अध्याय 04 संस्कृति तथा समाजीकरण

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परिचय

‘समाज’ की तरह ‘संस्कृति’ शब्द को भी बार-बार तथा कभी-कभी अस्पष्ट ढंग से प्रयोग किया जाता है। इस अध्याय में इसे स्पष्ट रूप से परिभाषित करने तथा इसके विभिन्न पक्षों का मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है। रोज़मर्रा की बातों में संस्कृति कला तक सीमित है अथवा कुछ वर्गों या यहाँ तक कि देशों की जीवन शैली की तरफ संकेत करती है। समाजशास्त्रीय एवं मानवविज्ञानी उन सामाजिक संदर्भों का अध्ययन करते हैं जिनमें संस्कृति विद्यमान है। वे संस्कृति को अलग से लेकर इसके विभिन्न पक्षों के बीच संबंधों को जानने का प्रयास करते हैं।

जिस प्रकार से आपको अनजानी जगह या प्रदेश का पता लगाने के लिए एक मानचित्र की आवश्यकता होती है, उसी तरह से समाज में व्यवहार करने के लिए आपको संस्कृति की आवश्यकता होती है। संस्कृति एक सामान्य

क्रियाकलाप-1

आप किसी अन्य व्यक्ति का अपनी ‘संस्कृति’ में कैसे अभिवादन करेंगे? क्या आप विभिन्न व्यक्तियों (मित्रों, बुज़ुर्ग संबंधियों, विपरीत लिंगी, अन्य समूहों के व्यक्तियों)का विभिन्न प्रकार से अभिवादन करेंगे? अपने किसी अटपटे अनुभव की चर्चा कीजिए, जब आप नहीं जानते थे कि किसी व्यक्ति का अभिवादन किस प्रकार किया जाए। क्या यह इसलिए हुआ क्योंकि आप साझी ‘संस्कृति’ को नहीं बाँटते थे? परंतु अगली बार आपको पता होगा कि आपको क्या करना है। इस तरह आपका संस्कृति संबंधी ज्ञान बढ़ता है तथा स्वयं पुनः व्यवस्थित होता है।

समझ है जिसको समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ सामाजिक अंतःक्रिया के माध्यम से सीखा तथा विकसित किया जाता है। किसी भी समूह की आपसी सामान्य समझ इसे अन्य से अलग करती है तथा इसे एक पहचान प्रदान करती है। लेकिन संस्कृति कभी भी परिष्कृत उत्पाद नहीं

होती। ये सदा परिवर्तनशील तथा विकसित होती रहती है। इसके तत्त्व लगातार जुड़ते, घटते, विस्तारित, संकुचित तथा पुनःव्यवस्थित होते रहते हैं। इसके फलस्वरूप संस्कृतियाँ प्रकार्यात्मक इकाई के रूप में गतिशील रहती हैं।

व्यक्तियों की अन्य व्यक्तियों के साथ सामान्य समझ विकसित करने तथा विभिन्न चिह्नों तथा संकेतों से वही अर्थ ग्रहण करने की क्षमता ही मानव को अन्य प्राणियों से अलग करती है। अर्थ का सृजन सामाजिक सद्गुण है जिसे हम परिवारों, समूहों तथा समुदायों में अन्य व्यक्तियों के साथ रहकर सीखते हैं। हम परिवार के सदस्यों, मित्रों तथा साथियों के साथ विभिन्न सामाजिक परिवेशों में अंतःक्रिया द्वारा विभिन्न साधनों तथा तकनीकों के साथ-साथ अभौतिक चिह्नों तथा संकेतों का प्रयोग करना सीखते हैं। इसमें से अधिकांश ज्ञान की जानकारी हमें व्यवस्थित ढंग से मौखिक रूप से या किताबों के माध्यम से प्राप्त होती है।

उदाहरण के लिए नीचे दी गई अंतःक्रिया पर ध्यान दें। ध्यान दें कि कैसे शब्द तथा चेहरे के हाव-भाव बातचीत में अर्थ संप्रेषित करते हैं। इस सीखने की प्रक्रिया से हमें समाज में अपनी भूमिका तथा उत्तरदायित्वों को पूरा करने में सहायता मिलती है। आप पहले ही प्रस्थिति एवं भूमिकाओं के बारे में जान चुके हैं। परिवार में हम प्रारंभिक समाजीकरण को सीखते हैं। जबकि स्कूल तथा अन्य संस्थाओं में द्वितीयक समाजीकरण होता है। इस बारे में हम इस अध्याय में विस्तार से चर्चा करेंगे।

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विविध परिवेश, विभिन्न संस्कृतियाँ

मनुष्य विभिन्न प्राकृतिक परिवेशों जैसे पहाड़ों तथा मैदानों, जंगलों तथा स्वच्छ स्थलों, रेगिस्तानों तथा नदी घाटियों, द्वीपों तथा मुख्य भूमि में रहते हैं। वह विभिन्न सामाजिक स्थानों जैसे कि गाँवों, कस्बों तथा शहरों में भी रहते हैं। विभिन्न वातावरणों में, प्राकृतिक तथा सामाजिक स्थितियों का सामना करने के लिए, व्यक्ति विभिन्न नीतियाँ अपनाते हैं। इससे जीवन जीने के विभिन्न तरीकों या संस्कृतियों का विकास होता है।

यात्री ने आटोचालक से पूछा : “इंदिरानगर”? यहाँ वह क्रिया जिससे प्रश्न का अर्थ संप्रेषित होता है वह आँखो के संकेत में निहित है-’ बारथीरा’? या “ क्या आप चलेंगे?"- यदि प्रश्न का उत्तर ‘हाँ’ हुआ तो चालक अपना सिर पिछली सीट की ओर हिला देगा। यदि उत्तर ‘ना’ हुआ (जैसा कि अकसर होता है और प्रत्येक बैंगलोरवासी जानता है) तो वह चला जाएगा या वह मुँह बनाएगा जैसेकि उसने कोई गलत शब्द सुन लिया हो या मुसकराहट के साथ सिर हिलाएगा जैसेकि वह ‘खेद’ व्यक्त कर रहा हो, यह उस क्षण की स्थिति के अनुसार होगा।

चर्चा कीजिए कि प्राकृतिक परिवेश संस्कृति को कैसे प्रभावित करता है ( प्रकृति के अनुरूप यातायात के साधन)

भारत में तमिलनाडु तथा केरल के समुद्री किनारे के साथ-साथ अंडमान तथा निकोबार द्वीपसमूह के कुछ भागों को प्रभावित करने वाले 26 दिसंबर, 2004 को आए सुनामी के विध्वंस के दौरान अपनाई गई सुरक्षा की तकनीकों में विषमताएँ इसका प्रमाण थीं। मुख्य भूमि तथा द्वीपों के लोग अपेक्षाकृत आधुनिक जीवन शैली अपना रहे हैं। इन द्वीपों के मछुआरे तथा सेवा कार्मिक सचेत नहीं थे तथा इन्होंने अत्यधिक विध्वंस को सहन किया है और इसमें अनेक लोगों ने जानें गवाईं। दूसरी ओर द्वीपों में रहने वाली ‘आदिम’ जनजातियों ने जैसेकि ओंगें, जारवा, ग्रेट अंडमानी और शोंपेन जिनकी आधुनिक विज्ञान तथा तकनीक तक पहुँच नहीं है, अपनी अनुभवी जानकारी के आधार पर आपदा का पूर्वानुमान लगा लिया तथा ऊँचाई वाले स्थानों पर जाकर अपना बचाव कर लिया। इससे पता चलता है कि आधुनिक विज्ञान तथा तकनीक तक पहुँच होने से आधुनिक संस्कृति द्वीपों में रहने वाली जनजातियों की संस्कृति से बेहतर नहीं हो जाती। अतः संस्कृतियों को श्रेणीबद्ध नहीं किया जा सकता परंतु प्रकृति द्वारा आरोपित दबावों का सामना करने की इसकी पर्याप्त या

क्रियाकलाप-2

अपने क्षेत्र के अतिरिक्त कम-से-कम किसी एक क्षेत्र के बारे में पता लगाएँ कि प्राकृतिक वातावरण खाने-पीने की आदतों, निवास के प्रतिमान, कपड़ों तथा देवी-देवताओं की पूजा करने के तरीकों को कैसे प्रभावित करता है?

अपर्याप्त योग्यता के आधार पर इन्हें जाँचा ज़रूर जा सकता है।

संस्कृति की परिभाषा

सामान्यतया ‘संस्कृति’ शब्द का प्रयोग शास्त्रीय संगीत, नृत्य तथा चित्रकला में परिष्कृत रुचि का ज्ञान प्राप्त करने के संदर्भ में किया जाता है। यह परिष्कृत रुचि लोगों को ‘असांस्कृतिक’ आम व्यक्तियों से अलग करने के लिए रखी गई थी। जैसाकि आजकल हम देखते हैं कि हम स्वयं चाय के स्थान पर कॉफी को प्राथमिकता देते हैं।

क्रियाकलाप- 3

भारतीय भाषाओं में संस्कृति शब्द के समतुल्य शब्दों की पहचान कीजिए। वे किस प्रकार से संबंधित हैं?

