अध्याय 08 अभिप्रेरण एवं संवेग

परिचय

सुनीता एक बहुत कम जाने-माने शहर की लड़की है, इंजीनियरिंग की विभिन्न प्रवेश परीक्षाओं में उत्तीर्ण होने के लिए वह प्रतिदिन लगभग 10-12 घंटे तक कठिन परिश्रम करती है। शारीरिक रूप से चुनौतीग्रस्त हेमंत एक पर्वतारोहण अभियान में भाग लेना चाहता है तथा एक पर्वतारोही संस्थान में गहन प्रशिक्षण ले रहा है। अमन अपनी छात्रवृत्ति में से कुछ रुपये बचा रहा है जिससे वह अपनी माँ के लिए एक उपहार खरीद सके। यह केवल कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो प्रदर्शित करते हैं कि मानव व्यवहार में अभिप्रेरणा को क्या भूमिका है। उपरोक्त में से प्रत्येक व्यवहार का कारण कोई अभिप्रेक है। व्यवहार लक्ष्य-निर्धारित होता है। लक्ष्य-निर्धारित व्यवहार तब तक चलता रहता है जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए लोग विभिन्न कार्यों की योजना बनाते हैं और उनका क्रियान्वयन करते हैं। यदि सुनीता कड़ी मेहनत के बावजूद भी सफल नहीं होती है तो उसे कैसा लगेगा, अथवा यदि अमन के छात्रवृत्ति धन की चोरी हो जाए तो उसे कैसा लगेगा? संभव है कि सुनीता दुखी हो जाए और अमन क्रुद्ध हो जाए। यह अध्याय आपको अभिप्रेरणा एवं संवेग के मूल संत्रत्ययों तथा इन दोनों क्षेत्रों से संबंधित विकास को समझने में सहायता करेगा। आप कुंठा एवं द्वंद्व के संप्रत्यय को भी जानेंग।। मूल संवेगों, उनके प्रकट अभिव्यक्ति, सांस्कृतिक प्रभावों, उनका अभिप्रेरणा के साथ संबंध और संवेगों के बेहतर प्रबंधन करने की प्रविधियों का भी यहाँ वर्णन किया जाएगा।

अभिप्रेरणा का स्वरूप

अभिप्रेरणा का संप्रत्यय इस बात पर फोकस करता है कि व्यवहार में ‘गति’ कैसे आती है। अंग्रेज़ी भाषा में ‘Motivation’ लैटिन शब्द ‘movere’ से बना है, जिसका संदर्भ क्रियाकलाप की गति से है। हमारे दैनिक जीवन में अधिकांश व्यवहारों की व्याख्या भी अभिप्रेरकों के आधार पर की जाती है। आप विद्यालय या महाविद्यालय क्यों जाते हैं? इस व्यवहार के कई कारण हो सकते हैं, जैसे कि आप ज्ञान अर्जित करना चाहते हैं या मित्र बनाना चाहते हैं, या फिर, आपको एक अच्छी नौकरी पाने के लिए एक डिप्लोमा या डिग्री की आवश्यकता है, या आप अपने माता-पिता को प्रसन्न करना चाहते हैं इत्यादि। इन कारणों की कोई संयुक्ति या अन्य कारण भी आपके उच्च शिक्षा लेने की व्याख्या कर सकते हैं। अभिप्रेरक व्यवहारों का पूर्वानुमान करने में भी सहायता करते हैं। यदि किसी व्यक्ति में तीव्र उपलब्धि अभिप्रेरक हो तो वह विद्यालय में, खेल में, व्यापार में, संगीत में, तथा अनेक अन्य परिस्थितियों में कड़ा परिश्रम करेगा। अतः अभिप्रेरक वे सामान्य स्थितियाँ हैं जिनके आधार पर हम भिन्न परिस्थितियों में व्यवहार के बारे में पूर्वानुमान लगा सकते हैं। दूसरे शब्दों में, अभिप्रेरणा व्यवहार के निर्धारकों में से एक है। मूल प्रवृत्तियाँ, अंतर्नोद, आवश्यकताएँ, लक्ष्य तथा उत्प्रेरक, अभिप्रेरणा के विस्तृत दायरे में आते हैं।

अभिप्रेरणात्मक चक्र

मनोवैज्ञानिक अब आवश्यकता के संप्रत्यय का उपयोग व्यवहार की अभिप्रेरणात्मक विशिष्टताओं का वर्णन करने के लिए करते हैं। किसी आवश्यक वस्तु का अभाव या न्यूनता ही

चित्र 8.1 : अभिप्रेरणात्मक चक्र

आवश्यकता है। आवश्यकता अंतर्नोद को जन्म देती है। किसी आवश्यकता के कारण जो तनाव या उद्वेलन उत्पन्न होता है, वही अंतर्नोद है। इसके कारण यादृच्छिक क्रियाकलाप को ऊर्जा मिलती है। जब किसी एक यादृच्छिक क्रियाकलाप के द्वारा लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तो अंतर्नोद समाप्त हो जाता है तथा प्राणी भी क्रियाशील नहीं रहता है। प्राणी पुन: संतुलित दशा में लौट जाता है। इस प्रकार अभिप्रेपरात्मक घटनाओं के चक्र को चित्र 8.1 के द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है।

क्या अभिप्रेरक विभिन्न प्रकार के होते हैं? क्या विभिन्न अभिप्रेरकों को जैविक आधार पर समझाया जा सकता है? यदि आपके अभिप्रेरक की संतुष्टि न हो पाए तो क्या होता है? इस अध्याय के आगे के खंडों में हम उपरोक्त एवं अन्य प्रश्नों पर चर्चा करेंगे।

अभिप्रेरकों के प्रकार

मूल रूप से, अभिप्रेरक दो प्रकार के होते हैं- जैविक एवं मनोसामाजिक। जैविक अभिप्रेरकों को शरीरक्रियात्मक अभिप्रेरक भी कहते हैं, क्योंकि उनका संचालन मुख्यतः शरीर के शरीरक्रियात्मक तंत्र पर निर्भर करता है। इसके विपरीत, मनोसामाजिक अभिप्रेक प्राथमिक रूप से विभिन्न पर्यावरणी कारकों के साथ व्यक्ति की अंतःक्रिया द्वारा सीखे गए होते हैं।

फिर भी, दोनों प्रकार के अभिप्रेक परस्पर एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। अर्थात कुछ परिस्थितियों में जैविक कारक कुछ अभिप्रेरकों को उत्पन्न करते हैं, जबकि कुछ अन्य परिस्थितियों में मनोसामाजिक कारक अभिप्रेरक को उत्पन्न कर सकते हैं। अतः आप यह याद रखें कि कोई भी अभिप्रेरक अपने आप में पूर्णातः जैविक अथवा मनोसामाजिक नहीं होता, बल्कि वे व्यक्ति में विभिन्न मिश्रणों में उद्दीप्त होते हैं।

