बह्मपुत्र नदी में स्थित मजौली (असम) जो सबसे बड़ा नदीय द्वीप है, हर वर्ष बाढ़ ग्रस्त होता है। परंतु यहाँ चावल की फसल बहुत अच्छी होती है। लेकिन ये लाभ भीषण नुकसान के सामने गौण मात्र है।

भारत सरकार और राज्य सरकारें हर वर्ष बाढ़ से पैदा होने वाली गंभीर स्थिति से अवगत हैं। ये सरकारें बाढ़ की स्थिति से कैसे निपटती हैं? इस दिशा में कुछ महत्त्वपूर्ण कदम इस प्रकार होने चाहिए:- बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में तटबंध बनाना, नदियों पर बाँध बनाना, वनीकरण और आमतौर पर बाढ़ लाने वाली नदियों के ऊपरी जल ग्रहण क्षेत्र में निर्माण कार्य पर प्रतिबंध लगाना। नदी वाहिकाओं पर बसे लोगों को कहीं और बसाना और बाढ़ के मैदानों में जनसंख्या के जमाव पर नियंत्रण रखना, इस दिशा में कुछ और कदम हो सकते हैं। आकस्मिक बाढ़ प्रभावित देश के पश्चिमी और उत्तरी भागों में यह ज़्यादा उपयुक्त कदम होंगे। तटीय क्षेत्रों में चक्रवात सूचना केंद्र तूफान के उफान से होने वाले प्रभाव को कम कर सकते हैं।

सूखा

सूखा ऐसी स्थिति को कहा जाता है जब लंबे समय तक कम वर्षा, अत्यधिक वाष्पीकरण और जलाशयों तथा भूमिगत जल के अत्यधिक प्रयोग से भूतल पर जल की कमी हो जाए।

चित्र 6.6 : भारत : बाढ़ संभावित क्षेत्र

सूखा एक जटिल परिघटना है जिसमें कई प्रकार के मौसम विज्ञान संबंधी तथा अन्य तत्त्व, जैसे- वृष्टि, वाष्पीकरण, वाष्पोत्सर्जन, भौम जल, मृदा में नमी, जल भंडारण व भरण, कृषि पद्धतियाँ, विशेषत: उगाई जाने वाली फसलें, सामाजिक-आर्थिक गतिविधियाँ और पारिस्थितिकी शामिल हैं।

सूखे के प्रकार

मौसमविज्ञान संबंधी सूखा

यह एक ऐसी स्थिति है, जिसमें लंबे समय तक अपर्याप्त वर्षा होती है और इसका सामयिक और स्थानिक वितरण भी असंतुलित होता है।

कृषि सूखा

इसे भूमि-आर्द्रता सूखा भी कहा जाता है। मिट्टी में आर्द्रता की कमी के कारण फसलें मुरझा जाती हैं। जिन क्षेत्रों में 30 प्रतिशत से अधिक कुल बोये गए क्षेत्र में सिंचाई होती है, उन्हें भी सूखा प्रभावित क्षेत्र नहीं माना जाता।

जलविज्ञान संबंधी सूखा

यह स्थिति तब पैदा होती है जब विभिन्न जल संग्रहण, जलाशय, जलभूत और झीलों इत्यादि का स्तर वृष्टि द्वारा की जाने वाली जलापूर्ति के बाद भी नीचे गिर जाए।

पारिस्थितिक सूखा

जब प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में जल की कमी से उत्पादकता में कमी हो जाती है और परिणामस्वरूप पारिस्थितिक तंत्र में तनाव आ जाता है तथा यह क्षतिग्रस्त हो जाता है, तो परिस्थितिक सूखा कहलाता है।

भारत में सूखा ग्रस्त क्षेत्र

भारतीय कृषि काफी हद तक मानसून वर्षा पर निर्भर करती रही है। भारतीय जलवायु तंत्र में सूखा और बाढ़ महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं। कुछ अनुमानों के अनुसार भारत में

