अध्याय 06 भारत के संदर्भ में नियोजन और सततपोषणीय विकास

‘नियोजन’ शब्द आपके लिए नया नहीं है क्योंकि यह हमारे दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाले शब्दों का एक अंग है। आपने इस शब्द का प्रयोग अपनी परीक्षा अथवा किसी पर्वतीय स्थल पर जाने के लिए की गई तैयारी के संदर्भ में किया होगा। इसमें सोच-विचार की प्रक्रिया, कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करना तथा उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु गतिविधियों का क्रियान्वयन सम्मिलित है। यद्यपि यह एक शब्द व्यापक है, परंतु इस अध्याय में इसका प्रयोग आर्थिक विकास की प्रक्रिया के संदर्भ में किया गया है। अतः उस तीर और तुक्का विधि से भिन्न है जिससे सुधार और


स्वतत्रंता के बाद भारत में केंद्रीकृत-योजनाओं को अपनाया गया, लेकिन धीरे-धीरे विकेंद्रीकृत बहुस्तरीय योजनाओं की ओर कदम बढ़ाए गए। केंद्र, राज्य तथा जिला स्तर पर योजनाओं को तैयार करने की ज़िम्मेदारी योजना आयोग की थी। परंतु जनवरी 1,2015 को योजना आयोग का स्थान नीति आयोग ने ले लिया।

केंद्रीय तथा राज्य सरकारों को युक्तिगत तथा तकनीकी सलाह देने के लिए भारत के आर्थिक नीति निर्माण में राज्यों की भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से नीति आयोग स्थापित किया गया है।

पुनर्निर्माण का कार्य किया जाता था। सामान्यतः नियोजन के दो उपगमन होते हैं: खंडीय (Sectoral) नियोजन और प्रादेशिक नियोजन। खंडीय नियोजन का अर्थ है- अर्थव्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों, जैसे- कृषि, सिंचाई, विनिर्माण, ऊर्जा, निर्माण, परिवहन, संचार, सामाजिक अवसंरचना और सेवाओं के विकास के लिए कार्यक्रम बनाना तथा उनको लागू करना।

किसी भी देश में सभी क्षेत्रों में एक समान आर्थिक विकास नहीं हुआ है। कुछ क्षेत्र बहुत अधिक विकसित हैं तो कुछ पिछड़े हुए हैं। विकास का यह असमान प्रतिरूप (Pattern) सुनिश्चित करता है कि नियोजक एक स्थानिक परिप्रेक्ष अपनाएँ तथा विकास में प्रादेशिक असंतुलन कम करने के लिए योजना बनाएँ। इस प्रकार के नियोजन को प्रादेशिक नियोजन कहा जाता है।

लक्ष्य क्षेत्र नियोजन

जो क्षेत्र आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं उन क्षेत्रों में नियोजन प्रक्रम को विशेष ध्यान देना चाहिए। जैसा कि आप जानते हैं कि एक क्षेत्र का आर्थिक विकास उसके संसाधनों पर आधारित होता है। लेकिन कभी-कभी संसाधनों से भरपूर क्षेत्र भी पिछड़े रह जाते हैं। आर्थिक विकास के लिए संसाधनों के साथ-साथ तकनीक और निवेश की आवश्यकता होती है। लगभग डेढ़ दशक के नियोजन अनुभवों से, यह महसूस किया गया है कि आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असंतुलन प्रबलित हो रहा था। क्षेत्रीय एवं सामाजिक विषमताओं की प्रबलता को काबू में रखने के क्रम में योजना आयोग ने ‘लक्ष्य क्षेत्र’ तथा ‘लक्ष्य-समूह’ योजना उपागमों को प्रस्तुत किया है। लक्ष्य क्षेत्रों की ओर इंगित कार्यक्रमों के कुछ उदाहरणों में कमान नियंत्रित क्षेत्र विकास कार्यक्रम, सूखाग्रस्त क्षेत्र विकास कार्यक्रम पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम हैं। इसके साथ ही लघु कृषक विकास संस्था (SFDA), सीमांत किसान विकास संस्था (MFDA) आदि कुछ लक्ष्य समूह कार्यक्रम के उदाहरण हैं।
$\quad$ आठवीं पंचवर्षीय योजना में पर्वतीय क्षेत्रों तथा उत्तर-पूर्वी राज्यों, जनजातीय एवं पिछड़े क्षेत्रों में अवसंरचना को विकसित करने के लिए विशिष्ट क्षेत्र योजना को तैयार किया गया।

पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम

पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रमों को पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में प्रारंभ किया गया। और इसके अंतर्गत उत्तर प्रदेश के सारे पर्वतीय ज़िले (वर्तमान उत्तराखण्ड), मिकिर पहाड़ी और असम की उत्तरी कछार की पहाड़ियाँ, पश्चिम बंगाल का दार्जिलिंग ज़िला और तमिलनाडु के नीलगिरी आदि को मिलाकर कुल 15 ज़िले शामिल हैं। 1981 में ‘पिछड़े क्षेत्रों पर राष्ट्रीय समिति ने उन सभी पर्वतीय क्षेत्रों को पिछड़े पर्वतीय क्षेत्रों में शामिल करने की सिफ़ारिश की जिनकी ऊँचाई 600 मीटर से अधिक है और जिनमें जनजातीय उप-योजना लागू नहीं है।

पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए बनी राष्ट्रीय समिति ने निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखकर पहाड़ी क्षेत्रों में विकास के लिए सुझाव दिए : (1) सभी लोग लाभान्वित हों, केवल प्रभावशाली व्यक्ति ही नहीं; (2) स्थानीय संसाधनों और प्रतिभाओं का विकास; (3) जीविका निर्वाह अर्थव्यवस्था को निवेश-उन्मुखी बनाना; (4) अंतः प्रादेशिक व्यापार में पिछड़े क्षेत्रों का शोषण न हो; (5) पिछड़े क्षेत्रों की बाज़ार व्यवस्था में सुधार करके श्रमिकों को लाभ पहुँचाना; (6) पारिस्थिकीय संतुलन बनाए रखना।

पहाड़ी क्षेत्र के विकास की विस्तृत योजनाएँ इनके स्थलाकृतिक, पारिस्थिकीय, सामाजिक तथा आर्थिक दशाओं को ध्यान में रखकर बनाई गई। ये कार्यक्रम पहाड़ी क्षेत्रों में बागवानी का विकास, रोपण कृषि, पशुपालन, मुर्गी पालन, वानिकी, लघु तथा ग्रामीण उद्योगों का विकास करने के लिए स्थानीय संसाधनों को उपयोग में लाने के उद्देश्य से बनाए गए।

सूखा संभावी क्षेत्र विकास कार्यक्रम

इस कार्यक्रम की शुरुआत चौथी पंचवर्षीय योजना में हुई। इसका उद्देश्य सूखा संभावी क्षेत्रों में लोगों को रोज़गार उपलन्ध करवाना और सूखे के प्रभाव को कम करने के लिए उत्पादन के साधनों को विकसित करना था। पाँचवों पंचवर्षीय योजना में इसके कार्यक्षेत्र को और विस्तृत किया गया। प्रारंभ में इस कार्यक्रम के अंतर्गत ऐसे सिविल निर्माण कार्यों पर बल दिया गया जिनमें अधिक श्रमिकों की आवश्यकता होती है। परंतु बाद में इसमें सिंचाई परियोजनाओं, भूमि विकास कार्यक्रमों, वनीकरण, चरागाह विकास और आधारभूत ग्रामीण अवसंरचना जैसे विद्युत, सड़कों, बाज़ार, ऋण सुविधाओं और सेवाओं पर ज़ोर दिया।

पिछड़े क्षेत्रों के विकास की राष्ट्रीय समिति ने इस कार्यक्रम के क्रियान्वयन की समीक्षा की जिसमें यह पाया गया कि यह कार्यक्रम मुख्यतः कृषि तथा इससे संबद्ध सेक्टरों के विकास तक ही सीमित है और पर्यावरणीय संतुलन पुनःस्थापन पर इसमें विशेष बल दिया गया। जनसंख्या वृद्धि के कारण लोग कृषि के लिए सीमांत भूमि का उपयोग करने के लिए बाध्य हैं जिससे पारिस्थितिकीय निम्नीकरण हो रहा है। अतः सूखा संभावी क्षेत्रों में वैकल्पिक रोज़गार अवसर पैदा करने की आवश्यकता है। इन क्षेत्रों का विकास करने की अन्य रणनीतियों में सूक्ष्म-स्तर पर समन्वित जल-संभर विकास कार्यक्रम अपनाना शामिल है। सूखा संभावी क्षेत्रों के विकास की रणनीति में जल, मिट्टी, पौधों, मानव तथा पशु जनसंख्या के बीच पारिस्थितिकीय संतुलन, पुनःस्थापन पर मुख्य रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए।

1967 में योजना आयोग ने देश में 67 ज़िलों (पूर्ण या आंशिक) की पहचान सूखा संभावी ज़िलों के रूप में की। 1972 में सिंचाई आयोग ने 30 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र का मापदंड लेकर सूखा संभावी क्षेत्रों का परिसीमन किया। भारत में सूखा संभावी क्षेत्र मुख्यतः राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र, आंध्र प्रदेश के रायलसीमा और तेलंगाना पठार, कर्नाटक पठार और तमिलनाडु की उच्च भूमि तथा आंतरिक भाग के शुष्क और अर्ध-शुष्क भागों में फैले हुए हैं। पंजाब, हरियाणा और उत्तरी राजस्थान के सूखा प्रभावित क्षेत्र सिंचाई के प्रसार के कारण सूखे से बच जाते हैं।