जैविक अभिप्रेरक

अभिप्रेरणा को समझने के लिए जैविक अथवा शरीरक्रियात्मक उपागम सबसे पहले अपनाए गए। बाद में जो सिद्धांत विकसित हुए, उनमें भी जैविक उपागम के प्रभाव के शेष चिह्न दिखाई पड़ते हैं। अनुकूली क्रिया के संप्रत्यय पर दृढ़ रहने वाले उपागम भी मानते हैं कि प्राणी की आवश्यकताएँ (आंतरिक शरीरक्रियात्मक असंतुलन) अंतर्नोद उत्पन्न करती हैं तथा जो ऐसे व्यवहारों को उद्दीप्त करती हैं जिनके कारण वे कुछ विशेष लक्ष्यों को प्राप्त करने की क्रिया करते हैं, जिससे अंतर्नोद घट जाता है। अभिप्रेरणा की सबसे पुरानी व्याख्या मूल प्रवृत्ति के संप्रत्यय पर आधारित थी। मूल प्रवृत्ति उन सहज व्यवहारों के प्रतिरूप को सूचित करती है, जिनका निर्धारण जैविक कारकों से होता है न कि वे सीखे हुए होते हैं। कुछ सामान्य मानवीय मूल प्रवृत्तियाँ जिज्ञासा, पलायन, प्रतिकर्षण, प्रजनन, पैतृक देखभाल इत्यादि हैं। मूल प्रवृत्तियाँ ऐसी अंतर्जात प्रवृत्तियाँ हैं जो एक प्रजाति के सभी सदस्यों में पाई जाती हैं तथा जो व्यवहार को पूर्वकथनीय तरीकों से निर्दिष्ट करती हैं। मूल प्रवृत्ति बहुधा कुछ कार्य करने के अंत:प्रेण को प्रदर्शित करती है। मूल प्रवृत्ति का एक बल या आवेग होता है जो प्राणी को कुछ ऐसी क्रिया करने के लिए चालित करता है जो उस बल या आवेग को कम कर सके। इस उपागम द्वारा जिन मूल जैविक आवश्यकताओं की व्याख्या की

चित्र 8.2 : अभिप्रेरकों के प्रकार

जाती है, वे हैं - भूख, प्यास तथा काम-वृत्ति जो कि व्यक्ति के जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक हैं।

भूख

जब किसी को भूख लगी हो तो भोजन की आवश्यकता सर्वोपरि हो जाती है। यह व्यक्ति को भोजन प्राप्त करने और उसे खाने के लिए अभिप्रेरित करती है। लेकिन आपको भूख की अनुभूति क्यों होती है? अनेक अध्ययन सूचित करते हैं कि शरीर के भीतर तथा बाहर घटित होने वाली अनेक घटनाएँ भूख को उद्दीप्त या निरुद्ध कर सकती हैं। भूख के उद्दीपकों में अन्तर्निहित हैं - अमाशय में संकुचन, जो यह इंगित करता है कि अमाशय रिक्त है; रक्त में ग्लूकोज़ की निम्न सांद्रता; प्रोटीन का निम्न स्तर तथा शरीर में वसा के भंडारण की मात्रा। शरीर में ईंधन की कमी के प्रति यकृत भी प्रतिक्रिया करता है तथा वह मस्तिष्क को तंत्रिका आवेग प्रेषित करता है। भोजन की सुगंध, स्वाद या दर्शन भी खाने की इच्छा उत्पन्न करते हैं। ज्ञातव्य है कि इनमें से कोई भी एक अपने आप में यह भाव नहीं जगाते कि आप भूखे हैं। ये सब बाह्य कारकों (जैसेस्वाद, रंग, दूसरों को भोजन करते हुए देखना तथा भोजन की सुगंध इत्यादि) के साथ संयुक्त होकर, आपको यह समझने में सहायता करते हैं कि आप भूखे हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि हमारी भूख अधश्चेतक में स्थित पोषण-तृप्ति की जटिल व्यवस्था, यकृत और शरीर के अन्य अंगों तथा परिवेश में स्थित बाह्य संकेतों द्वारा नियंत्रित होती है।

प्यास

यदि आपको लंबे समय तक पानी से वंचित रखा जाए तो आपको क्या होगा? आपको प्यास क्यों लगती है? जब हम कई घंटे तक पानी से वंचित रह जाते हैं तो हमारा मुँह तथा गला सूखने लगता है तथा शरीर के ऊतकों में निर्जलीकरण होने लगता है। सूखे मुँह को आर्द्र करने के लिए पानी पीना आवश्यक है। किंतु केवल मुँह का सूखना ही पानी पीने के व्यवहार में परिणत नहीं होता, बल्कि शरीर के भीतर घटित होने वाली प्रक्रियाएँ प्यास तथा पानी पीने को नियंत्रित करती हैं। निर्जलीकरण में शरीर के ऊतकों में पर्याप्त मात्रा में जल पहुँचने पर ही मुँह तथा गले का सूखना दूर हो पाता है।

शारीरिक स्थितियाँ पानी पीने के व्यवहार को प्रमुखतः उद्दीप्त करती हैं : कोशिकाओं से पानी का क्षय तथा रक्त के परिमाण का घटना। जब शरीर से तरल द्रव्यों का क्षय होता है तो कोशिकाओं के भीतर से भी जल का ह्रास होता है। अग्र अधश्चेतक में कुछ तंत्रिका कोशिकाएँ होती हैं, जिन्हें परासरणग्राही कहते हैं, जो कोशिकाओं के निर्जलीकरण की स्थिति में तंत्रिका-आवेग उत्पन्न करती हैं।

काम

मनुष्य तथा पशुओं दोनों में ही एक अत्यंत शक्तिशाली अंतर्नोद, काम अंतर्नोद है। काम-क्रिया की अभिप्रेरणा, मानव व्यवहार को प्रभावित करने वाला एक अत्यंत बलशाली कारक है। किंतु काम केवल एक जैविक अभिप्रेरक से कहीं अधिक है। यह अन्य प्राथमिक अभिप्रेरकों ( भूख, प्यास) से अनेक प्रकार से भिन्न है, जैसे - (क) काम-क्रिया एक व्यक्ति के जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक नहीं है; (ख) काम-क्रिया का लक्ष्य समस्थिति (प्राणी की एक समग्र के रूप में स्थिरता बनाए रखने की प्रवृत्ति, या स्थिरता के भंग हो जाने पर साम्यावस्था को पुनः स्थापित करना) नहीं है; तथा (ग) काम-अंर्नोद आयु के साथ विकसित होता है इत्यादि। निम्न प्रजातियों के पशुओं में यह उनकी अनेक शरीरक्रियात्मक दशाओं पर निर्भर करता है; मानव में काम-अंतर्नोद जैविक कारकों द्वारा गहनता से नियंत्रित होता है, किंतु कभी-कभी काम को एक जैविक अंतर्नोद की श्रेणी में रखना अत्यंत कठिन प्रतीत होता है।

मनोसामाजिक अभिप्रेरक

सामाजिक अभिप्रेरक अधिकांशतः सीखे हुए या अर्जित होते हैं। सामाजिक अभिप्रेरकों को अर्जित करने में सामाजिक समूहों; जैसे- परिवार, पड़ोस, मित्रगण और संबंधियों का बहुत योगदान होता है। ये अभिप्रेरकों के जटिल रूप हैं जो व्यक्ति की उसके सामाजिक परिवेश के साथ अंतःक्रिया के परिणामस्वरूप उत्पन्न होते हैं।

संबंधन अभिप्रेरक

प्रतिदिन हमें दूसरों के साथ की या मित्रों की आवश्यकता होती है या हम दूसरों के साथ किसी प्रकार का संबंध बनाना चाहते हैं। कोई भी सदैव अकेले नहीं रहना चाहता। जैसे ही लोग परस्पर आपस में कुछ समानताएँ देखते हैं, वे एक समूह बना लेते हैं। समूह का निर्माण अथवा सामूहिकता मानव जीवन की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। अक्सर लोग दूसरों के निकट पुँहुचने, उनकी सहायता प्राप्त करने तथा उनके समूह का सदस्य बनने के लिए घोर प्रयास करते हैं। दूसरों को चाहना तथा भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से उनके निकट आने की चाह को संबंधन कहते हैं। इसमें सामाजिक संपर्क की अभिप्रेरणा अंतर्निहित है। संबंधन की आवश्यकता उस समय उद्दीप्त होती है, जब लोग अपने को खतरे में या असहाय महसूस करते हैं और उस समय भी जब वे प्रसन्न होते हैं। जिन व्यक्तियों में यह आवश्यकता प्रबल होती है वे दूसरों का साथ खोजते हैं तथा दूसरों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाए रखते हैं।