चित्र 6.7: सूखा

कुल भौगोलिक क्षेत्र का 19 प्रतिशत भाग और जनसंख्या का 12 प्रतिशत हिस्सा हर वर्ष सूखे से प्रभावित होता है। देश का लगभग 30 प्रतिशत क्षेत्र सूखे से प्रभावित हो सकता है जिससे 5 करोड़ लोग इससे प्रभावित होते हैं। यह प्राय: देखा गया है कि जब देश के कुछ भागों में बाढ़ कहर ढा रही होती है, उसी समय दूसरे भाग सूखे से जूझ रहे होते हैं। यह मानसून में परिवर्तनशीलता और इसके व्यवहार में अनिश्चितता का परिणाम है। सूखे का प्रभाव भारत में बहुत व्यापक है, परंतु कुछ क्षेत्र जहाँ ये बार-बार पड़ते हैं और जहाँ उनका असर अधिक है सूखे की तीव्रता के आधार पर निम्नलिखित क्षेत्रों में बाँटा गया है।

अत्यधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र

मानचित्र 6.8 दर्शाता है कि राजस्थान में ज़्यादातर भाग, विशेषकर अरावली के पश्चिम में स्थित मरुस्थली और गुजरात का कच्छ क्षेत्र अत्यधिक सूखा प्रभावित है। इसमें राजस्थान के जैसलमेर और बाड़मेर जिले भी शामिल हैं, जहाँ 90 मिलीलीटर से कम औसत वार्षिक वर्षा होती है।

अधिक सूखा प्रभावित क्षेत्र

इसमें राजस्थान के पूर्वी भाग, मध्य प्रदेश के ज़्यादातर भाग, महाराष्ट्र के पूर्वी भाग, आंध्र प्रदेश के अंदरूनी भाग,

चित्र 6.8 : भारत : सूखा प्रवण क्षेत्र

कर्नाटक का पठार, तमिलनाडु के उत्तरी भाग, झारखंड का दक्षिणी भाग और ओडिशा का आंतरिक भाग शामिल है।

मध्यम सूखा प्रभावित क्षेत्र

इस वर्ग में राजस्थान के उत्तरी भाग, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के दक्षिणी जिले, गुजरात के बचे हुए जिले, कोंकण को छोड़कर महाराष्ट्र, झारखंड, तमिलनाडु में कोयंबटूर पठार और आंतरिक कर्नाटक शामिल हैं। भारत के बचे हुए भाग बहुत कम या न के बराबर सूखे से प्रभावित हैं।

सूखे के परिणाम

पर्यावरण और समाज पर सूखे का सोपानी प्रभाव पड़ता है। फसलें बर्बाद होने से अन्न की कमी हो जाती है, जिसे अकाल कहा जाता है। चारा कम होने की स्थिति को तृण अकाल कहा जाता है। जल आपूर्ति की कमी जल अकाल कहलाती है, तीनों परिस्थितियाँ मिल जाएँ तो त्रि-अकाल कहलाती है जो सबसे अधिक विध्वंसक है। सूखा प्रभावित क्षेत्रों में वृहत् पैमाने पर मवेशियों और अन्य पशुओं की मौत, मानव प्रवास तथा पशु पलायन एक सामान्य परिवेश है। पानी की कमी के कारण लोग दूषित जल पीने को बाध्य होते हैं। इसके परिणामस्वरूप पेयजल संबंधी बीमारियाँ जैसे आंत्रशोथ, हैजा और हेपेटाईटिस हो जाती है।

सामाजिक और प्राकृतिक पर्यावरण पर सूखे का प्रभाव तात्कालिक एवं दीर्घकालिक होता है। इसलिए सूखे से निपटने के लिए तैयार की जा रही योजनाओं को उन्हें ध्यान में रखकर बनाना चाहिए। सूखे की स्थिति में तात्कालिक सहायता में सुरक्षित पेयजल वितरण, दवाइयाँ, पशुओं के लिए चारे और जल की उपलब्धता तथा लोगों और पशुओं को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाना शामिल है। सूखे से निपटने के लिए दीर्घकालिक योजनाओं में विभिन्न कदम उठाए जा सकते हैं, जैसे - भूमिगत जल के भंडारण का पता लगाना, जल आधिक्य क्षेत्रों से अल्पजल क्षेत्रों में पानी पहुँचाना, नदियों को जोड़ना और बाँध व जलाशयों का निर्माण इत्यादि। नदियाँ जोड़ने के लिए द्रोणियों की पहचान तथा भूमिगत जल भंडारण की संभावना का पता लगाने के लिए सुदूर संवेदन और उपग्रहों से प्राप्त चित्रों का प्रयोग करना चाहिए।