इसके विपरीत समाजशास्त्री संस्कृति को व्यक्तियों में विभेद करने वाला साधन नहीं मानते, परंतु जीवन जीने का एक तरीका मानते हैं जिसमें समाज के सभी सदस्य भाग लेते हैं। प्रत्येक सामाजिक संस्था अपनी स्वयं की संस्कृति का विकास करती है। अंग्रेज़ विद्वान एडवर्ड टायलर संस्कृति की एक पूर्व मानवविज्ञानीय परिभाषा देते हैं: ‘संस्कृति या सभ्यता अपने व्यापक नृजातीय अर्थ में एक जटिल समग्र है जिसमें ज्ञान, आस्था, कला, नैतिकता, कानून, प्रथा तथा मनुष्य के समाज के सदस्य के रूप में होने के फलस्वरूप प्राप्त अन्य क्षमताएँ तथा आदतें शामिल हैं’ (टायलर 1871:1)।

चर्चा कीजिए कि यह चित्र किस तरह की जीवन शैली को दर्शाता है

मानवविज्ञान के ‘प्रकार्यात्मक स्कूल’ के संस्थापक पोलैंड के ब्रोनिसला मैलिनोवस्की (1884-1942) ने दो पीढ़ियों के बाद लिखा’संस्कृति में उत्तराधिकार में प्राप्त कलाकृतियाँ, वस्तुएँ, तकनीकी प्रक्रिया, विचार, आदतें तथा मूल्य शामिल हैं’ ( मैलिनोवस्की 1931:621-46)।

क्लिफोर्ड ग्रीट्ज़ ने सुझाव दिया था कि हम मानवीय क्रियाओं को पुस्तक में दिए गए शब्दों की तरह देखते हैं तथा उन्हें संदेश का संप्रेषण करते हुए देखते है। ‘…मानव एक प्राणी है जो अपने स्वयं के बुने हुए महत्त्वाकांक्षाओं के जाल में फँसा हुआ है। मैं संस्कृति को यही जाल मानता हूँ..’। हमारी खोज किसी आकस्मिक व्याख्या के लिए नहीं है, परंतु एक ऐसी व्याख्यात्मक परिभाषा के लिए है, जिसका अर्थ निकलता है (ग्रीट्ज़ 1973:5)। इसी तरह लेसली व्हाइट ने संस्कृति को वस्तुनिष्ठ वास्तविकताओं को अर्थ देने वाले साधन के रूप में तुलनात्मक महत्त्व दिया है। इसके लिए उन्होंने किसी स्रोत विशेष के पानी को लोगों द्वारा पवित्र माने जाने का उदाहरण दिया है।

  • क्या आपने मैलिनोवस्की की परिभाषा में कोई ऐसी चीज़ देखी हैं जो टायलर की परिभाषा में नहीं है?

कला के अतिरिक्त टायलर द्वारा सूचीबद्ध की गई सभी वस्तुएँ अभौतिक हैं। इसका कारण यह नहीं है कि टायलर ने स्वयं कभी भी भौतिक संस्कृति पर ध्यान नहीं दिया। वास्तव में वह संग्रहालय के अध्यक्ष थे तथा मानवविज्ञान पर उनके अधिकांश लेख विश्व के विभिन्न समाजों की कलाकृतियों तथा औज़ारों की जाँच पड़ताल पर आधारित हैं जहाँ की उन्होंने कभी कोई यात्रा नहीं की थी। अब हम संस्कृति के बारे में उनकी परिभाषा को इसके अतिसूक्ष्म तथा अमूर्त आयामों पर आधारित एक प्रयास के रूप में देख सकते हैं ताकि उनके अध्ययन में शामिल समाजों के बारे में व्यापक समझ प्राप्त की जा सकें। मैलिनोवस्की प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पश्चिमी प्रशांत महासागर के एक द्वीप पर फँस गए थे तब उन्होंनें इस बात की खोज की कि जिस समाज का आप अध्ययन कर रहे हैं, वहाँ लंबी अवधि तक रहना कितना महत्त्वपूर्ण है। इसने आगे चलकर ‘क्षेत्रीय कार्य’ की परंपरा की स्थापना की जिसके बारे में आप अध्याय 5 में पढ़ेंगे।

मानवविज्ञानीय अध्ययनों में संस्कृति की बहुल परिभाषाओं ने अल्फ्रेड क्रोबर तथा क्लाएड क्लूखोन (संयुक्त राज्य के मानवविज्ञानी) को 1952 में एक व्यापक सर्वेक्षण कल्चर : ए क्रिटिकल रिव्यू ऑफ़ कांसेप्ट्स एंड डेफ़ीनिशंस

संस्कृति…

(क) सोचने, अनुभव करने तथा विश्वास करने का एक तरीका है।

(ख) लोगों के जीने का एक संपूर्ण तरीका है।

(ग) व्यवहार का सारांश है।

(घ) सीखा हुआ व्यवहार है।

(ड.) सीखी हुई चीज़ों का एक भंडार है।

(च) समाजिक धरोहर है जोकि व्यक्ति अपने समूह से प्राप्त करता है।

(छ) बार-बार घट रही समस्याओं के लिए मानकीकृत दिशाओं का एक समुच्चय है।

(ज) व्यवहार के मानकीय नियमितीकरण हेतु एक साधन है।

क्रियाकलाप-4

इन परिभाषाओं की तुलना करें ताकि आप इनमें से (या इनके एक मिश्रण) सबसे संतोषजनक परिभाषा का पता लगा सकें। ऐसा करने के लिए आप ‘संस्कृति’ शब्द के परिचित प्रयोगों की सूची (अट्ठारहवीं शताब्दी में लखनऊ की संस्कृति, अतिथि सत्कार की संस्कृति या सामान्यता प्रयुक्त शब्द ‘पाश्चात्य संस्कृति’) बना सकते हैं। इन परिभाषाओं में से कौन सी परिभाषाएँ इन प्रत्येक परिचित प्रयोगों के अर्थ को सबसे अच्छी तरह संप्रेषित करती हैं।

के प्रकाशन में मदद की। सर्वेक्षण में दी गई विभिन्न परिभाषाओं के कुछ प्रतिदर्श ऊपर दिए जा रहे हैं-

  • इन परिभाषाओं की तुलना यह देखने के लिए करें कि इनमें से कौन-सी परिभाषा या परिभाषाओं का समुच्चय आपको सबसे ज़्यादा संतोषजनक लगता है।

आप शायद सबसे पहले बार-बार प्रयुक्त शब्द-‘तरीका’, ‘सीखना’ तथा ‘व्यवहार’ को पाएँगे। हालाँकि यदि आप यहाँ ध्यान से देखेंगे कि प्रत्येक शब्द का प्रयोग कैसे किया है, तो अर्थों के बदलाव को पाएँगे। पहली परिभाषा मानसिक तरीकों की बात करती है जबकि दूसरी जीवन के संपूर्ण तरीके की बात करती है। (घ), (ड.) तथा (च) परिभाषाओं में संस्कृति के उस पक्ष पर बल दिया गया है, जो समूहों में तथा पीढ़ियों में आपस में बाँटी जाती है तथा हस्तांतरित होती रहती है। अंतिम दो परिभाषाओं में पहली बार संस्कृति को व्यवहार निर्देशित करने के साधन के रूप में दर्शाया गया है।

‘संस्कृति’ शब्द वाले उन वाक्यों की सूची बनाएँ जो आपने सुने हों। अपने मित्रों तथा परिवार से संस्कृति का अर्थ पूछिए। संस्कृतियों के बीच अंतर के लिए उनके मानंदड क्या है?