शक्ति अभिप्रेरक

शक्ति की आवश्यकता व्यक्ति की वह योग्यता है जिसके कारण वह दूसरों के संवेगों तथा व्यवहारों पर अभिप्रेत प्रभाव डालता है। शक्ति अभिप्रेरक के विभिन्न लक्ष्य हैं: प्रभाव डालना, नियंत्रण करना, सम्मत कराना, नेतृत्व करना तथा दूसरों को मोहित कर लेना और सबसे अधिक महत्वपूर्ण, दूसरों की दृष्टि में अपनी प्रतिष्ठा को ऊँचा उठाना।

डेविड मैकक्लीलैंड (David McClelland, 1975) ने शक्ति अभिप्रेरक की अभिव्यक्ति के चार सामान्य तरीके बताएँ हैं। प्रथम, व्यक्ति शक्ति या सामर्थ्य का बोध प्राप्त करने के लिए अपने बाहर के स्रोतों का उपयोग करता है जैसे, खेल के सितारों के बारे में कहानियाँ पढ़ कर या, किसी लोकप्रिय व्यक्ति के साथ संलग्न होकर। द्वितीय, शक्ति का बोध अपने भीतर के स्रोतों द्वारा भी किया जा सकता है और उसकी अभिव्यक्ति शारीरिक सौष्ठव का निर्माण करके तथा अपने आवेगों एवं अंत:प्रेरणाओं पर नियंत्रण करके की जा सकती है। तृतीय, व्यक्ति कुछ कार्य व्यक्तिगत स्तर पर दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए करता है। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति बहस करता है, या किसी अन्य व्यक्ति के साथ इसलिए प्रतियोगिता करता है कि उसको प्रभावित कर सके या उससे प्रतिस्पर्द्धा कर सके। चतुर्थ, व्यक्ति किसी संगठन के सदस्य के रूप में दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए भी कार्य करता है जैसे कि किसी राजनीतिक दल के नेता के रूप में; वह राजनीतिक दल के तंर्र का उपयोग दूसरों को प्रभावित करने के लिए कर सकता है। इनमें से कोई भी तरीका किसी व्यक्ति की शक्ति अभिप्रेरणा की अभिव्यक्ति में प्रमुख हो सकता है या उस पर छा सकता है किंतु इसमें आयु और जीवन अनुभवों के साथ परिवर्तन भी आता है।

उपलब्धि अभिप्रिरक

आपने देखा होगा कि कुछ विद्यार्थी परीक्षा में अच्छे अंक या श्रेणी पाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं या, दूसरे के साथ स्पद्धा करते हैं क्योंकि अच्छे अंक या श्रेणी उनके लिए उच्च शिक्षा और बेहतर नौकरी का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं। उत्कृष्टता के मापदंड को प्राप्त करने की यह आवश्यकता उपलब्धि अभिप्रेरक कहलाती है। उपलब्धि की आवश्यकता, जिसे $\mathrm{n}$-Ach भी कहते हैं, व्यवहारों का ऊर्जन एवं निर्देशन करती है तथा परिस्थितियों के प्रत्यक्षण को प्रभावित करती है।

सामाजिक विकास के शुरू के वर्षों में बच्चे उपलब्धि अभिप्रेरक को अर्जित करते हैं। वे स्रोत, जिनसे वे यह अभिप्रेरक अर्जित करते हैं उनमें माता-पिता, दूसरे भूमिका प्रतिरूप तथा सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव शामिल हैं। वे व्यक्ति जिनमें उच्च उपलब्धि अभिप्रेरक होते हैं, ऐसे कृत्यों को वरीयता देते हैं जो मध्यम कठिनाई स्तर तथा चुनौती वाले हों। उनमें अपने निष्पादन के संबंध में जानकारी या पुनर्भरण प्राप्त करने की इच्छा सामान्य से अधिक होती है, अर्थात वे ज्ञात करना चाहते हैं कि वे कैसा निष्पादन कर रहे हैं, जिससे कि वे चुनौती से निपटने के लिए अपने लक्ष्यों में आवश्यक फेर-बदल कर सकें।

जिज्ञासा एवं अन्वेषण

कभी-कभी व्यक्ति ऐसे कार्य भी करते हैं जिनका कोई सुस्पष्ट लक्ष्य नहीं होता किंतु वे ऐसे कार्यों से भी कुछ आनंद प्राप्त करते हैं। किसी विशिष्ट पहचाने जाने वाले लक्ष्य के बिना भी कार्य करना एक अभिप्रेरणात्मक प्रवृत्ति है। नए अनुभव प्राप्त करने की इच्छा, सूचनाएँ प्राप्त करने से प्रसन्नता की अनुभूति, इत्यादि जिज्ञासा के संकेत हैं। अतः, जिज्ञासा उन व्यवहारों का वर्णन करती है जिनका मुख्य अभिप्रेरक अपने क्रियाकलापों में व्यस्त रहना प्रतीत होता है।

यदि आकाश हमारे ऊपर गिर जाए तो क्या होगा? इस प्रकार के प्रश्न (क्या होगा यदि—?) बुद्धिजीवियों को उत्तर खोजने के लिए उद्दीप्त करते हैं। अनेक अध्ययन प्रदर्शित करते हैं कि जिज्ञासापूर्ण व्यवहार केवल मानवों में ही परिलक्षित नहीं होते, बल्कि पशु भी इस तरह का व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। हम अपनी जिज्ञासा एवं संवेदी उद्दीपन की आवश्यकता के कारण परिवेश का अन्वेषण करने के लिए परिचालित होते हैं। विभिन्न प्रकार के संवेदी उद्दीपन की आवश्यकता जिज्ञासा से घनिष्ट रूप से संबद्ध होती है। यह मूल अभिप्रेरक है, तथा अन्वेषण एवं जिज्ञासा उसकी अभिव्यक्ति है।

हमारे आस-पास की वस्तुओं के प्रति हमारा अज्ञान, अपने आस-पास के संसार का अन्वेषण करने के लिए प्रबल अभिप्रेरक का कार्य करता है। बारम्बार होने वाले अनुभवों से हम ऊब जाते हैं, अतः हम कुछ नया ढूँढ़ने लगते हैं।

शिशुओं तथा छोटे बच्चों में यह अभिप्रेरक अत्यन्त प्रबल होता है। उन्हें अन्वेषण करने की स्वतंत्रता संतोष प्रदान करती है जो उनकी मुस्कराहट तथा बबलाने में प्रकट होता है। जैसा कि आप अध्याय 4 में पढ़ चुके हैं, जब बालकों में अन्वेषण के अभिप्रेरक को हतोत्साहित किया जाता है तो वे सरलता से दु:खी हो जाते हैं।

मैस्लो का आवश्यकता पदानुक्रम

मानव अभिप्रेरणा के संबंध में कई मत हैं। इनमें से सर्वाधिक लोकप्रिय सिद्धांत अब्राहम एच. मैस्लो (Abraham H. Maslow, 1968; 1970) के द्वारा दिया गया है। उन्होंने मानव व्यवहार को चित्रित करने के लिए आवश्यकताओं को एक पदानुक्रम में व्यवस्थित किया है। उनके सिद्धांत को “आत्म-सिद्धि का सिद्धांत” कहते हैं (चित्र 8.3 देखें) और यह सिद्धांत अपने सैद्धांतिक एवं अनुप्रयुक्त मूल्यों के कारण अत्यंत लोकप्रिय है।