सूखा प्रतिरोधी फसलों के बारे में प्रचार-प्रसार सूखे से लड़ने के लिए एक दीर्घकालिक उपाय है। वर्षा जल संलवन (Rain water harvesting) सूखे का प्रभाव कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।

अपने पास-पड़ोस में छत से वर्षा जल संलवन करने के तरीके समझें और इन्हें ज्यादा कारगर बनाने के उपाय सुझाएँ।

भूस्खलन

क्या आपने श्रीनगर को जाने वाली सड़क तथा कोंकण रेल पटरी पर चट्टानें गिरने से रास्ता रुकने के बारे में पढ़ा है। यह भूस्खलन की वजह से होता है, जिसमें चट्टान समूह खिसककर ढाल से नीचे गिरता है। सामान्यतः भूस्खलन भूकंप, ज्वालामुखी फटने, सुनामी और चक्रवात की तुलना में कोई बड़ी घटना नहीं है, परन्तु इसका प्राकृतिक पर्यावरण और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अन्य आपदाओं के विपरीत, जो आकस्मिक, अननुमेय तथा बृहत स्तर पर दीर्घ एवं प्रादेशिक कारकों से नियंत्रित हैं, भूस्खलन मुख्य रूप से स्थानीय कारणों से उत्पन्न होते हैं। इसलिए भूस्खलन के बारे में आँकड़े एकत्र करना और इसकी संभावना का अनुमान लगाना न सिर्फ मुश्किल अपितु काफी महँगा पड़ता है।

भूस्खलन को परिभाषित करना और इसके व्यवहार को शब्दों में बाँधना मुश्किल कार्य है। परंतु फिर भी पिछले अनुभवों, इसकी बारंबारता और इसके घटने को प्रभावित करने वाले कारकों, जैसे - भूविज्ञान, भूआकृतिक कारक, ढ़ाल, भूमि उपयोग, वनस्पति आवरण और मानव क्रियाकलापों के आधार पर भारत को विभिन्न भूस्खलन क्षेत्रों में बाँटा गया है।

चित्र 6.9: भूस्खलन

अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्र

ज्यादा अस्थिर हिमालय की युवा पर्वत भृंखलाएँ, अंडमान और निकोबार, पश्चिमी घाट और नीलगिरी में अधिक वर्षा वाले क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, भूकंप प्रभावी क्षेत्र और अत्यधिक मानव क्रियाकलापों वाले क्षेत्र, जिसमें सड़क और बाँध निर्माण इत्यादि आते हैं, अत्यधिक भूस्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में रखे जाते हैं।

अधिक सुभेद्यता क्षेत्र

अधिक भूस्खलन सुभेद्यता क्षेत्रों में भी अत्यधिक सुभेद्यता क्षेत्रों से मिलती-जुलती परिस्थितियाँ हैं। दोनों में अंतर है, भूस्खलन को नियंत्रण करने वाले कारकों के संयोजन, गहनता और बारंबारता का। हिमालय क्षेत्र के सारे राज्य और उत्तर-पूर्वी भाग (असम को छोड़कर) इस क्षेत्र में शामिल हैं।

मध्यम और कम सुभेद्यता क्षेत्र

पार हिमालय के कम वृष्टि वाले क्षेत्र लद्दाख और हिमाचल प्रदेश में स्पिती, अरावली पहाड़ियों में कम वर्षा वाला क्षेत्र, पश्चिमी व पूर्वी घाट के व दक्कन पठार के वृष्टि छाया क्षेत्र ऐसे इलाके हैं, जहाँ कभी-कभी भूस्खलन होता है। इसके अलावा झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंश्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, गोवा और केरल में खादानों और भूमि धँसने से भूस्खलन होता रहता है।