संस्कृति के आयाम

संस्कृति के तीन आयाम प्रचलित है-

(1) संज्ञानात्मक- इसका संदर्भ हमारे द्वारा देखे या सुने गए को, व्यवहार में लाकर उसे

अर्थ प्रदान करने की प्रक्रिया के सीखने से है। (अपने मोबाइल फोन की घंटी को पहचानना, किसी नेता के कार्टून की पहचान करना)।

(2) मानकीय- इसका संबंध आचरण के नियमों से है (अन्य व्यक्तियों के पत्रों को न खोलना, निधन पर अनुष्ठानों का निष्पादन)।

(3) भौतिक- इसमें भौतिक साधनों के प्रयोग से संभव कोई भी क्रियाकलाप शामिल है। भौतिक पदार्थों में उपकरण या यंत्र भी शामिल हैं। उदाहरणार्थ; इसमें इंटरनेट ‘चैटिंग’, ज़मीन पर ‘कोलम’ बनाने के लिए चावल के आटे का उपयोग शामिल है।

आपको ऐसा लग सकता है कि भौतिक संस्कृति, विशेष रूप में कला के बारे में हमारी समझ, संज्ञानात्मक तथा मानकीय क्षेत्रों में जानकारी प्राप्त किए बिना अधूरी है। यह सही है कि सामाजिक प्रक्रिया के बारे में हमारी विकासशील समझ इन सभी क्षेत्रों की जानकारी से बनेगी। परंतु हम पाएँगे कि एक समुदाय में जहाँ कुछ लोगों को साक्षरता की संज्ञानात्मक निपुणता प्राप्त है, वहाँ वास्तव में निजी पत्र अन्य व्यक्तियों द्वारा पढ़ा जाना एक नियम-सा बन गया है। परंतु जैसाकि हम नीचे पाएँगे, इनमें से प्रत्येक क्षेत्र पर अलग अध्ययन महत्त्वपूर्ण अंतरदृष्टियाँ उपलब्ध कराता है।

संस्कृति के संज्ञानात्मक पक्ष

किसी भी व्यक्ति द्वारा अपनी संस्कृति के संज्ञानात्मक पक्ष की पहचान इसी संस्कृति के भौतिक पक्ष (जोकि वास्तविक या दिखाई देने वाले या सुनाई देने वाले हैं) तथा इसके मानकीय पक्ष (जोकि सुस्पष्ट दिए गए हैं) की पहचान करने की तुलना में कठिन होता है। संज्ञान का संबंध समझ से है, अपने वातावरण से प्राप्त होने वाली समस्त सूचना का हम कैसे उपयोग करते हैं। साक्षर समाजों में विचार किताबों तथा दस्तावेज़ों में दिए होते हैं जो पुस्तकालयों, संस्थाओं या संग्रहालयों में सुरक्षित रखी जाती हैं। परंतु निरक्षर समाजों में दंतकथाएँ या जनश्रुतियाँ याद्वाश्त में रहती हैं तथा मौखिक रूप में हस्तांतरित की जाती हैं। वहाँ मौखिक परंपरा के विशेषज्ञ होते हैं जिन्हें अनुष्ठानों या उत्सवों के अवसर पर यह सब सुनाने तथा याद रखने का प्रशिक्षण दिया जाता है।

आइए, विचार करें कि लेखन कैसे कला के उत्पादन तथा उपभोग को प्रभावित कर सकता है। वाल्टर ओंग ने अपनी प्रभावी पुस्तक औरेलिटी एंड लिटरेसी में 1971 में हुए एक अध्ययन के बारे में बताया है जो यह बताता है कि लगभग 3000 विद्यमान भाषाओं में केवल 78 में साहित्य उपलब्ध है। ओंग सुझाव देते हैं कि अलिखित सामग्री की कुछ निश्चित विशेषताएँ होती हैं। इसे याद रखने हेतु आसान बनाने के लिए इसमें शब्दों को बार-बार दोहराया जाता है। किसी भी अनजानी संस्कृति के लिखित विवरण के पाठकों की तुलना में मौखिक क्रिया को श्रोता आसानी से ग्रहण करता तथा समझता है। मूलपाठ को जब लिखा जाता है तो वह विस्तारित हो जाती है।

ऐतिहासिक तौर पर हमारे जैसे समाजों में साक्षरता केवल अधिक सुविधा प्राप्त व्यक्तियों को ही उपलब्ध हुई है। समाजशास्त्रीय अध्ययनों का प्राय: इस बात की खोज से सरोकार रहा है कि जिन परिवारों में कोई भी व्यक्ति कभी स्कूल नहों गया हो, उनके जीवन के लिए साक्षरता को कैसे प्रासंगिक बनाया जाए। इससे अप्रत्याशित उत्तर भी प्राप्त हो सकते हैं जैसेकि, एक सब्ज़ी विक्रेता पूछता है कि उसको वर्ण अक्षर जानने की क्या आवश्यकता है जबकि वह दिमाग से गणना कर सकता है कि उसके ग्राहक को उसे क्या देना है?

समकालीन विश्व हमें अत्यधिक रूप से लिखित श्रव्य एवं दृश्य रिकार्ड पर विश्वास करने की छूट देता है, तथापि भारतीय शास्त्रीय संगीत के विद्यार्थियों को अभी भी उनके द्वारा प्राप्त ज्ञान को याद रखने के लिए कहा जाता है और इसे लिखने के लिए हतोत्साहित किया जाता है। हमें अभी भी इलैक्ट्रॉनिक साधनों, बहुविध माध्यमों, मोबाइल तथा इंटरनेट के प्रभावों की पूरी जानकारी नहीं है। क्या आप सोचते हैं कि ये नयी प्रणालियाँ हमारी एकाग्रता की अवधि तथा संज्ञानात्मक संस्कृति पर प्रभाव डालती हैं?

संस्कृति के मानकीय पक्ष

मानकीय पक्ष में लोकरीतियाँ, लोकाचार, प्रथाएँ, परिपाटियाँ तथा कानून शामिल हैं। यह मूल्य या नियम ही हैं जो विभिन्न संदर्भों में समाजिक व्यवहार को दिशा-निर्देश देते हैं। समाजीकरण के परिणामस्वरूप हम प्रायः सामाजिक मानकों का अनुसरण करते हैं क्योंकि हम वैसा करने के आदी होते हैं। सभी सामाजिक मानकों के साथ स्वीकृतियाँ होती हैं जो कि अनुरूपता को बढ़ावा देती हैं। सामाजिक नियंत्रण के बारे में हम पहले ही अध्याय 2 में चर्चा कर चुके हैं।

मानदंड अस्पष्ट नियम हैं जबकि कानून स्पष्ट नियम हैं। फ्रैंच समाजशास्त्री पियरे बोरद्यू ने हमें याद दिलाया है कि जब हम किसी अन्य संस्कृति के मानकों को जानने का प्रयास करते हैं तो हमें याद रखना चाहिए कि उनमें कुछ अस्पष्ट आपसी समझ होती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति उसे दी गई किसी चीज़ के लिए आभार व्यक्त करना चाहता है तो उसे उसी तत्परता से वापसी उपहार नहीं देना चाहिए अन्यथा ऐसा दिखाई देगा कि वह मित्रवत व्यवहार के स्थान पर अपना ऋण अदा कर रहा है।

कानून सरकार द्वारा नियम या सिद्धांत के रूप में परिभाषित औपचारिक स्वीकृति है जिसका पालन नागरिकों को अवश्य करना चाहिए। कानून स्पष्ट होते हैं। ये पूरे समाज पर लागू होते हैं तथा कानूनों का उल्लंघन करने पर जुर्माना तथा सज़ा हो सकती है। यदि आपके घर में बच्चों को सूर्यास्त के बाद घर से बाहर रहने की अनुमति नहीं है तो यह एक मानक है। यह केवल आपके परिवार के लिए है तथा सभी परिवारों पर लागू नहीं हो सकता। हालाँकि यदि आपको किसी दूसरे के घर से सोने की चेन चुराते हुए पकड़ा जाए तो आपने सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत निजी संपति के कानून का उल्लंघन किया है तथा इसके लिए आपको जाँच के बाद सज़ा के रूप में जेल भेजा जा सकता है।

कानून, जो राज्य की सत्ता से बनते हैं, वे स्वीकार्य व्यवहार की सबसे अधिक औपचारिक परिभाषा हैं। जहाँ विभिन्न स्कूल विद्यार्थियों के लिए विभिन्न मानक बनाते हैं, वही कानून उन सभी पर लागू होता है जो राज्य की सत्ता को स्वीकार करते हैं। कानून के विपरीत मानक प्रस्थिति अनुसार बदल सकते हैं। समाज के प्रभुत्वशाली हिस्से प्रभुता वाले मानक लागू करते हैं। अक्सर ये मानक भेदभावपूर्ण होते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसे मानक जो दलितों को समान कुएँ या यहाँ तक कि पानी के समान स्रोत से पानी पीने की या औरतों को सार्वजनिक स्थानों पर स्वतंत्रतापूर्वक घूमने की अनुमति नहीं देते।

संस्कृति के भौतिक पक्ष

भौतिक पक्ष औज़ारों, तकनीकों, यंत्रों, भवनों तथा यातायात के साधनों के साथ-साथ उत्पादन तथा संप्रेषण के उपकरणों से संदर्भित है। नगरीय क्षेत्रों में चालित फ़ोन, वादक यंत्रों, कारों तथा बसों, ए.टी.एम. (स्वतः गणक मशीनों), रेफ्रिजरेटरों तथा संगणकों का दैनिक जीवन में व्यापक प्रयोग तकनीक पर निर्भरता को दर्शाता है। यहाँ तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में ट्रांज़िस्टर रेडियो का प्रयोग या उत्पादन बढ़ाने के लिए सिंचाई के लिए ज़मीन के नीचे से पानी ऊपर उठाने के लिए इलैक्ट्रिक मोटर पंपों का प्रयोग तकनीकी उपकरणों को अपनाए जाने को दर्शाता है।