मैस्लो का मॉडल एक पिरामिड के रूप में संप्रत्ययित किया जा सकता है, जिसमें पदानुक्रम के तल में मूल शरीरक्रियात्मक या जैविक आवश्यकताएँ हैं जो कि जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक हैं; जैसे- भूख, प्यास इत्यादि। जब इन

चित्र 8.3 : मैस्लो का आवश्यकता पदानुक्रम

आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है तभी व्यक्ति में खतरे से सुरक्षा की आवश्यकता उत्पन्न होती है। इसका तात्पर्य भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक प्रकार के खतरों से सुरक्षा का है। इसके पश्चात दूसरों का उनसे प्रेम करना तथा उनका प्रेम प्राप्त करना आता है। यदि हम इस आवश्यकता को पूरा करने में सफल हो जाते हैं तब हम स्वयं आत्म-सम्मान तथा दूसरों से सम्मान प्राप्त करने की ओर बढ़ते हैं। पदानुक्रम में इससे ऊपर आत्म-सिद्धि की आवश्यकता है, जो एक व्यक्ति की अपनी सम्भाव्यताओं को पूर्ण रूप से विकसित करने के अभिप्रेरण में परिलक्षित होती है। आत्म-सिद्ध व्यक्ति आत्म-जागरूक, समाज के प्रति अनुक्रियाशील, सर्जनात्मक, स्वतः स्फूर्त तथा नवीनता एवं चुनौती के प्रति मुक्त होता है। ऐसे व्यक्ति में हास्य भावना होती है तथा गहरे अंतर्वैयक्तिक संबंध बनाने की क्षमता होती है।

पदानुक्रम में निम्न स्तर की आवश्यकताएँ (शरीरक्रियात्मक) जब तक संतुष्ट नहीं हो जातीं तब तक प्रभावी रहती हैं। एक बार जब वे पर्याप्त रूप से संतुष्ट हो जाती हैं तब उच्च स्तर की आवश्यकताएँ व्यक्ति के ध्यान एवं प्रयासों में केंद्रित हो जाती हैं। किंतु यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश व्यक्ति निम्न स्तर की आवश्यकताओं के लिए अत्यधिक सरोकार होने के कारण सर्वोच्च स्तर तक पहुँच ही नहीं पाते।

क्रियाकलाप 8.1

वास्तविक क्रियाएँ कभी-कभी आवश्यकता पदानुक्रम के विपरीत होती हैं। सैनिक, पुलिस के अधिकारी और अग्निशमन के कर्मचारी कभी-कभी स्वयं को अत्यंत जोखिम में डाल कर दूसरों की रक्षा करते देखे गए हैं। प्रकट रूप से उनके ये व्यवहार सुरक्षा की आवश्यकता के विरुद्ध प्रतीत होते हैं।

ऐसा क्यों होता है? अपने समूह में इस पर चर्चा कीजिए तथा फिर अपने अध्यापक से इस पर चर्चा कीजिए।

संवेगों का स्वरूप

“स्वाति बहुत प्रसन्न है। आज उसका परीक्षाफल घोषित हुआ है और उसने कक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। वह उल्लासोन्मादित है। किंतु उसका मित्र प्रणय दुखी है क्योंकि उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं है। उनके मित्रों में कुछ स्वाति की उपलब्धि से ईर्ष्या का अनुभव कर रहे हैं। जीवन अपनी आशा के अनुरूप प्रदर्शन न कर पाने के कारण अपने आपसे क्रुद्ध है; वह दुखी है क्योंकि उसके माता-पिता काफ़ी निराश होंगे।”

हर्ष, दुख, आशा, प्रेम, उत्तेजना, क्रोध, घृणा तथा अनेक अन्य भावनाएँ हम सब दिन भर के दौरान अनुभव करते हैं। संवेग का पद अक्सर ‘भावना’ तथा ‘मनःस्थिति’ का पर्यायवाची समझा जाता है। भावना, संवेग के सुख-दुख की विमाओं को निर्दिष्ट करती है। इसमें अक्सर शारीरिक क्रियाएँ भी अंतर्निहित होती हैं। मनःस्थिति कुछ लंबे समय तक बनी रहने वाली भावावस्था है किंतु यह संवेग से कम तीव्र होती है। यह दोनों ही पद संवेग के संप्रत्यय की अपेक्षा अधिक संकुचित हैं। संवेग, उद्वेलन, आत्मनिष्ठ भावनाओं तथा संज्ञानात्मक व्याख्या का एक जटिल स्वरूप होता है। संवेग, जैसाकि हम अनुभव करते हैं, हमारे भीतर गति लाते हैं तथा इस प्रक्रिया में शरीरक्रियात्मक तथा मनोवैज्ञानिक दोनों ही प्रकार की प्रतिक्रियाएँ अंतर्निहित होती हैं।

संवेग एक आत्मनिष्ठ भावना है, अतः संवेग का अनुभव एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न होता है। आधुनिक मनोविज्ञान ने मूल संवेगों को पहचानने का प्रयास किया है। यह देखा गया है कि कम से कम छः संवेग सब जगह अनुभव किए जाते हैं तथा पहचाने जाते हैं; ये हैं - क्रोध, विरुचि, भय, प्रसन्नता, दुख, तथा आश्चर्य। इजार्ड (Izard) ने दस मूल संवेगों का एक समुच्चय प्रस्तुत किया है; ये हैं - हर्ष, आश्चर्य, क्रोध, विरुचि, अवमान, भय, शर्म, अपराध, अभिरुचि तथा उत्तेजना। इनकी संयुक्तियाँ अन्य प्रकार के संवेग उत्पन्न करती हैं। प्लुचिक (Plutchik) के अनुसार, आठ मूल या प्राथमिक संवेग होते हैं। अन्य सभी संवेग इन्हीं मूल संवेगों के विभिन्न मिश्रणों के ही परिणाम होते हैं। उन्होंने इन संवेगों को चार विरोधी युग्मों के रूप में प्रस्तुत किया है; ये हैं- हर्ष-विषाद; स्वीकृति-विरुचि; भय-क्रोध; तथा आश्चर्य-पूर्वाभास।

संवेगों में तीव्रता (उच्च, निम्न) तथा गुणों (प्रसन्नता, दुख, भय) के आधार पर अंतर होता है। आत्मनिष्ठ कारक तथा स्थितिपरक संदर्भ संवेगों के अनुभव को प्रभावित करते हैं। ये कारक हैं - लिंग, व्यक्तित्व तथा कुछ प्रकार की मनोविकृतियाँ। साक्ष्य बताते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाएँ क्रोध के अतिरिक्त अन्य संवेगों का अधिक तीव्रता से अनुभव करती हैं। पुरुषों में क्रोध को अधिक तीव्रता तथा अधिक आवृत्ति में अनुभव करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इस लिंग-भेद को पुरुषों (स्पर्द्धात्मक) तथा महिलाओं (संबंधन एवं देखभाल) से जुड़ी सामाजिक भूमिकाओं पर आरोपित किया जाता है।