अन्य क्षेत्र

भारत के अन्य क्षेत्र विशेषकर राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल (दार्जिलिंग जिले को छोड़कर) असम (कार्बी अनलोंग को छोड़कर) और दक्षिण प्रांतों के तटीय क्षेत्र भूस्खलन युक्त हैं।

भूस्खलनों के परिणाम

भूस्खलनों का प्रभाव अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र में पाया जाता है तथा स्थानीय होता है। परन्तु सड़क मार्ग में अवरोध, रेलपटरियों का टूटना और जल वाहिकाओं में चट्टानें गिरने से पैदा हुई रुकावटों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। भूस्खलन की वजह से हुए नदी रास्तों में बदलाव बाढ़ ला सकते हैं और जान माल का नुकसान हो सकता है। इससे इन क्षेत्रों में आवागमन मुश्किल हो जाता है और विकास कार्यों को रफ़्तार धीमी पड़ जाती है।

निवारण

भूस्खलन से निपटने के उपाय अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग होने चाहिए। अधिक भूस्खलन संभावी क्षेत्रों में सड़क और बड़े बाँध बनाने जैसे निर्माण कार्य तथा विकास कार्य पर प्रतिबंध होना चाहिए। इन क्षेत्रों में कृषि नदी घाटी तथा कम ढाल वाले क्षेत्रों तक सीमित होनी चाहिए तथा बड़ी विकास परियोजनाओं पर नियंत्रण होना चाहिए। सकारात्मक कार्य जैसे- बृहत स्तर पर वनीकरण को बढ़ावा और जल बहाव को कम करने के लिए बाँध का निर्माण भूस्खलन के उपायों के पूरक हैं। स्थानांतरी कृषि वाले उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में सीढ़ीनुमा खेत बनाकर कृषि की जानी चाहिए।

आपदा प्रबंधन

भूकंप, सुनामी और ज्वालामुखी की तुलना में चक्रवात के आने के समय एवं स्थान की भविष्यवाणी संभव है। इसके अतिरिक्त आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके चक्रवात की गहनता, दिशा और परिमाण आदि को मॉनीटर करके इससे होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। इससे होने वाले नुकसान को कम करने के लिए चक्रवात शेल्टर, तटबंध, डाइक, जलाश्य निर्माण तथा वायुवेग को कम करने के लिए वनीकरण जैसे कदम उठाए जा सकते हैं, फिर भी भारत, बांग्लादेश, म्यांमार इत्यादि देशों के तटीय क्षेत्रों में रहने वाली जनसंख्या की सुभेद्यता अधिक है, इसीलिए यहाँ जान-माल का नुकसान बढ़ रहा है।

आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005

इस अधिनियम में आपदा को किसी क्षेत्र में घटित एक महाविपत्ति, दुर्घटना, संकट या गंभीर घटना के रूप में परिभाषित किया गया है, जो प्राकृतिक या मानवकृत कारणों या दुर्घटना या लापरवाही का परिणाम हो और जिससे बड़े स्तर पर जान की क्षति या मानव पीड़ा, पर्यावरण की हानि एवं विनाश हो और जिसकी प्रकृति या परिमाण प्रभावित क्षेत्र में रहने वाले मानव समुदाय की सहन क्षमता से परे हो।

निष्कर्ष

ऊपरलिखित विवरण से यह निष्कर्ष निकलता है कि आपदाएँ प्राकृतिक या मानवकृत दोनों प्रकार की हो सकती हैं, परन्तु हर संकट आपदा भी नहीं होती। आपदाओं और विशेषकर प्राकृतिक आपदाओं पर नियंत्रण मुश्किल है। इसका बेहतर उपाय इनके निवारण की तैयारियाँ करना है। आपदा निवारण और प्रबंधन की तीन अवस्थाएँ हैं :

(i) आपदा से पहले - आपदा के बारे में आँकड़े और सूचना एकत्र करना, आपदा संभावी क्षेत्रों का मानचित्र तैयार करना और लोगों को इसके बारे में जानकारी देना। इसके अलावा संभावी क्षेत्रों में आपदा योजना बनाना, तैयारियाँ रखना और बचाव का उपाय करना।