सारांश में संस्कृति के दो सैद्धांतिक आयाम हैं-भौतिक तथा अभौतिक। जहाँ संज्ञानात्मक तथा मानकीय पक्ष अभौतिक हैं, वहीं भौतिक आयाम उत्पादन बढ़ाने तथा जीवन स्तर को ऊपर उठाने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। संस्कृति के एकीकृत कार्यों हेतु भौतिक तथा अभौतिक आयामों को एकजुट होकर कार्य करना चाहिए। परंतु जब भौतिक या तकनीकी आयाम तेज़ी से बदलते हैं तो मूल्यों तथा मानकों की दृष्टि से अभौतिक पक्ष पिछड़ सकते हैं। इससे संस्कृति के पिछड़ने की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जब अभौतिक आयाम तकनीकी विकास के साथ तालमेल बैठाने में असक्षम हों।

संस्कृति तथा पहचान

पहचान विरासत में नहीं मिलती अपितु यह व्यक्ति तथा समाज को इनके दूसरे व्यक्तियों के साथ संबंधों से प्राप्त होती है। व्यक्ति को उसके द्वारा अदा की गई सामाजिक भूमिका ही पहचान प्रदान करती है। आधुनिक समाज में प्रत्येक व्यक्ति बहुविध भूमिकाएँ अदा करता है। उदाहरणार्थ; परिवार में व्यक्ति माता-पिता या एक बच्चा हो सकता है परंतु प्रत्येक विशेष भूमिका के लिए निश्चित उत्तरदायित्व तथा शक्तियाँ होती हैं।

भूमिकाओं को प्रभावी बनाना पर्याप्त नहीं होता। इन्हें पहचान तथा मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। ऐसा प्रायः भूमिका अदा करने वाले व्यक्तियों द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली भाषा को मान्यता देकर किया जा सकता है। स्कूलों में विद्यार्थियों के पास अपने अध्यापकों, अन्य विद्यार्थियों तथा कक्षा में प्रदर्शनों का उल्लेख करने का अपना तरीका होता है। इस भाषा के सृजन द्वारा जिसमें कुछ कूट अर्थ भी होते हैं, वे अर्थों और उनके महत्त्व का अपना संसार बनाते हैं। स्त्रियाँ भी अपनी भाषा बनाने के लिए प्रसिद्ध हैं जिसके द्वारा वे अपना निजी समय प्राप्त कर लेती है, जोकि पुरुषों के नियंत्रण से बाहर होता है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में तालाब में स्नान करते समय तथा नगरीय क्षेत्रों में छतों पर कपड़े सुखाते समय एकत्रित होकर।

किसी भी संस्कृति की अनेक उपसंस्कृतियाँ हो सकती हैं जैसेकि संभ्रात तथा कामगार वर्ग के युवा। उपसंस्कृतियों की पहचान शैली, रुचि तथा संघ से होती है। किसी विशेष उपसंस्कृति की पहचान उनकी भाषा, कपड़ों, संगीत के विशेष प्रकार के प्रति प्राथमिकता या उनके समूह के अन्य सदस्यों के साथ उनकी अंतःक्रियाओं के प्रकार से की जा सकती है।

उपसंस्कृति समूह एक संबद्ध इकाई के रूप में भी कार्य कर सकता है जो समूह के सदस्यों को पहचान देता है। ऐसे समूहों में नेता तथा अनुयायी हो सकते हैं, परंतु समूह के सदस्य समूह के उद्देश्यों से वचनबद्ध होते हैं तथा इकट्टे होकर इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए, आस-पड़ोस के युवा सदस्य क्लब बना सकते हैं ताकि अपने आपको खेलों तथा अन्य संरचनात्मक कार्यों में व्यस्त रखा जा सके। ऐसे कार्यों से सदस्यों की समाज में सकारात्मक छवि बनती है। इससे सदस्यों को अपनी छवि सकारात्मक बनाने में

क्रियाकलाप- 5

क्या आपको अपने आस-पास में बने किसी उप-सांस्कृतिक समूह की जानकारी है? आप इनको पहचानने में कैसे सफल हुए?

ही सहायता नहीं मिलती अपितु इससे अपने कार्यों को और बेहतर ढंग से करने की प्रेरणा भी मिलती है। समूह के रूप में उनकी पहचान में रूपांतरण होता है। समूह अपने को अन्य समूहों से अलग करने में सक्षम है और इस तरह आस-पड़ोस में स्वीकृति तथा मान्यता द्वारा अपनी पहचान बनाता है।

नृजातिकेंद्रवाद

जब संस्कृतियाँ एक दूसरे के संपर्क में आती है, तभी नृजातिकेंद्रवाद की उत्पत्ति होती है। नृजातिकेंद्रवाद से आशय अपने सांस्कृतिक मूल्यों का अन्य संस्कृतियों के लोगों के व्यवहार तथा आस्थाओं का मूल्यांकन करने के लिए प्रयोग करने से है। इसका अर्थ है कि जिन सांस्कृतिक मूल्यों को मानदंड या मानक के रूप में प्रदर्शित किया गया था उन्हें अन्य संस्कृतियों की आस्थाओं तथा मूल्यों से श्रेष्ठ माना जाता है। हम अध्याय 1 तथा अध्याय 3 (विशेष रूप से धर्म पर हुई चर्चा में) में देख चुके हैं कि समाजशास्त्र किस प्रकार से एक आनुभविक शास्त्र है न कि मानकीय।

नृजातिकेंद्रवाद की तुलनाओं में निहित सांस्कृतिक श्रेष्ठता की भावना उपनिवेशवाद की स्थितियों में स्पष्ट दिखाई देती है। थॉमस बाबींगटोन मैकॉले के भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी को भेजे गए शिक्षा (1835) के प्रसिद्ध विवरण में नृजातीयता का उदाहरण दिया गया है जब वे कहते हैं, ‘हमें इस समय एक ऐसे वर्ग का निर्माण करने का भरसक प्रयास करना चाहिए जो हमारे तथा हमारे द्वारा शासित लाखों लोगों के बीच द्विभाषियों का कार्य करे, व्यक्तियों का ऐसा वर्ग जो खून तथा रंग में भारतीय हो परंतु रुचि में, विचार में, नैतिकता तथा प्रतिभा में अंग्रेज़ हो’ (मुखर्जी 1948/1979 : 87 में उद्धृत)।

नृजातिकेंद्रवाद विश्वनागरिकतावाद के विपरीत है जोकि अन्य संस्कृतियों को उनके अंतर के कारण महत्त्व देती है। विश्वबंधुता पर्यवेक्षण में व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के मूल्यों तथा आस्थाओं का मूल्यांकन अपने मूल्यों तथा आस्थाओं के अनुसार नहीं करता। यह विभिन्न सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को मानता तथा इन्हें अपने अंदर समायोजित करता है तथा एक दूसरे की संस्कृति को समृद्ध बनाने के लिए सांस्कृतिक विनिमय तथा लेन-देन को बढ़ावा देता है। विदेशी शब्दों को लगातार अपनी शब्दावली में शामिल करके अंग्रेज़ी भाषा अंतरराष्ट्रीय संप्रेषण का मुख्य साधन बनकर उभरी है। पुनः हिंदी फ़िल्मों के संगीत की लोकप्रियता को पाश्चात्य पॉप संगीत तथा साथ ही भारतीय लोकगीतों की विभिन्न परंपराओं तथा भंगड़ा और गज़ल जैसे अर्द्धशास्त्रीय संगीत से ली गई देन का परिणाम मान सकते हैं।

एक आधुनिक समाज सांस्कृतिक विभिन्नता का प्रशंसक होता है तथा बाहर से पड़ने वाले सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाज़े बंद नहीं करता। परंतु ऐसे सभी प्रभावों को सदैव इस प्रकार शामिल किया जाता है कि ये देशीय संस्कृति के तत्त्वों के साथ मिल सकें। विदेशी शब्दों को शामिल करने के बावजूद अंग्रेज़ी अलग भाषा नहीं बन पाई और न ही हिंदी फिल्मों के संगीत ने अन्य जगहों से उधार लेने के बावजूद अपना स्वरूप खोया। विविध शैलियों, रूपों, श्रव्यों तथा कलाकृतियों को शामिल करने से विश्वव्यापी संस्कृति को पहचान प्राप्त होती है। आज सार्वभौमिक विश्व में, जहाँ संचार के आधुनिक साधनों से संस्कृतियों के बीच अंतर कम हो रहे हैं, एक विश्व्यापी पर्यवेक्षण प्रत्येक व्यक्ति को अपनी संस्कृति को विभिन्न प्रभावों द्वारा सशक्त करने की स्वतंत्रता देता है।

बॉक्स में दिए गए शब्दों को देखें। क्या आपने ये शब्द सुनें हैं या बातचीत में कभी इनका प्रयोग किया है?