संवेगों की अभिव्यक्ति

क्या आपको यह ज्ञात हो जाता है कि कब आपका मित्र प्रसन्न होता है या दुखी या तटस्थ-सा होता है? क्या वह आपकी भावनाओं को समझ पाती/पाता है? संवेग एक आंतरिक अनुभूति होता है जिसका दूसरे सीधे प्रेक्षण नहीं कर सकते। संवेगों का अनुमान उनके वाचिक तथा अवाचिक अभिव्यक्तियों के द्वारा ही होता है। ये वाचिक तथा अवाचिक अभिव्यक्तियाँ संचार माध्यम का कार्य करती हैं तथा इनके द्वारा व्यक्ति अपने संवेगों की अभिव्यक्ति करने तथा दूसरों की अनुभूतियों को समझने में समर्थ होता है।

चित्र 8.4 : संवेगों की मुख द्वारा अभिव्यक्तियों के रेखाचित्र

संस्कृति एवं संवेगात्मक अभिव्यक्ति

संचार के वाचिक माध्यम में वाचिक शब्द तथा बोलने की दूसरी विशेषताएँ; जैसे- स्वरमान या पिच, तथा बोली का ऊँचापन सन्निहित हैं। भाषा की ये दूसरी अवाचिक विशेषताएँ तथा कालिक विशेषताएँ पराभाषीय कहलाती हैं। दूसरे अवाचिक माध्यमों में, चेहरे के हाव-भाव, गतिक (मुद्रा, भंगिमा तथा शरीर की गति) तथा समीपस्थ (आमने-सामने की अंत:क्रिया में भौतिक दूरी) व्यवहार भी निहित हैं। चेहरे के हाव-भावों से होने वाली अभिव्यक्ति सांवेगिक संचार का सबसे अधिक प्रचलित माध्यम है। चेहरा क्योंकि सबके समक्ष पूरी तरह अनावृत रहता है (चित्र 8.4 देखें), अतः चेहरे से अभिव्यक्त होने वाली सूचना का प्रकार तथा मात्रा आसानी से समझ में आ जाती है। व्यक्ति के संवेगों का सुखद या दुखद होना तथा उनकी तीव्रता चेहरे के हाव-भाव से आसानी से प्रकट हो जाती है। मुख की अभिव्यक्ति हमारे दैनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। डारविन (Darwin) के इस मत को पुष्ट करने वाले कुछ शोध प्रमाण प्राप्त होते हैं, जैसे कि मूल संवेगों (basic emotions) की मुख द्वारा अभिव्यक्ति (हर्ष, भय, क्रोध, विरुचि, दुख तथा आश्चर्य) जन्मजात तथा सार्वभौम होती है।

शारीरिक गति संवेगों के संचार को और भी सरल बना देती है। क्या आप अपनी शारीरिक गति में उस समय भिन्नता महसूस कर सकते हैं जब आप क्रुद्ध होते हैं या जब आप शर्मीलापन महसूस करते हैं। थियेटर तथा नाटक बहुत ही अच्छा अवसर, यह समझने के लिए प्रदान करते हैं कि संवेगों के संचार में शारीरिक गति का क्या प्रभाव होता है। चेष्टा तथा समीपस्थ व्यवहारों को भूमिका भी इस संबंध में महत्वपूर्ण है। आपने अवश्य देखा होगा कि भारतीय शास्त्रीय नृत्यों; जैसेभरतनाट्यम, ओडिसी, कुचीपुड़ी, कत्थक तथा अन्य, में भी आँखों, टाँगों तथा उँगलियों की क्रिया द्वारा कैसे संवेग अभिव्यक्त होते हैं। नृत्यांगनाओं/नर्तकों को हर्ष, दुख, प्रेम, क्रोध तथा अन्य प्रकार के संवेगों की अभिव्यक्ति के लिए शरीर की गति तथा अवाचिक संचार के नियमों का कठिन प्रशिक्षण दिया जाता है।

यह ज्ञात है कि संवेगों में अंतर्निहित प्रक्रियाएँ संस्कृति द्वारा प्रभावित होती हैं। टकटकी लगा कर देखने में भी सांस्कृतिक भिन्नताएँ पाई जाती हैं। यह भी देखा गया है कि लैटिन अमरीकी तथा दक्षिण यूरोपीय लोग अंतःक्रिया कर रहे व्यक्ति की आँखों में टकटकी लगा कर देखते हैं। जबकि एशियाई लोग, विशेषकर भारतीय तथा पाकिस्तानी मूल के लोग, किसी अंतःक्रिया के दौरान दृष्टि को परिधि (अंतःक्रिया करने वाले से दूर से दृष्टिपात) पर केंद्रित करते हैं।

संस्कृति एवं संवेगों का नामकरण

मूल संवेग, श्रेणीगत नामों या लेबल तथा विस्तारण में भी परस्पर भिन्न होते हैं। टाहिटी भाषा में अंग्रेजी के शब्द ‘क्रोध’ के लिए 46 लेबल या नाम हैं। जब उत्तरी अमरीकियों से मुक्त रूप से लेबल लगाने को कहा गया तो क्रोध अभिव्यक्त करने वाले चेहरे के लिए उन्होंने 40 लेबल दिए, तथा अवमानना अभिव्यक्त करने वाले चेहरे को देख कर 81 लेबल दिए। जापानियों ने विभिन्न संवेग अभिव्यक्त करने वाले चेहरों को देखकर भिन्न-भिन्न लेबल प्रस्तुत किए। प्रसन्नता अभिव्यक्त करने वाले चेहरे को देखकर ( 10 लेबल), क्रोध ( 8 लेबल), तथा घृणा ( 6 लेबल) के लिए लेबल की मात्रा अलग-अलग थी। प्राचीन चीनी साहित्य में सात संवेगों का उल्लेख है, जिनके नाम हैं - हर्ष, क्रोध, दुख, भय, प्रेम, नापसंद तथा पसंद। प्राचीन भारतीय साहित्य में आठ प्रकार के संवेगों को चिह्नित किया गया है, जिनके नाम हैं - प्रेम, आमोद-प्रमोद, ऊर्जा, आश्चर्य, क्रोध, शोक, घृणा, तथा भय। पाश्चात्य साहित्य में कुछ संवेग; जैसे - प्रसन्नता, दुख, भय, क्रोध तथा घृणा को एकसमान रूप से मनुष्यों के लिए मूल समझा जाता है। जबकि कुछ अन्य संवेग; जैसे- आश्चर्य, अवमानना, शर्म तथा अपराध बोध को सबके लिए मूल नहीं समझा जाता है।

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि कुछ मूल संवेग, सभी लोगों द्वारा अभिव्यक्त किए जाते और समझे जाते हैं चाहे उनमें नृजाति या संस्कृति के आधार पर कितने भी अंतर हों तथा कुछ संवेग किसी संस्कृति विशेष के लिए विशिष्ट होते हैं। यह याद रखना आवश्यक है कि संवेगों की सभी प्रक्रियाओं में संस्कृति की विशेष भूमिका है। संवेगों की अभिव्यक्ति तथा अनुभूति दोनों ही संस्कृति विशेष के ‘प्रदर्शन नियमों’ के द्वारा प्रभावित होती हैं जो कि उनकी मध्यस्थता एवं रूपांतरण दोनों करती हैं। अर्थात उन दशाओं की सीमा तय करती हैं जिनमें संवेगों की अभिव्यक्ति की जा सकती है तथा जितनी तीव्रता से वे प्रदर्शित किए जाते हैं।