(ii) आपदा के समय - युद्ध स्तर पर बचाव व राहत कार्य, जैसे- आपदाग्रस्त क्षेत्रों से लोगों को निकालना, आश्रय स्थल निर्माण, राहत कैंप, जल, भोजन व दवाई आपूर्ति।

(iii) आपदा के पश्चात - प्रभावित लोगों का बचाव और पुनर्वास। भविष्य में आपदाओं से निपटने के लिए क्षमता-निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना।

भारत जैसे देश में, जहाँ दो-तिहाई क्षेत्र और जनसंख्या आपदा सुभेद्य है, इन उपायों का विशेष महत्त्व है। आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की स्थापना इस दिशा में भारत सरकार द्वारा उठाए गए सकारात्मक कदम का उदाहरण है।

अभ्यास

1. बहुवैकल्पिक प्रश्न :

(i) इनमें से भारत के किस राज्य में बाढ़ अधिक आती है?
(क) बिहार
(ख) पश्चिम बंगाल
(ग) असम
(घ) उत्तर प्रदेश

(ii) उत्तरांचल के किस जिले में मालपा भूस्खलन आपदा घटित हुई थी?
(क) बागेश्वर
(ख) चंपावत
(ग) अल्मोड़ा
(घ) पिथोरागढ़

(iii) इनमें से कौन-से राज्य में सर्दी के महीनों में बाढ़ आती है?
(क) असम
(ख) पश्चिम बंगाल
(ग) केरल
(घ) तमिलनाडु

(iv) इनमें से किस नदी में मजौली नदीय द्वीप स्थित है?
(क) गंगा
(ख) बह्मपुत्र
(ग) गोदावरी
(घ) सिंधु

(v) बर्फानी तूफान किस तरह की प्राकृतिक आपदा है?
(क) वायुमंडलीय
(ख) जलीय
(ग) भौमिकी
(घ) जीवमंडलीय

2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 30 से कम शब्दों में दें।

(i) संकट किस दशा में आपदा बन जाता है?
(ii) हिमालय और भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में अधिक भूकंप क्यों आते हैं?
(iii) उष्ण कटिबंधीय तूफान की उत्पत्ति के लिए कौन-सी परिस्थितियाँ अनुकूल हैं?
(vi) पूर्वी भारत की बाढ़, पश्चिमी भारत की बाढ़ से अलग कैसे होती है?
(v) पश्चिमी और मध्य भारत में सूखे ज्यादा क्यों पड़ते हैं?

3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर 125 शब्दों में दें।

(i) भारत में भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों की पहचान करें और इस आपदा के निवारण के कुछ उपाय बताएँ।
(ii) सुभेद्यता क्या है? सूखे के आधार पर भारत को प्राकृतिक आपदा भेद्यता क्षेत्रों में विभाजित करें और इसके निवारण के उपाय बताएँ।
(v) किस स्थिति में विकास कार्य आपदा का कारण बन सकता है?

परियोजना/क्रियाकलाप

नीचे दिए गए विषयों पर प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करें।

(i) मालपा भूस्खलन
(ii) सुनामी
(iii) ओडिशा चक्रवात और गुजरात चक्रवात
(iv) नदियों को आपस में जोड़ना
(v) टेहरी बाँध/सरदार सरोवर
(vi) भुज/लातूर भूकंप
(vii) डेल्टा/नदीय द्वीप में जीवन
(viii) छत वर्षा जल संलवन का मॉडल तैयार करें।

शब्दावली

अपवाह क्षेत्र : वह क्षेत्र, जो एक मुख्य नदी और उसकी सहायक नदियों द्वारा अपवाहित होता है। अवर्गीकृत वन : एक क्षेत्र, जो वन के रूप में तो अंकित होता है, परन्तु वनों की संरक्षित अथवा आरक्षित संवर्ग में सम्मिलित न हो। इनका स्वामित्व विभिन्न राज्यों में अलग-अलग होता है।

अवदाब : मौसम विज्ञान में यह अपेक्षाकृत निम्न वायुदाब के उन क्षेत्रों को इंगित करता है, जो समशीतोष्ण कटिबंधों में पाए जाते हैं। यह समशीतोष्ण कटिबंधीय चक्रवातों का पर्याय भी समझा जाता है।