हिंग्लिश शीघ्र ही विश्व विजेता बनेगी

प्रचलित कुछ हिंग्लिश शब्दों में एयरडेश (ट्रेवल बॉय एयर), चड्ढीस (अंडरपेंट्स), चाय (इंडियन टी), करोड़ (10 मिलियन), डकैत (थीफ), देसी (लोकल), डिक्की (बूट), गोरा (व्हाइट परसन), जंगली (अनकाउथ), लाख $(100,000)$, लंपट (ठग), आप्टीकल (स्पेक्टिकल्स), प्रीपोन (ब्रिंग फॉरवर्ड), स्टेपनी (स्पेयर टायर) तथा वुड बी (फियांस या फियांसी) शामिल हैं। …एक रिपोर्ट के अनुसार हिंग्लिश में ऐसे अनेक शब्द या वाक्यांश शामिल हैं जिन्हें ब्रिटेन या अमेरिकावासी शायद आसानी से न समझ सकें। इनमें से कुछ अप्रचलित शब्द जैसे ‘पक्का’ है, जो राज के स्मृति चिह्न हैं। अन्य नवनिर्मित शब्द भी हैं जैसे ‘टाइमपास’ जिसका अर्थ है समय व्यतीत करने के लिए कोई भी कार्य करना। भारत में व्यवसाय करने को आकर्षित करने की सफलता ने हाल ही में एक नयी क्रिया को जन्म दिया है। वे व्यक्ति जो किसी कंपनी के कर्मचारी न होकर भी भारत से उसके लिए कार्य करते हैं उन्हें ‘बैंग्लोरड’ कहा जाता है।

सांस्कृतिक परिवर्तन

सांस्कृतिक परिवर्तन वह तरीका है जिसके द्वारा समाज अपनी संस्कृति के प्रतिमानों को बदलता है। परिवर्तन के लिए प्रेरणा आंतरिक या बाहरी हो सकती है। उदाहरण के लिए, आंतरिक कारणों में, कृषि या खेती करने की नयी पद्धतियाँ, कृषि उत्पादन को बढ़ा सकती हैं जिससे खाद्य उपभोग की प्रकृति तथा कृषक समुदाय की जीवन शैली में परिवर्तन आ सकता है। दूसरी तरफ़ बाहरी हस्तक्षेप जीत या उपनिवेशीकरण के रूप में हो सकते हैं जिससे एक समाज के सांस्कृतिक आचरण तथा व्यवहार में गहरे परिवर्तन हो सकते हैं।

प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन, अन्य संस्कृतियों से संपर्क या अनुकूलन की प्रक्रियाओं द्वारा सांस्कृतिक परिवर्तन हो सकते हैं। प्राकृतिक वातावरण या पारिस्थितिकी में परिवर्तन से लोगों की जीवन शैली में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हो सकते हैं। जब जंगलों में रहने वाले समुदायों को जंगलों तक जाने तथा इसकी उपज से कानूनी प्रतिबंधों के कारण या जंगलों के समाप्त होने के कारण रोका जाएगा तो इसके निवासियों तथा उनकी जीवन शैली पर अनेक विपरीत प्रभाव हो सकते हैं। उत्तर-पूर्वी भारत के साथ-साथ मध्य भारत में रहने वाले जनजातीय समुदायों पर जंगली संसाधनों में कमी का सबसे बुरा प्रभाव पड़ा है।

विकासात्मक परिवर्तनों के साथ-साथ क्रांतिकारी परिवर्तन भी हो सकते हैं। जब किसी संस्कृति में तीव्रता से बदलाव आता है और इसके मूल्यों तथा अर्थकारी व्यवस्थाओं में महत्त्पपूर्ण परिवर्तन होते हैं, तभी क्रांतिकारी परिवर्तन होते हैं। क्रांतिकारी परिवर्तनों की शुरुआत राजनीतिक हस्तक्षेप, तकनीकी खोज या पारिस्थितिकीय रूपांतरण के कारण हो सकती है। फ्रांसीसी क्रांति (1789) ने फ्रांसीसी समाज में श्रेणीक्रमता की इस्टेट व्यवस्था को नष्ट किया, राजतंत्र को समाप्त किया तथा अपने नागरिकों में समानता, स्वतंत्रता तथा बंधुता के मूल्यों को जागृत किया। जब कोई अलग समझ प्रचलित होती है तो संस्कृति में परिवर्तन होते हैं। हाल के वर्षों में प्रचार तंत्र, इलैक्ट्रॉनिक तथा मुद्रण दोनों, में आश्चर्यजनक विस्तार हुआ है। क्या आप सोचते हैं कि प्रचार तंत्र ने विकासात्मक या क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं? अब हम संस्कृति के विभिन्न आयामों से परिचित हैं। व्यक्ति तथा समाज के बीच की पारंपरिक क्रिया, जिससे हमने अध्याय 1 में शुरुआत की थी, के बिंदु पर वापस आने के लिए अब हम समाजीकरण की संकल्पना की ओर चलते हैं।

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समाजीकरण

मेरा विश्वास है कि हमारे चारों तरफ़ की सभी वस्तुएँ संपूर्ण जीवन में शामिल हैं-पौधे, पशु, अतिथि, पर्व, उत्सव, लड़ाइयाँ, मित्रता, साहचर्य, भेदभाव, घृणा। ये सभी तथा इससे ज्यादा वस्तुएँ एक ही स्थान, मेरे घर में उपलब्ध थीं। यद्यपि तब कभी-कभी जीवन जटिल दिखाई देता था, मैं अब समझती हूँ कि यह कितना उत्कृष्ट था। मैं ऐसे बचपन की आभारी हूँ, शायद, कि मैंने कभी भी किसी पीड़ित व्यक्ति को देखा हो। मैं महसूस करती हूँ मैं इस सबकी संपूर्णाता को समझ सकती हूँ (वैदेही 1945)।

जन्म के समय बच्चा, जिसे हम समाज कहते हैं या सामाजिक व्यवहार, उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता है। परंतु जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वह केवल भौतिक संसार के बारे में ही नहीं सीखता है अपितु अच्छे या बुरे लड़के / लड़की से क्या तात्पर्य है, यह भी सीखता है। वह जानता है कि किस प्रकार के व्यवहार की प्रशंसा होगी तथा किस प्रकार के व्यवहार को अनुमति नहीं मिलेगी। समाजीकरण को उस प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा असहाय शिशु धीरे-धीरे स्वयं जानकारी प्राप्त करता है व आत्म जागरूक बनता है, जो उस संस्कृति के तरीकों के बारे में भली-भाँति जानता है, जिसमें वह जन्म लेता है। वास्तव में समाजीकरण के बिना एक व्यक्ति मानव की तरह व्यवहार नहीं कर सकता। आपमें से अधिकतर ने ‘मिदनापुर के भेड़िए के बच्चे’ की कहानी सुनी होगी। सन् 1920 में बंगाल में भेड़िए की गुफ़ा में दो वर्ष की दो बच्चियाँ पाई गई थीं। वे पशुओं की तरह चारों पैरों पर चलती थीं, कच्चा माँस खाना पसंद करती थीं, भेड़ियों की तरह चिल्लाती थीं तथा कोई भी भाषा नहीं जानती थीं। ऐसी घटनाओं के बारे में जानकारियाँ विश्व के अन्य भागों से भी प्राप्त हुई हैं।

हम अब तक समाजीकरण तथा नवजात शिशु के बारे में बातें कर रहे थे। परंतु बच्चे का जन्म उनके जीवन को भी बदल देता है, जो उसके पालन पोषण के लिए उत्तरदायी हैं। वे भी नए-नए अनुभवों को सीखते हैं। दादा-दादी तथा माता-पिता बनने पर नए-नए क्रियाकलापों तथा अनुभवों से गुज़रना होता है। बुर्जुग व्यक्ति दादा-दादी बनकर भी माता-पिता ही रहते हैं। वास्तव में संबंधों को आगे बढ़ाने वाला संबंधों का यह समुच्चय विभिन्न पीढ़ियों को आपस में जोड़ता है। इसी तरह से युवा बच्चे का जीवन सहोदर भाई या बहन के जन्म से बदल जाता है। समाजीकरण जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है लेकिन अत्यधिक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया आरंभिक वर्षों में घटित होती है जिसे प्रारंभिक समाजीकरण कहा जाता है। द्वितीयक समाजीकरण एक व्यक्ति के जीवनपर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है।