निषेधात्मक संवेगों का प्रबंधन

कोई ऐसा दिन जीने का प्रयास कीजिए जब आपने किसी संवेग का अनुभव न किया हो। आप शीघ्र ही समझ जाएँगे कि ऐसे जीवन की कल्पना करना ही कठिन है जिसमें संवेग न हों। संवेग हमारे दैनिक जीवन तथा अस्तित्व के अंश हैं। वे हमारे जीवन के ताने-बाने तथा अंतर्वैयक्तिक संबंधों को बनाते हैं। आधुनिक काल में सफल संवेग प्रबंधन ही प्रभावी सामाजिक प्रबंधन की कुंजी है। निम्नलिखित युक्तियाँ सम्भवत: संवेगों के वांछित संतुलन बनाए रखने के लिए उपयोगी सिद्ध होंगी।

  • आत्म-जागरूकता को बढ़ाइए : अपने संवेगों और अनुभूतियों को जानिए, उनके प्रति जागरूक होइए। अपनी अनुभूतियों के ‘क्यों’ तथा ‘कैसे’ के बारे में अंतर्दृष्टि विकसित कीजिए।
  • परिस्थिति का वास्तविकता पूर्ण आकलन कीजिए : यह मत प्रतिपादित किया गया है कि संवेग के पूर्व घटना का मूल्यांकन किया जाता है। यदि घटना का अनुभव बाधा पहुँचाने वाला होता है, तो आपका अनुकंपी तंत्रिका-तंत्र उद्वेलित हो जाता है तथा आप दबाव का अनुभव करने लगते हैं। यदि आप घटना का अनुभव बाधा पहुँचाने वाले के रूप में नहीं करते तो कोई दबाव भी नहीं होता। अतः वस्तुतः आप ही यह निर्णय करते हैं कि दुखी और दुश्चितित अनुभव करें या प्रसन्न और शांत।
  • आत्म-परिवीक्षण कीजिए : इसके अंतर्गत, सतत या समय-समय पर अपनी पूर्व उपलब्धियों, संवेगात्मक और शारीरिक दशा, तथा वास्तविक एवं प्रतिस्थानिक अनुभवों का मूल्यांकन शामिल है। एक सकारात्मक मूल्यांकन आपके स्वयं पर विश्वास की वृद्धि करेगा तथा कल्याण एवं संतोष की भावना बढ़ाएगा।
  • आत्म-प्रतिरूपण का निर्माण कीजिए : स्वयं अपना आदर्श बनिए। अपने पुराने अच्छे निष्पादन का बार-बार प्रेक्षण कीजिए तथा उनका उपयोग भविष्य के लिए प्रेरणा और अभिप्रेरणा के रूप में और भी बेहतर निष्पादन के लिए कीजिए।
  • प्रात्यक्षिक पुनर्व्यवस्था तथा संज्ञानात्मक पुर्रचना : घटनाओं के दूसरे पहलू का निरीक्षण कीजिए तथा सिक्के के दूसरे पहलू पर भी ध्यान दीजिए। अपने विचारों का पुर्गठन, विध्यात्मक तथा संतोष प्रदान करने वाली अनुभूतियों में वृद्धि करने तथा निषेधात्मक विचारों का परिहार करने के लिए कीजिए।
  • सर्जनात्मक बनिए : कोई रुचि या शौक विकसित कीजिए। किसी ऐसी क्रिया, जो आपकी रुचि की है तथा आपका मनोरंजन करती है, में भाग लीजिए।
  • अच्छे संबंधों को विकसित कीजिए तथा पोषण कीजिए : अपने मित्रों का चयन संभाल कर कीजिए। यदि आपके मित्र प्रसन्न और हर्षित होंगे तो उनके साथ सामान्यतः आप भी प्रसन्न रहेंगे।
  • तदनुभूति रखिए : दूसरों की भावनाओं को समझने का प्रयास कीजिए। अपने संबंधों को अर्थपूर्ण तथा मूल्यवान बनाइए। पारस्परिक रूप से सहायता माँग भी लीजिए और दीजिए भी।
  • सामुदायिक सेवा में भागीदारी कीजिए : दूसरों की सहायता करके अपनी सहायता कीजिए। सामुदायिक सेवा (उदाहरण के लिए, किसी बौद्धिक रूप से चुनौतीपूर्ण बालक को कोई अनुकूली कौशल सीखने में सहायता

बॉक्स 8.1 अभिघातज उत्तर दबाव विकार

कोई आपदा, मानव समाज की क्रियाओं में गभीरर व्यवधान उत्पन्न कर देती है जिससे विस्तृत भौतिक एवं पर्यावरणी नुकसान होता है, इसकी भरपाई उपलब्ध संसाधनों से तत्काल संभव नहीं होती। यह आपदा प्राकृतिक (जैसे- भूकंप/तूफान/सुनामी) हो सकती है, या मनुष्य-निर्मित (जैसे- युद्ध) हो सकती है। इन आपदाओं में व्यक्ति जो मानसिक अभिघात अनुभव करता है वह केवल उनके प्रत्यक्षण से लेकर उनका सामना करने तक कुछ भी हो सकता है, जो जीवन के अस्तित्व के लिए भी खतरा उत्पन्न कर सकता है। इनमें से कोई भी दशा अभिघातज उत्तर दबाव विकार उत्पन्न कर सकती है, जहाँ व्यक्ति उन अभिघात पहुँचाने वाले अनुभवों को बारंबार अनैच्छिक रूप से सोचता है, वे पूर्व दृश्य बार-बार उसके मन में कौंध जाते हैं तथा काफी समय बीत जाने पर भी उस घटना से संबंधित विचार उसे भयंकर रूप से ग्रस्त किए रहते हैं। यह स्थिति व्यक्ति को सांवेगिक रूप से व्याकुल करती रहती है तथा व्यक्ति दैनिक जीवन को नियमित क्रियाओं के लिए उपयुक्त साधक युक्तियाँ विकसित नहीं कर पाता। विशिष्ट एवं पहचाने जा सकने वाले कुसमायोजित व्यवहारों (जैसे- अवसाद) तथा स्वायत्त उद्वेलन के स्वरूप में संवेग प्रकट होते हैं।

कीजिए) करने से आपको अपनी कठिनाइयों के विषय में महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्राप्त होगी।

आपके क्रोध का प्रबंधन

क्रोध एक निषेधात्मक संवेग है। यह मन को कहीं और खींच ले जाता है, या दूसरे शब्दों में क्रोध की दशा में व्यक्ति का नियंत्रण अपने व्यवहारात्मक कार्यों पर नहीं रहता। क्रोध का प्रमुख स्रोत अभिप्रेरकों का कुंठित होना है। किंतु, क्रोध कोई प्रतिवर्त नहीं है, बल्कि यह हमारी सोच का परिणाम है। न तो यह स्वचालित है और न ही नियंत्रण के परे है, और न ही यह दूसरों के द्वारा उत्पन्न होता है। यह व्यक्ति के द्वारा चयनित विकल्प के द्वारा उत्पन्न होता है, क्योंकि क्रोध आपके अपने

बॉक्स 8.2 परीक्षा-दुश्चिता का प्रबंधन

हममें से अधिकांश लोगों को परीक्षा के निकट आने पर पेट में मंथन तथा दुश्चितता का अनुभव होने लगता है। वस्तुतः अधिकांश व्यक्तियों के लिए कोई भी वह परिस्थिति जहाँ उन्हें निष्पादन करना है तथा उन्हें ज्ञात है कि उनके निष्पादन का मूल्यांकन किया जाना है, एक दुश्चिता उत्पन्न करने वाली परिस्थिति होती है। एक स्तर तक तो दुश्चिता का होना आवश्यक है क्योंकि वह हमें अभिप्रोरित करती है कि हम अपना सर्वोत्तम निष्पादन करें किंतु दुश्चिता का उच्च स्तर इष्टतम निष्पादन तथा उपलब्धि में बाधक होता है। दुर्शितित व्यक्ति, शारीरिक एवं संवंगात्मक रूप से प्रबल रूप से उद्वेलित होता है और इसीलिए अपनी योग्यता के उच्चतम स्तर पर निष्पादन नहों कर पाता।