केस अध्ययन - भरमौर क्षेत्र में समन्वित जनजातीय विकास कार्यक्रम

भरमौर जनजातीय क्षेत्र में हिमाचल प्रदेश के चंबा ज़िले की दो तहसीलें, भरमौर और होली शामिल हैं। यह 21 नवंबर, 1975 से अधिसूचित जनजातीय क्षेत्र है। इस क्षेत्र में ‘गद्दी’ जनजातीय समुदाय का आवास है। इस समुदाय की हिमालय क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान है क्योंकि गद्दी लोग ऋतु-प्रवास करते हैं तथा गद्दीयाली भाषा में बात करते हैं।

भरमौर जनजातीय क्षेत्र में जलवायु कठोर है, आधारभूत संसाधन कम हैं और पर्यावरण भंगुर (fragile) है। इन कारकों ने इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और समाज को प्रभावित किया है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भरमौर उपमंडल की जनसंख्या 39,113 थी अर्थात् 21 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर। यह हिमाचल प्रदेश के आर्थिक और सामाजिक रूप से सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है। ऐतिहासिक तौर पर, गद्दी जनजाति ने भौगोलिक और आर्थिक अलगाव का अनुभव किया है और सामाजिक-आर्थिक विकास से वंचित रही है। इनका आर्थिक आधार मुख्य रूप से कृषि और इससे संबद्ध क्रियाएँ जैसे भेड़ और बकरी पालन हैं।

भरमौर जनजातीय क्षेत्र में विकास की प्रक्रिया 1970 के दशक में शुरू हुई जब गद्दी लोगों को अनुसूचित जनजातियों में शामिल किया गया। 1974 में पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के

यह क्षेत्र $32^{\circ} 11^{\prime}$ उत्तर से $32^{\circ} 41^{\prime}$ उत्तर अक्षांशों तथा $76^{\circ} 22^{\prime}$ पूर्व से $76^{\circ} 53^{\prime}$ पूर्व देशांतरों के बीच स्थित है। यह प्रदेश लगभग 1,818 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है और इसका अधिकतर भाग समुद्र तल से 1500 मीटर से 3700 मीटर की औसत ऊँचाई के बीच स्थित है। गद्दिदयों की आवास भूमि कहलाया जाने वाला यह क्षेत्र चारों दिशाओं में ऊँचे पर्वतों से घिरा हुआ है। इसके उत्तर में पीर पंजाल तथा दक्षिण में धौलाधार पर्वत श्रेणियाँ हैं। पूर्व में धौलाधार श्रेणी का फैलाव रोहतांग दर्रें के पास पीर पंजाल श्रेणी से मिलता है। इस क्षेत्र में रावी और इसकी सहायक नदियाँ बुढ़ील और टुडेंन बहती हैं और गहरे महाखड़ों का निर्माण करती हैं। ये नदियाँ इस पहाड़ी प्रदेश को चार भूखंडों, होली, खणी, कुगती और दुण्डाह, में विभाजित करती हैं। शरद् ऋतु में भरमौर में जमा देने वाली कड़ाके की सर्दी और बर्फ पड़ती है तथा जनवरी में यहाँ औसत मासिक तापमान $4^{\circ}$ सेल्सियस और जुलाई में $26^{\circ}$ सेल्सियस रहता है।

अंतर्गत जनजातीय उप-योजना प्रारंभ हुई और भरमौर को हिमाचल प्रदेश में पाँच में से एक समन्वित जनजातीय विकास परियोजना (आई.टी.डी.पी.) का दर्जा मिला। इस क्षेत्र विकास योजना का उद्देश्य गद्दियों के जीवन स्तर में सुधार करना और भरमौर तथा हिमाचल प्रदेश के अन्य भागों के बीच में विकास

चित्र 6.1

  • भरमौर संस्कृत शब्द ब्रहमौर का अपभंश है। इस पुस्तक में स्थानीय बोली की सुन्दरता को बनाए रखने के लिए भरमौर शब्द का प्रयोग किया गया है।

चित्र 6.2

के स्तर में अंतर को कम करना है। इस योजना के अंतर्गत परिवहन तथा संचार, कृषि और इससे संबंधित क्रियाओं तथा सामाजिक व सामुदायिक सेवाओं के विकास को सर्वाधिक प्राथमिकता दी गई।
$\quad$ इस क्षेत्र में जनजातीय समन्वित विकास उपयोजना का सबसे महत्वपूर्ण योगदान विद्यालयों, जन स्वास्थ्य सुविधाओं, पेयजल, सड़कों, संचार और विद्युत के रूप में अवसंरचना विकास है। परंतु होली और खणी क्षेत्रों में रावी नदी के साथ बसे गाँव अवसंरचना विकास से सबसे अधिक लाभान्वित हुए हैं। तुंदाह और कुगती क्षेत्रों के दूरदराज के गाँव अभी भी इस विकास की परिधि से बाहर हैं।