अवनालिका अपरदन : चट्टान तथा मृदा का जल के सांद्रित वाह से ऐसा अपरदन जिसमें अवनालिकाएँ बन जाएँ।

आधार शैल : मृदा तथा अपक्षयित पदार्थ के नीचे उपस्थित कठोर चट्टान।

आरक्षित वन : भारतीय वन अधिनियम अथवा राज्य वन अधिनियमों के प्रावधानों के अंतर्गत अधिसूचित एक क्षेत्र, जो पूर्ण रूप से रक्षित होता है। इन आरक्षित वनों में जब-तक अनुमति न हो सभी क्रियाएँ प्रतिबंधित होती हैं।

उपमहाद्वीप : एक बड़ी भौगोलिक इकाई, जो शेष महाद्वीप से अलग एक विशिष्ट पहचान रखती हो।

कैल्सियमी : चूने की उच्च मात्रा से निर्मित अथवा युक्त।

जलोढ़ मैदान: नदी द्वारा लाए गए जलोढ़क अथवा महीन चट्टानी सामग्री द्वारा निर्मित भूमि का एक समतल क्षेत्र।
जलवायु : किसी समयावधि में (लगभग 30 वर्ष या उससे अधिक) पृथ्वी के धरातल के एक विस्तृत क्षेत्र की औसत मौसमी दशाएँ।

जेट प्रवाह : अत्यंत प्रबल एवं अचर पछुवा पवन, जो क्षोभ-सीमा के एकदम नीचे बहती है।

जीव मंडल निचय : ये बहुद्देशीय संरक्षित क्षेत्र होते हैं, जिनमें हर आकार के पौधे एवं जंतु को उनके प्राकृतिक पर्यावास में संरक्षित किया जाता है। इसके प्रमुख उद्देश्य हैं : (1) प्राकृतिक विरासत की विविधता एवं अखंडता को उसकी संपूर्णता में संरक्षित एवं पोषित करना, (2) पारिस्थितिक संरक्षण एवं पर्यावरण के अन्य पक्षों पर अनुसंधान को प्रोन्तत करना, (3) शिक्षा, जागरूकता और व्याख्या करने की सुविधाएँ उपलब्ध कराना।

**ज्वारनदमुख : **नदी का ज्वारीय मुख, जहाँ ताज़ा और लवणीय जल मिल जाते हैं।

झील : पृथ्वी के धरातल के एक घँसे हुए भाग पर जल की उपस्थिति, जो चारों ओर से भूभाग से आवृत्त हो।

तट : स्थल और समुद्र के बीच का संपर्क क्षेत्रा इसमें भूमि की वह पट्टी भी सम्मिलित होती है, जो समुद्री तट के साथ लगती है।

तटीय मैदान : तट तथा अंतःस्थलीय ऊँची भूमि के बीच स्थित समतल निम्न भूभाग।

तराई : जलोढ़ पंखों के निचले भागों में दलदली भूमि और वनस्पति की एक पेटी।

दर्रा : पर्वत श्रेणी से गुजरता एक मार्ग, जो एक कॉल या विदर की रेखा का अनुसरण करता है।

द्वीप : महाद्वीप की तुलना में एक ऐसी भूसंहित, जो चारों ओर जल से घिरी हो।

द्वीप समूह : द्वीपों का एक समूह, जो आपस में निकट अवस्थित होते हैं।

नाइस : कणिकामय गठन वाली कायांतरित शैल, जिस की संरचना पट्टित होती है। इसकी रचना पर्वत निर्माण एवं ज्वालामुखी क्रिया से संबद्ध बड़े पैमाने पर ताप एवं दाब के अनुप्रयोग से जुड़ी हुई है।

पठार : समतल भूमि की तुलना में एक उच्चस्थ विस्तृत भूखंड।

पश्च जल : जल का वह विस्तार जिससे नदी का मुख्य प्रवाह बाह्य पंथ से गुजर जाए। यह जल मुख्य जल से जुड़ा होता है, परन्तु इसके प्रवाह की दर अत्यन्त निम्न होती है।