परीक्षा एक दबाव जनित करने को संभावना वाली परिस्थिति है तथा दूसरी दबावमय परिस्थितियों की तरह उसका सामना दो प्रकार को युक्तियों द्वारा किया जा सकता है, परिवीक्षण अथवा प्रभावोत्पादक क्रिया तथा भोथरा या कुंद हो जाना या परिस्थिति से पलायन।

परिवीक्षण या मॉनीटरिंग के अंत्गत दबावमय स्थिति से निपटारा करने के लिए सीधे तथा प्रभावो क्रिया की आवश्यकता होती है। निम्नलिखित युक्तियों के द्वारा परिवीक्षण किया जा सकता है :

  • अच्छी तैयारी : परीक्षा की अच्छी तैयारी कीजिए तथा समय से पूर्व तैयारी कीजिए। अपने आपको पर्याप्त समय दीजिए। अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों तथा प्रश्न-पत्रों के स्वरूप से परिचित हो जाइए। इससे आपको नियंत्रण एवं पूर्वानुमान का बोध होगा तथा परीक्षा के कारण दबाव की संभाव्यता में कमी आएगी।
  • पूर्वाभ्यास कीजिए : आप स्वयं एक बनावटी परीक्षा दीजिए। अपने मित्र से कहिए कि वह आपके ज्ञान को परीक्षा लो। आप मानसिक रूप से कल्पना में भी पूर्वाभ्यास कर सकते हैं। कल्पना में अपने आपको पूरी तरह शांत होकर एवं विश्वास से भर कर परीक्षा देते हुए देखिए तथा फिर कल्पना कीजिए कि आप उत्तम श्रेणी से सफल हुए हैं।
  • प्रतिरोधक टीका लगाना : दबाव के लिए अपना टीकाकरण कीजिए। पूर्वाभ्यास तथा भूमिका निर्वहन के द्वारा आप परीक्षा की परिस्थिति का सामना करने के लिए शारीरिक तथा मानसिक रूप से अधिक तैयार हो सकते हैं तथा उसका सामना अधिक विश्वास के साथ कर सकते हैं।
  • सकारात्मक चिंतन : अपने आप पर भरोसा कीजिए। अपने विचारों को व्यवस्थित कीजिए। उन विचारों को, जो आपको चिंतित करते हैं क्रमवार व्यवस्थित कीजिए और फिर एक-एक करके उनका समाधान कीजिए। अपनी प्रबलताओं और क्षमताओं पर अधिक ज़ोर दीजिए। अपने आपको विध्यात्मक सोच और उत्साह बनाए रखने के लिए प्रेरित कीजिए।
  • आलंब (सहारा) ढूँढ़़िए : अपने मित्रों, माता-पिता, शिक्षकों या अपने से वरिष्ठ जनों से सहायता माँगने में मत हिचकिचाइए। अपने किसी निकट व्यक्ति के साथ दबावमय परिस्थिति के विषय में बातचीत करने से बोझ हलका लगने लगता है तथा व्यक्ति को अंतर्दृष्टि विकसित करने में सहायता मिलती है। हो सकता है परिस्थिति उतनी खराब न हो जितनी प्रतीत हो रही थी।

दूसरी ओर, भोथरो करने वाली युक्तियों में पलायन पर बल रहता है। यह सही है कि परीक्षा को स्थिति में न तो पलायन वांछनीय है, न संभव ही है, फिर भी निम्नलिखित युक्तियाँ उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं:

  • विश्राम करिए : शिथिल होकर विश्राम करना सीखिए। विश्राम को तकनीकें आपको शांत करती हैं तथा अपने विचारों को पुन:गठित करने का अवसर प्रदान करती हैं। विश्राम की कई तकनीकें हैं। सामान्यत: इसके अंर्गत किसी शांत जगह में आराम से बैठना या लेटना होता है, मांसपेशियों को ढीला छोड़ कर, बाह्य उत्तेजनाओं को कम करते हुए तथा विचार शृंखला को भी कम करते हुए फोकस करना होता है।
  • व्यायाम : दबावमय स्थिति अनुकंपी तंत्रिका तंत्र को अति उत्तेजित कर देती है। इसके द्वारा उत्पन्न ऊर्जा को व्यायाम द्वारा दूसरे माध्यम की ओर मोड़ा जा सकता है। कुछ अवधि का हलका व्यायाम या खेल आपको अपना ध्यान अपनी पढ़ाई पर केंद्रित करने में सहायता देगा।

क्रियाकलाप 8.2

निकट समय में आपने जो तीव्र संवेगात्मक अनुभव किया हो उसके बारे में सोचिए तथा घटनाक्रम की व्याख्या कीजिए। आपने उसका निस्तारण कैसे किया? अपनी कक्षा में उसकी चर्चा कीजिए।

चिंतन के द्वारा उत्पन्न होता है इसलिए उसका नियंत्रण भी आपके विचारों के द्वारा ही किया जा सकता है। क्रोध प्रबंधन में कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं :

  • अपने विचारों की शक्ति को पहचानें।
  • जान लीजिए कि आप, अकेले आप ही इसे नियंत्रित कर सकते हैं।
  • ऐसा ‘आत्म-संवाद’ ना कीजिए जो आपको जला कर रख दे। निषेधात्मक भावनाओं को बढ़ा कर अतिरंजित मत कीजिए।
  • दूसरों के व्यवहारों के पीछे इरादों तथा गुप्त अभिप्रेरकों का आरोपण मत कीजिए।
  • दूसरे व्यक्तियों तथा घटनाओं के संबंध में अतार्किक विश्वासों को मत पनपने दीजिए।
  • अपने क्रोध को व्यक्त करने के लिए रचनात्मक तरीके ढूँढ़िए। अपने क्रोध की अभिव्यक्ति की मात्रा तथा अवधि को नियंत्रित कीजिए।
  • क्रोध के नियंत्रण के लिए अपने भीतर झाँकिए न कि बाहर।
  • परिवर्तन लाने के लिए स्वयं को समय दीजिए। किसी आदत में परिवर्तन लाने में प्रयास और समय लगाना पड़ता है।

विध्यात्मक संवेगों में वृद्धि

हमारे संवेगों का एक उद्देश्य होता है। वे हमें निरंतर परिवर्तनशील पर्यावरण के साथ अनुकूलन करने में सहायता करते हैं तथा उनका महत्त्व हमारे अस्तित्व तथा कल्याण के लिए है। निषेधात्मक संवेग; जैसे- भय, क्रोध या विरुचि हमें मानसिक तथा शारीरिक रूप से ऐसे उद्दीपक जो चुनौतीपूर्ण हैं, के प्रति तत्काल क्रिया करने के लिए तैयार करते हैं। उदाहरण के लिए, यदि भय न होता तो हम विषधारी सर्प को हाथ में पकड़ लेते। यद्यपि निषेधात्मक संवेग इस प्रकार की परिस्थितियों में हमें सुरक्षा प्रदान करते हैं, किंतु ऐसे संवेगों का अत्यधिक अथवा अनुप्रयुक्त उपयोग हमारे जीवन के लिए संकट उत्पन्न कर सकता है, क्योंकि यह हमारी प्रतिरोधक प्रणाली को क्षति पहुँचा सकता है तथा हमारे स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हो सकता है।