हालाँकि समाजीकरण का प्रत्येक व्यक्ति पर काफ़ी प्रभाव पड़ता है परंतु यह ‘सांस्कृतिक कार्यक्रम’ की तरह से नहीं है जिसमें शिशु अपने संपर्क में आने वाले लोगों के प्रभाव को बिना किसी विरोध के ग्रहण करता है। नवजात शिशु भी अपनी इच्छा व्यक्त कर सकता है। जब भूख लगेगी तो वह चिल्लाएगा तथा तब तक चिल्लाता रहेगा जब तक उसकी देखभाल करने वाले कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते। आपने देखा होगा कि शिशु के जन्म से परिवार की सामान्य दैनिक क्रियाएँ किस प्रकार पूर्ण रूप से पुनःव्यवस्थित हो जाती हैं।

आपको पहले ही प्रस्थिति / भूमिका, सामाजिक नियंत्रण, समूहों तथा सामाजिक स्तरीकरण की संकल्पनाओं से अवगत कराया जा चुका है। आप यह भी जान चुके हैं कि संस्कृति, मानक तथा मूल्य क्या हैं। इन सभी संकल्पनाओं से यह जानने में सहायता मिलती है कि समाजीकरण की प्रक्रिया कैसे चलती है। प्रथम दृष्टि में एक बच्चा परिवार का सदस्य होता है। परंतु वह एक बड़े नातेदार समूह (बिरादरी, खानदान, गोत्र आदि) का भी सदस्य होता है जिसमें भाई, बहन तथा माता-पिता के अन्य संबंधी होते हैं। जिस परिवार में बच्चा जन्म लेता है, वह मूल या विस्तृत परिवार हो सकता है। यह एक बड़े समाज जैसेकि एक जनजाति या उपजाति, गोत्र या एक बिरादरी, एक धर्म और भाषाई समूह का सदस्य भी हो सकता है। इन समूहों तथा संस्थाओं की सदस्यता प्रत्येक सदस्य पर कुछ विशेष व्यावहारिक मानक तथा मूल्य लागू करती है। इन सदस्यताओं के अनुसार कुछ भूमिकाएँ भी निभानी होती हैं। जैसेकि एक पुत्र की, एक पुत्री की, एक पौत्र की या एक विद्यार्थी की ये बहुविध भूमिकाएँ हैं जिन्हें साथ-साथ निभाया जाता है। इन समूहों के मानकों, मनोवृत्तियों, मूल्यों या व्यावहारिक प्रतिमानों को सीखने की प्रक्रिया जीवन के प्रारंभ से शुरू होती है तथा जीवनपर्यंत चलती है। एक व्यक्ति एक गाँव में रहता है या शहर में या वह किसी जनजाति से संबंधित है और यदि जनजाति से संबंधित है तो किस जनजाति से, इस सबके अनुसार एक समाज में विभिन्न जातियों, क्षेत्रों या सामाजिक वर्गों या धार्मिक समूहों से संबंधित विभिन्न परिवारो में मानदंड तथा मूल्य अलग-अलग हो सकते हैं। वास्तव में एक व्यक्ति जो भाषा बोलता है वह उस क्षेत्र पर आधारित होती है, जिससे वह संबंध रखता है। वह भाषा, भाषा के मौखिक रूप के नज़दीक है या मानक लिखित रूप के, यह परिवार तथा परिवार की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर निर्भर करता है।

समाजीकरण के अभिकरण

बच्चे का समाजीकरण उन अनेक अभिकरणों तथा संस्थाओं द्वारा किया जाता है जिनमें वह भाग लेता है, जैसे परिवार, स्कूल, समकक्ष समूह, अड़ोस-पड़ोस, व्यावसायिक समूह तथा सामाजिक वर्ग / जाति, क्षेत्र, धर्म आदि।

क्रियाकलाप-6

वे बातें बताएँ जिनमें एक घरेलू नौकर का बच्चा अपने आपको उस बच्चे से अलग समझे, जिसके परिवार में उसकी माँ काम करती है। साथ ही उन वस्तुओं के बारे में भी बताएँ जिन्हें वह आपस में बाँट सकते हैं या बदल सकते हैं।

प्रारंभ करने के लिए स्पष्ट है कि किसी के पास कपड़ों की खरीददारी हेतु अधिक धन होगा और दूसरा हो सकता है कि चूड़ियाँ ज़्यादा पहने…

हो सकता है वे एक ही सीरियल देखते हों, एक ही तरह के फ़िल्मी गानों को सुनते हों… हो सकता है कि वे एक दूसरे के लिए अलग-अलग प्रकार की अशिष्ट भाषा का प्रयोग करते हों…

अब आपको कठिन क्षेत्रों के बारे में पता लगाना है, जैसेकि परिवार में, पड़ोस में तथा गली में सुरक्षा की भावना के बारे में…

क्रियाकलाप-7

आप के विचार में नीचे दी गई वस्तुओं में किस चीज़ की उपस्थिति या अनुपस्थिति आपको व्यक्तिगत रूप से सबसे ज़्यादा प्रभावित करेगी?

( स्वामित्त्व ) टेलीविजन / वादक यंत्र…
( जगह ) आपका अपना कमरा…
( समय ) घर के कार्यों या अन्य कार्य के साथ विद्यालय के समय का सामंजस्य बैठाना…
( सुअवसर ) यात्रा, संगीत की कक्षाएँ…
( आपके आस-पास के लोग)

परिवार

चूँकि परिवारिक व्यवस्थाएँ विस्तृत रूप में भिन्न होती हैं, अतः किसी भी तरह से शिशुओं के अनुभव विभिन्न संस्कृतियों में एक मानदंड के अनुसार नहीं होते। आप में से अनेक मूल परिवार में अपने माता-पिता तथा भाई-बहनों के साथ रह रहे होंगे, जबकि अन्य दूसरे विस्तृत पारिवारिक सदस्यों के साथ रह रहे होंगे। पहले मामले में माता-पिता समाजीकरण के मुख्य अभिकरण हो सकते हैं, जबकि दूसरे मामले में दादा-दादी, चाचा, चचेरे भाई या बहन का ज़्यादा महत्त्व हो सकता है।

एक समाज की समग्र संस्थाओं में परिवारों की ‘स्थिति’ अलग-अलग होती है। सबसे अधिक पारंपरिक समाजों में, जिस परिवार में व्यक्ति जन्म लेता है, वही उस व्यक्ति के पूरे जीवन की व्यक्तिगत सामाजिक स्थिति को निर्धारित करता है। यद्यपि जब इस प्रकार से जन्म पर सामाजिक स्थिति विरासत में प्राप्त नहीं होती हो परिवार का क्षेत्र तथा सामाजिक वर्ग, जिसमें वह जन्म लेता है, समाजीकरण के प्रतिमानों पर अत्यधिक प्रभाव डालते हैं। बच्चे अपने-अपने माता-पिता या पड़ोस या समुदाय से व्यावहारिक विशेषताओं के तरीकों को ग्रहण करते हैं।

वास्तव में, कुछ बच्चे सामान्यतया अपने माता-पिता के दृष्टिकोण को बिना किसी विवाद के अपना लेते हैं। यह समकालीन विश्व में विशेष रूप से सही है, जहाँ परिवर्तन इतना अधिक व्यापक है। साथ ही समाजीकरण के अभिकरणों में वर्तमान विविधता के फलस्वरूप बच्चों, किशोरों तथा माता-पिता की पीढ़ियों के दृष्टिकोणों में अत्यधिक अंतर पाया जाता है। क्या आप ऐसा कोई उदाहरण बता सकते हैं जहाँ आपने पाया हो कि आपके द्वारा परिवार में सीखी गई कोई चीज़ आपके समकक्ष समूह या प्रचार माध्यम या स्कूल से भी अलग हो?

समकक्ष समूह

समकक्ष समूह एक अन्य समाजीकरण अभिकरण है। समकक्ष समूह समान आयु के बच्चों के मैत्री समूह होते हैं। कुछ संस्कृतियों में, विशेषतया कुछ छोटे पारंपरिक समाजों में समकक्ष समूह औपचारिक रूप से एक ही आयु-श्रेणी के होते हैं। औपचारिक आयु-श्रेणी के बिना भी चार या पाँच वर्ष की आयु के बच्चे सामान्यतया अपनी आयु के मित्रों के साथ काफ़ी समय व्यतीत करते हैं। ‘समकक्ष’ शब्द का अर्थ है ‘समान’ तथा युवा बच्चों के बीच मित्रता का आधार भी काफ़ी हद तक समानता ही होता है। एक प्रभावशाली या शारीरिक रूप से स्वस्थ बच्चा अन्य बच्चों पर प्रभुत्व जमाने का प्रयास कर सकता है। तथापि पारिवारिक स्थितियों में विरासत में मिली निर्भर्रता की तुलना में समकक्ष समूहों में लेन-देन अधिक होता है। अपनी शक्तियों के कारण माता-पिता अपने बच्चों पर आचरण संहिता लाग करने (विभिन्न मात्राओं में) में सफल होते हैं। इसके विपरीत, समकक्ष समूहों में, एक बच्चा विभिन्न प्रकार की अंतःक्रियाओं की खोज करता है जिसके दायरे में व्यवहार के नियमों को जाँचा जा सकता है तथा उनके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

क्रियाकलाप-8

अपने अनुभवों पर प्रकाश डालिए। अपने मित्रों के साथ की गई अपनी अंत:क्रिया की तुलना अपने माता-पिता तथा अन्य बड़ों से की गई अंत:क्रिया से करें। इनमें क्या अंतर है? पहले की गई भूमिकाओं एवं प्रस्थिति की चर्चा इन अंतरों को जानने में क्या आपकी सहायता करती है?