प्राणी जगत : किसी निश्चित काल अथवा प्रदेश का पशु जीवन।

प्रायद्वीप : समुद्र की ओर बढ़ा हुआ भूमि का एक भाग।

प्रवाल : चूना-स्रावी एक समुद्री पॉलिप, जो उष्ण क्षेत्र में स्थित उथले समुद्र में कॉलोनी में पाया जाता है। यह प्रवाल भित्तियों को बनाता है।

प्लाया : अंतःस्थली अपवाह बेसिन का निम्न, केंद्रीय भाग। प्लाया न्यून वर्षा के क्षेत्रों में पाए जाते हैं।

बंध बनाना : इसमें जल के संरक्षण तथा फसलों के उत्पादन में वृद्धि के लिए मिट्टी अथवा पत्थरों का भराव करके बनाया जाने वाला बंध बनाना।

भूस्खलन : अपरूपणी तल के साथ-साथ गुरुत्वाकर्षण के प्रभावाधीन चट्टानों एवं मलबे की संहति का तीव्रता से नीचे की ओर बृहत संचलन।

मानसून : एक बृहत क्षेत्र पर पवनों की दिशा में संपूर्ण प्रत्यावर्तन जिससे ऋतु परिवर्तन होता है।

महाखड्ड/गॉर्ज : खड़ी व चट्टानी पार्श्वों वाली गहरी घाटी।

मैदान : समतल अथवा मंद तरंगित भूमि का एक विस्तृत क्षेत्र।

मृदा परिच्छेदिका : भूमि की सतह से पैतृक चट्टान तक यह मृदा का एक ऊर्ध्वाधर परिच्छेद अथवा खंड होती है।

राष्ट्रीय पार्क : राष्ट्रीय पार्क वन्य जीवन के संरक्षण के लिए पूर्णतः सुरक्षित एक क्षेत्र होता है, जिसमें वन कटाव, पशुचारण और खेती जैसी क्रियाओं की अनुमति नहीं होती।

वलन : भूपर्पटी के किसी क्षेत्र में संपीडन के परिणामस्वरूप चट्टानी स्तरों में आया मोड़।

विसर्प : किसी मंद गति से बहने वाली नदी की धारा के मार्ग में एक सुस्पष्ट वलयाकार मोड़।

विवर्तनिक : भूगर्भ से उत्पन्न बल, जो भूआकृतिक लक्षणों में बृहत परिवर्तन लाते हैं।

शरण स्थली : शरण स्थली एक ऐसा क्षेत्र होता है, जो केवल जंतुओं के संरक्षण के लिए आरक्षित होता है। इनमें लकड़ी काटने व छोटे वनोत्पाद संग्रहण करने जैसी गतिविधियों की तब तक अनुमति होती है जब तक ये जंतुओं को नकारात्मक ढंग से प्रभावित नहीं करतीं।

शुष्क: ऐसी जलवायु अथवा प्रदेश के लिए प्रयुक्त, जहाँ वर्षा अपर्याप्त होती है।

संरक्षण : भविष्य के लिए प्राकृतिक पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा। इसमें खनिजों, भूदृश्य, मृदा और वनों का विनाश और अतिदोहन रोकने के लिए प्रबंधन भी सम्मिलित है।

संरक्षित वन : भारतीय वन अधिनियम अथवा राज्य वन अधिनियमों के प्रावधानों के अंतर्गत अधिसूचित एक क्षेत्र जिसे सीमित मात्रा में संरक्षण उपलब्ध होता है। इन संरक्षित वनों में जब-तक निषेध न हो सभी क्रियाओं की अनुमति होती है।

हिमनद : हिम एवं बर्फ की संहति, जो अपने जमाव के स्थान से धीरे-धीरे बाहर की ओर खिसकती रहती है और अपने मार्ग में एक विस्तृत खड़े पार्श्वों वाली घाटी की क्रमिक रचना करती है।

ह्यूमस : मृदा में उपस्थित मृत जीवांश।

क्षिप्रिका : किसी नदी का वह भाग, जहाँ जल की गति बहुत तीव्र होती है, क्योंकि नदी-तली में उपस्थित कठोर चट्टानों से अवरोध पैदा होता है।



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