विध्यात्मक संवेग; जैसे- भरोसा, हर्ष, आशावाद, संतोष, और आभार हमें ऊर्जा प्रदान करते हैं तथा हमारे भीतर संवेगात्मक कल्याण के भाव को जगाते हैं। जब हम विध्यात्मक संवेगों का अनुभव करते हैं तब हम विविध प्रकार के विचारों तथा संक्रियाओं के लिए स्वीकारोक्ति प्रदर्शित करते हैं। जो भी समस्याएँ हमारे समक्ष हों उनसे निपटने के लिए हम अधिक संभाव्यताओं तथा विकल्पों को सोच सकते हैं, इस प्रकार हम अग्रलक्षी हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने पाया है कि जिन लोगों को क्रोध तथा भय उत्पन्न करने वाली फिल्में दिखाई गईं, उनकी अपेक्षा उन व्यक्तियों ने, जिन्हें हर्ष एवं संतोष प्रदर्शित करने वाली फिल्में दिखाई गईं, ऐसे कार्यों के बारे में अधिक विचार अभिव्यक्त किए जिन्हें वे कार्यरूप देना चाहेंगे। विध्यात्मक संवेग हमें प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने तथा जल्दी से सामान्य स्थिति में लौटने के लिए अधिक योग्यता प्रदान करते हैं। वे हमारी दीर्घ-कालिक योजनाएँ तथा लक्ष्य निर्धारित करने में तथा नए संबंधों का निर्माण करने में सहायता करते हैं। विध्यात्मक संवेगों में वृद्धि के लिए कुछ उपाय आगे दिए गए हैं।

  • व्यक्तित्व विशेष गुण; जैसे- आशावाद, भरोसा करना, प्रसन्नता, तथा विध्यात्मक आत्ममान।
  • भयंकर परिस्थितियों में भी विध्यात्मक अर्थ खोजना।
  • दूसरों के साथ उत्कृष्ट संबंध तथा निकट संबंधों का समर्थक जाल या नेटवर्क रखना।
  • काम-काज तथा प्रवीणता उपलब्ध करने में व्यस्त रहना
  • विश्वास जिसमें सामाजिक आलंब, उद्देश्य तथा आशा, और उद्देश्यपूर्ण जीवनयापन सम्मिलित हो।
  • अधिकांश दैनिक घटनाओं की विध्यात्मक व्याख्याएँ

प्रमुख पद

दुश्चिता, उद्बेलन, मूल संवेग, जैविक आवश्यकताएँ ( भूख, प्यास, काम), सम्मान संबंधी आवश्यकताएँ, परीक्षा-दुश्चिता, संवेगों की अभिव्यक्ति, आवश्यकताओं का पदनुक्रम, अभिफेर्रणा, अभिप्रेरक, आवश्यकता, शक्ति अभिप्रेरक, मनोसामाजिक अभिप्रेरक, आत्मसिद्धि, आत्म-सम्मान।

सारांश

  • किसी विशेष लक्ष्य की ओर निर्दिष्ट सतत व्यवहार की प्रक्रिया, जो किन्हों अंत्नोद शक्तियों का नतीजा होती है, को अभिप्रेरणा कहते हैं।
  • अभिप्रेणाएँ दो प्रकार को होती हैं - जैविक तथा मनोसामाजिक।
  • जैविक अभिप्रेरेणा में फोकस, अभिप्रेरा के सहज या जन्मजात, जैविक कारकों; जैसे- हार्मोन, तंत्रिका-संचारक, मस्तिष्क संरचना अधश्चेतक, उपवल्कुटीय तंत्र इत्यादि पर केंद्रित होता है। जैविक अभिप्रेरणा के उदाहरण हैं, भूख, प्यास तथा काम।
  • मनोसामाजिक अभिप्रेरणा उन अभिप्रेरों की व्याख्या करती है जो प्रमुखतः व्यक्ति के उसके सामाजिक पर्यावरण के साथ अंतःक्रिया के परिणामस्वरूप विकसित होते हैं। मनोसामाजिक अभिप्रेरकों के उदाहरण, संबंधन की आवश्यकता, उपलब्धि की आवश्यकता, जिज्ञासा एवं अन्वेषण, तथा शक्ति की आवश्यकता हैं।
  • मैस्लो ने विभिन्न मानव आवश्यकताओं को आरोही पदानुक्रम में व्यवस्थित किया है, जो मूल शररीरक्रिात्मक आवश्यकताओं से प्रारंभ होकर, फिर सुरक्षा की आवश्यकताएँ, प्रेम तथा आत्मीयता की आवश्यकताएँ, सम्मान की आवश्यकताएँ और अंत में सबसे ऊपर आत्म-सिद्धि की आवश्यकताओं तक विस्तृत हैं।
  • संवेग उद्वेलन का एक जटिल स्वरूप है जिसमें शरररक्रियात्मक सक्रियकरण, अनुभूतियों के प्रति चेतन जागरूकता, तथा एक विशिष्ट संज्ञातात्मक लेबल जो इस प्रक्रिया को व्याख्या करते हैं, अंतर्निहित हैं।
  • कुछ संवेग मूल होते हैं; जैसे- हर्ष, क्रोध, दु:ख, आश्चर्य, भय आदि। दूसरे संवेगों का अनुभव इन संवेगों के संयोजन के कारण होता है।
  • संवंगों की अभिव्यक्ति तथा व्याख्या में संस्कृति पूरी शक्ति से प्रभाव डालती है।
  • संवेग वाचिक और अवाचिक माध्यमों से अभिव्यक्त होते हैं।
  • शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक कल्याण के लिए संवेगों का सफल प्रवंधन महत्वपूर्ण है।

समीक्षात्मक प्रश्न

1. अभिप्रेरणा के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।

2. भूख तथा प्यास की आवश्यकताओं के जैविक आधार क्या हैं?

3. किशोरों के व्यवहारों को उपलब्धि, संबंधन तथा शक्ति की आवश्यकताएँ कैसे प्रभावित करती हैं? उदाहरणों के साथ समझाइए।

4. मैस्लो के आवश्यकता पदानुक्रम के पीछे प्राथमिक विचार क्या हैं? उपयुक्त उदाहरणों की सहायता से व्याख्या कीजिए।

5. संस्कृति संवेगों की अभिव्यक्ति को कैसे प्रभावित करती है?

6. निषेधात्मक संवेगों का प्रबंधन क्यों महत्वपूर्ण है? निषेधात्मक संवेगों के प्रबंधन हेतु उपाय सुझाइए।

परियोजना विचार

1. मैस्लो के आवश्यकता पदानुक्रम का उपयोग करते हुए विश्लेषण कीजिए कि महान गणितज्ञ एस.ए. रामानुजन तथा महान संगीताचार्य शहनाई वादक उस्ताद बिसमिल्लाह खान (भारत रत्न) को अपने-अपने क्षेत्रों में अति विशिष्ट निष्पादन के लिए किस प्रकार की अभिप्रेरक शक्तियों ने अभिप्रेरित किया होगा। अब अपने आपको तथा पाँच अन्य प्रसिद्ध व्यक्तियों को आवश्यकता संतुष्टि की परिस्थिति में रखिए। चिंतन और चर्चा कीजिए।

2. बहुत से घरों में लोग बिना नहाए भोजन नहीं करते तथा धार्मिक व्रत रखते हैं। आपकी भूख तथा प्यास की अभिव्यक्ति को विभिन्न सामाजिक रीतिरिवाजों ने कैसे प्रभावित किया है? विभिन्न पृष्ठभूमि के पाँच लोगों पर सर्वेक्षण करके एक रिपोर्ट तैयार कीजिए।



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