प्रायः समकक्ष संबंध व्यक्ति के लिए जीवनपर्यंत महत्त्वपूर्ण रहते हैं। समान आयु के लोगों के अनौपचारिक समूह काम की जगह पर, तथा अन्य संदर्भों में, व्यक्ति की मनोवृत्तियों तथा व्यवहार को निर्धारित करने में प्रायः महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

विद्यालय

विद्यालय एक औपचारिक संगठन है, यहाँ पढ़ाए जाने वाले विषयों की एक निश्चित संख्या होती हैं। तथापि स्कूल भी एक हद तक समाजीकरण के अभिकरण होते हैं। कुछ समाजशास्त्रियों के अनुसार औपचारिक पाठ्यक्रम के साथ-साथ बच्चों को सिखाने के लिए कुछ अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम भी होता है। भारत और कई अन्य देशों में कुछ ऐसे स्कूल हैं जहाँ लड़कों से कभी-कभार परंतु लड़कियों से हमेशा अपने कमरे साफ़ करने की आशा की जाती है। कुछ स्कूलों में, इसके समाधान के लिए प्रयास किए जाते हैं जिसके तहत लड़कों तथा लड़कियों से ऐसे काम करने को कहा जाता है जिनके बारे में सामान्यतया उनसे आशा नहीं की जाती। क्या आप ऐसे उदाहरणों पर विचार कर सकते हैं, जो दोनों प्रकार की प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालते हों?

जन-माध्यम

जन-माध्यम हमारे दैनिक जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुके हैं। आज इलैक्ट्रॉनिक माध्यम जैसेकि दूरदर्शन का विस्तार हो रहा है। मुद्रण माध्यम का महत्त्व भी लगातार बना हुआ है। भारत में उन्नीसवीं शताब्दी में मुद्रित माध्यम के आरंभिक वर्षों में भी अनेक भाषाओं में ‘आचरण पुस्तकें’ काफ़ी लोकप्रिय थीं जिनमें यह बताया जाता था कि महिलाएँ एक अच्छी गृहणी तथा अच्छी पत्नी कैसे बन सकती हैं। जन-माध्यमों के द्वारा सूचना ज़्यादा लोकतांत्रिक ढंग से पहुँचाई जा सकती है। इलैक्ट्रॉनिक संचार एक ऐसा माध्यम है जो ऐसे गाँवों में भी पहुँच सकता है जो न तो सड़कों द्वारा अन्य क्षेत्रों से जुड़े हैं और न ही वहाँ साक्षरता केंद्र स्थापित हुए हैं।

बच्चों तथा बड़ों पर दूरदर्शन के प्रभाव पर अत्यधिक अनुसंधान किए गए हैं। ब्रिटेन में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि बच्चों द्वारा

क्रियाकलाप-9

आप शायद जानना चाहेंगे कि लोग अपने आसपास के परिवेश के विपरीत परिवेशों में बने धारावाहिकों से खुद को कैसे जोड़ते हैं। और यदि बच्चे अपने दादा-दादी के साथ टेलीविजन देख रहे हैं तो कौन से कार्यक्रम देखने योग्य हैं, क्या इस पर उनमें असहमति है? यदि ऐसा है तो उनके दृष्टिकोण में क्या अंतर पाया गया? क्या इन अंतरों में क्रमशः संशोधन होता है?

टेलीविजन देखने पर व्यय किया गया समय एक साल में लगभग एक सौ स्कूली दिवसों के समान है तथा इसमें बड़े भी पीछे नहीं हैं। ऐसे मात्रात्मक पक्षों के अतिरिक्त ऐसे अनुसंधान कार्य में जो अन्य परिणाम उभरकर सामने आते हैं वह सदैव निर्णायक नहीं होते हैं। टेलीविजन के परदे पर हिंसा तथा बच्चों के बीच आक्रामक व्यवहार का संबंध अभी भी चर्चा का विषय है।

यदि कोई व्यक्ति लोगों पर जन-माध्यमों के प्रभाव का पता नहीं लगा सकता, लेकिन प्रभाव की मात्रा, जानकारी तथा अपने क्षेत्र से दूरस्थ क्षेत्रों के अनुभव के बारे में पता लगाया जा सकता है। भारतीय दूरदर्शन के धारावाहिकों तथा फ़िल्मों के काफ़ी दर्शक नाईजीरिया, अफगानिस्तान तथा तिब्बत के प्रवासी हैं। महाभारत का अनुवाद करके ताशकंद में प्रसारित किया गया, परंतु इसे बिना अनुवाद किए लंदन में उन बच्चों द्वारा देखा गया जो केवल अंग्रेज़ी बोलते थे। हाल के वर्षों में, इंटरनेट के माध्यम से नॉन प्रिंट, डिजिटल मीडिया को विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में काफी लोकप्रियता मिल रही है।

अन्य समाजीकरण अभिकरण

दिए गए समाजीकरण अभिकरणों के अतिरिक्त कुछ अन्य समूह या सामाजिक परिस्थितियाँ हैं जहाँ व्यक्ति अपने जीवन का काफ़ी समय व्यतीत करते हैं। सभी संस्कृतियों में कार्यस्थल एक ऐसा महत्त्वपूर्ण स्थान है जहाँ समाजीकरण प्रक्रिया चलती है यद्यपि ऐसा औद्योगिक समाजों

यह रिपोर्ट देखें और चर्चा करें कि जन-माध्यम बच्चों पर कैसे प्रभाव डालते हैं

एक मनोवैज्ञानिक का कहना है कि “कुछ वर्ष पूर्व प्रसारित शक्तिमान धारावाहिक को देखकर बच्चे इमारतों से कूदने की कोशिश करते थे जिसके परिणाम घातक होते थे। नकल करके सीखने की पद्धति लोगों द्वारा अपनाई जाती है और बच्चे इसके अपवाद नहीं हैं।”

में ही है जहाँ काफ़ी संख्या में लोग ‘काम करने जाते हैं’-अर्थात हर रोज़ घर से काफ़ी हद तक अलग स्थानों पर कार्य के लिए जाना। पारंपरिक समुदायों में अनेक लोग अपने रहने के स्थान के निकट ही ज़मीन जोतते हैं या उनकी कार्यशालाएँ उनके निवास स्थानों में होती हैं (पृष्ठ संख्या 50 के चित्रों को देखें)।

समाजीकरण तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता

यह शायद सही है कि सामान्य परिस्थितियों में समाजीकरण लोगों को कभी भी अनुरूपता तक नहीं ला सकता। संघर्ष को अनेक कारण बढ़ावा देते हैं। समाजीकरण के अभिकरणों, विद्यालय तथा घर, घर तथा समकक्ष समूहों के बीच संघर्ष हो सकते हैं। तथापि जिस सांस्कृतिक परिवेश में हम जन्म लेते हैं तथा परिपक्व होते हैं, उसका हमारे व्यवहार पर इतना अधिक प्रभाव पड़ता है मानो हमारी किसी भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता या इच्छा को छीन लिया गया हो। ऐसा विचार मूलत: गलत है। तथ्य यह है कि जन्म से मृत्यु तक हम अन्य व्यक्तियों के साथ अंतःक्रियाओं के द्वारा अपने व्यक्तित्व, अपने मूल्यों तथा अपने व्यवहार को निखारने में संलग्न रहते हैं। अतः समाजीकरण भी हमारे व्यक्तित्व तथा स्वतंत्रता के मूल मे है। समाजीकरण के दौरान हममें से प्रत्येक में स्वयं की पहचान की भावना तथा स्वतंत्र विचारों एवं कार्यों के लिए क्षमता विकसित होती है।

समाजीकरण का लिंगकरण कैसे होता है?

हम लड़के गलियों का प्रयोग अनेक वस्तुओं के लिए करते हैं-एक स्थान की तरह, जहाँ खड़े होकर आस-पास देखते हैं, दौड़ने तथा खेलने के लिए, अपनी मोटरसाइकिलों पर विभिन्न करतब करने के लिए। लड़कियों के लिए ऐसा नहीं है। जैसाकि हम हर समय देखते हैं, लड़कियों के लिए गलियाँ विद्यालयों से सीधे घर जाने के लिए हैं। तथा गली के इस सीमित प्रयोग के लिए भी वे सदा झुंड में जाती हैं, शायद इसके पीछे उनमें मौजूद छेड़खानी का भय है (कुमार 1986)।

क्रियाकलाप- 11

हमने चार अध्याय पूरे कर लिए हैं। अगले पृष्ठ की विषय-वस्तु को ध्यानपूर्वक पढ़ें तथा निम्नलिखित प्रसंगों पर चर्चा करें।

  • बड़ों के विरुद्ध लड़कियों के विद्रोह में व्यक्ति तथा समाज के बीच संबंध।
  • कस्बों तथा गाँव में संस्कृति के मानकीय आयाम कैसे अलग हैं?
  • प्रदत्त प्रस्थिति पर प्रश्न, जिसके तहत पुजारी की बेटी को घंटी छूने की अनुमति है।
  • समाजीकरण के अभिकरणों में विरोधाभास जोकि अगले पृष्ठ की पठन-सामग्री में दिया गया है। उदाहरण के लिए “वह शुक्रगुज़ार थी कि उसके स्कूल के मित्रों ने उसे इस हालत में नहीं देखा…” क्या आप कोई ऐसा अन्य वाक्य ढूँढ़ सकते हैं जो इसे दर्शाता हो?
  • लिंगकरण = बालों में कंघी करना + रक्षा के लिए किसी के साथ जाना + फुटबाल न खेलना
  • सज़ा = चुप्पी साधना + पापड़म (केरल में पापड़ को पापड़म कहते हैं) की संदेहभरी अनुपस्थिति

आज शाम मंदिर जाने के लिए वह असामान्य रूप से उत्सुक थी। दोपहर के भोजन पर जब उसने मंदिर के सामने जाकर घंटी बजाने का अपना निर्णय सुनाया तो उसके तथा बड़ों के बीच तर्क हो गया। उसने उत्तेजित होकर कहा, “यदि थंगम घंटी बजा सकती है तो मैं भी बजा सकती हूँ।”

उन्होंने घबराई हुई आवाज़ में इसका विरोध किया, “थंगम मंदिर के पुजारी की बेटी है, उसको घंटी छूने की अनुमति है।”

उसने गुस्से में उत्तर दिया कि थंगम हर रोज़ दोपहर में लुका-छुपी का खेल खेलने आती है तथा किसी से भी अलग ढंग से व्यवहार नहीं करती। इसके अतिरिक्त, उन्हें भड़काने के लिए उसने जान-बूझकर कहा “हम भगवान की नज़रों में समान हैं।” उसे पूरा विश्वास नहीं था कि उन्होंने इस उक्ति को सुना है क्योंकि उन्होंने पहले ही खीझकर मुँह फेर लिया था। परंतु दोपहर के भोजन के बाद उसने उन्हें कहते हुए पाया कि वह गलत अंग्रेज़ी स्कूल में जाती है जिसका अर्थ है कि उन्होंने सुन लिया था…

उसे विश्वास था कि उन्होंने उसकी बात को गंभीरता से नहीं लिया था। बड़े व्यक्तियों के साथ यही समस्या है- वे सदैव मानकर चलते थे, उसके बड़े होने पर जब वे उसे बताएँगे तो वह हर बात समझ जाएगी, वह उनकी बुद्धिमत्ता तथा सत्ता को बिना कोई प्रश्न किए स्वीकार कर लेगी और उनके विरुद्ध जाने की बात सपने में भी नहीं सोचेगी। अच्छा, इस बार वह उन्हें दिखा देगी… घर पर पुन: उसको बाल संवारने की तकलीफ़देह स्थिति से गुज़रना पड़ा। उसकी दादी ने उसके बालों में एक जार भरकर तेल डाला, प्रत्येक चमकती लट को सीधा होने तक अलग-अलग किया और इसे ज़ोर से खींचकर उसके सर के ऊपर बाँध दिया। वह शुक्रगुज़ार थी कि उसके स्कूल के मित्रों ने उसे इस हालत में नहीं देखा…

वे यह क्यों नहीं समझते कि उसकी रक्षा के लिए किसी के साथ जाने से वह कितना उपहासजनक महसूस करती थी… उसने अपनी माता को बार-बार याद दिलाया है कि जब वे कस्बे में रहते थे तो वह रोज़ स्कूल अकेली जाती थी। उसने देखा कि कृष्ण मंदिर के बगल में बने प्रांगण में फुटबाल का खेल पहले ही प्रारंभ हो चुका था… वह खिलाड़ियों को देखकर आनंदित होती थी, विशेषतया उसकी रुचि खेल की सक्रियता में थी, तथा कर्कश आवाज़ में की गई टिप्पणियों में भी, जिनसे केलू नैयर बहुत चिढ़ता था…

वह जल्दी से भीड़-भाड़ वाले मंदिर पर आई… इससे पहले कि वह अपने निर्णय पर पश्चाताप करे या वापस जाए, उसने तेज़ी से स्त्रियों के झुंड को पार किया जो फिसलन भरी सीढ़ियों पर लगभग लड़खड़ा रहा था। बड़ी सी घंटी को देखकर वह उत्साह से भर गई, वह केलू नैयर की क्रोधभरी धमकियों को पहचान सकती थी, परंतु वह वहाँ गई, घंटी को एक आवाज़ करती टन-टन से बजाया तथा कैलू नायर के यह महसूस करने से पहले कि क्या हो रहा है, वह सीढ़ियों से नीचे आ गई।

जब कैलू नैयर ने उसे खींचकर मंदिर से बाहर किया उसने धीरे-धीरे क्रोधित चेहरों और मंद होती फुसफुसाहटों को सुना… वह अत्यधिक अपमानित महसूस कर रही थी। उनका मौन उनकी आवाज़ से ज्यादा अर्थपूर्ण था, ठीक इसी तरह से रात्रि भोज पर उसके प्रिय पापड़म की अनुपस्थिति…

(साभार-द बेल, गीता कृष्णकुट्टी)

शब्दावली

सांस्कृतिक विकासवाद- यह संस्कृति का एक सिद्धांत है, जो यह तर्क देता है कि प्राकृतिक स्पीशीज़ की तरह ही संस्कृति का विकास भी विभिन्नता तथा प्राकृतिक चयन द्वारा होता है।

इस्टेट व्यवस्था- सामंतवादी यूरोप में व्यवसाय के अनुसार श्रेणी प्रदान करने की एक व्यवस्था थी। कुलीनता, पुरोहित वर्ग तथा ‘तृतीय इस्टेट’ तीन तरह की इस्टेट्स थी। अंतिम इस्टेट मुख्यतया व्यवसायियों तथा मध्यम वर्ग के लोगों की थी। प्रत्येक इस्टेट अपने प्रतिनिधि का स्वयं चयन करती थी। किसानों तथा मज़दूरों को वोट देने का अधिकार नहीं था।

बृहत परंपरा- इसमें सांस्कृतिक विशेषताएँ या परंपराएँ शामिल हैं जो लिखित हैं तथा समाज के शिक्षित एवं सीखे हुए अभिजात वर्ग द्वारा व्यापक रूप से स्वीकृत हैं।

लघु परंपरा- इसमें संस्कृति की मौखिक विशेषताएँ या परंपराएँ शामिल हैं जो मौखिक है तथा ग्रामीण स्तर पर स्वीकृत हैं।

स्वयं की छवि- दूसरों की निगाह में आपकी छवि।

सामाजिक भूमिकाएँ- यह किसी व्यक्ति की सामाजिक स्थिति या प्रस्थिति के साथ जुड़े अधिकार तथा उत्तरदायित्व हैं।

समाजीकरण- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा हम समाज का सदस्य बनना सीखते हैं।

उप-संस्कृति- एक बड़ी संस्कृति के अंदर लोगों के ऐसे समूह का निर्धारण करना जो प्रतीकों, मूल्यों तथा आस्थाओं को बड़ी संस्कृति से अकसर उधार लेता है तथा प्रायः इन्हें विकृत, अतिरंजित या विपरीत कर देता है ताकि अपने आप को अलग दर्शा सके।

अभ्यास

1. समाजिक विज्ञान में संस्कृति की समझ, दैनिक प्रयोग के शब्द ‘संस्कृति’ से कैसे भिन्न है?

2. हम कैसे दर्शा सकते हैं कि संस्कृति के विभिन्न आयाम मिलकर समग्र बनाते हैं?

3. उन दो संस्कृतियों की तुलना करें जिनसे आप परिचित हों। क्या नृजातीय नहीं बनना कठिन नहीं हैं?

4. सांस्कृतिक परिवर्तनों का अध्ययन करने के लिए दो विभिन्न उपागमों की चर्चा करें।

5. क्या विश्वव्यापीकरण को आप आधुनिकता से जोड़ते हैं? नृजातीयता का प्रेक्षण करें तथा उदाहरण दें।

6. आपके अनुसार आपकी पीढ़ी के लिए समाजीकरण का सबसे प्रभावी अभिकरण क्या है? यह पहले अलग कैसे था, आप इस बारे में क्या सोचते है?



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