जनजातीय समन्वित विकास उपयोजना लागू होने से हुए सामाजिक लाभों में साक्षरता दर में तेज़ी से वृद्धि, लिंग अनुपात में सुधार और बाल-विवाह में कमी शामिल हैं। इस क्षेत्र में स्त्री साक्षरता दर 1971 में 1.88 प्रतिशत से बढ़कर 2011 में 65 प्रतिशत हो गई। स्त्री और पुरुष साक्षरता दर में अंतर अर्थात् साक्षरता में लिंग असमानता भी कम हुई है। गद्दियों की परंपरागत अर्थव्यवस्था जीवन निर्वाह कृषि व पशुचारण पर आधारित थी जिसमें खाद्यान्नों और पशुओं के उत्पादन पर बल दिया जाता था। परंतु 20 वीं शताब्दी के अंतिम तीन दशकों के दौरान, भरमौर क्षेत्र में दालों और अन्य नकदी फ़सलों की खेती में बढ़ोतरी हुई है। परंतु यहाँ खेती अभी भी परंपरागत तकनीकों से की जाती है। इस क्षेत्र को अर्थव्यवस्था में पशुचारण के घटते महत्व को इस बात से आँका जा सकता है कि आज कुल पारिवारिक इकाइयों का दसवाँ भाग ही ऋतु प्रवास करता है। परंतु गद्दी जनजाति आज भी बहुत गतिशील है क्योंकि इनकी एक बड़ी संख्या शरद् ऋतु में कृषि और मजदूरी करके आजीविका कमाने के लिए कांगड़ा और आसपास के क्षेत्रों में प्रवास करती है।

सतत पोषणीय विकास

साधारणतया ‘विकास’ शब्द से अभिप्राय समाज विशेष की स्थिति और उसके द्वारा अनुभव किए गए परिवर्तन की प्रक्रिया से होता है। मानव इतिहास के लंबे अंतराल में समाज और उसके जैव-भौतिक पर्यावरण की निरंतर अंतःक्रियाएँ समाज की स्थिति का निर्धारण करती हैं। मानव और पर्यावरण अंतःक्रिया की प्रक्रियाएँ इस बात पर निर्भर करती हैं कि समाज में किस प्रकार की प्रौद्योगिकी विकसित की है और किस प्रकार की संस्थाओं का पोषण किया है। प्रौद्योगिकी और संस्थाओं ने मानव-पर्यावरण अंतःक्रिया को गति प्रदान की है तो इससे पैदा हुए संवेग ने प्रौद्योगिकी का स्तर उँचा उठाया है और अनेक संस्थाओं का निर्माण और रूपांतरण किया है। अतः विकास एक बहु-आयामी संकल्पना है और अर्थव्यवस्था, समाज तथा पर्यावरण में सकारात्मक व अनुत्क्रमीय परिवर्तन का द्योतक है।

विकास की संकल्पना गतिक है और इस संकल्पना का प्रादुर्भाव 20 वों शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ है। द्वितीय विश्व युद्ध के उपरांत विकास की संकल्पना आर्थिक वृद्धि की पर्याय थी जिसे सकल राष्ट्रीय उत्पाद, प्रति व्यक्ति आय और प्रति व्यक्ति उपभोग में समय के साथ बढ़ोतरी के रूप में मापा जाता है। परंतु अधिक आर्थिक वृद्धि वाले देशों में भी असमान वितरण के कारण गरीबी का स्तर बहुत तेज़ी से बढ़ा। अतः 1970 के दशक में ‘पुनर्वितरण के साथ वृद्धि’ तथा ‘वृद्धि और समानता’ जैसे वाक्यांश विकास की परिभाषा में शामिल किए गए। पुनर्वितरण और समानता के प्रश्नों से निपटते हुए यह अनुभव हुआ कि विकास की संकल्पना को मात्र आर्थिक प्रक्षेत्र तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। इसमें लोगों के कल्याण और रहने के स्तर, जन स्वास्थ्य, शिक्षा, समान अवसर और राजनीतिक तथा नागरिक अधिकारों से संबंधित मुद्दे भी सम्मिलित हैं। 1980 के दशक तक विकास एक बहु-आयामी संकल्पना के रूप में उभरा जिसमें समाज के सभी लोगों के लिए वृहद् स्तर पर सामाजिक एवं भौतिक कल्याण का समावेश है।

1960 के दशक के अंत में पश्चिमी दुनिया में पर्यावरण संबंधी मुदों पर बढ़ती जागरूकता की सामान्य वृद्धि के कारण सतत पोषणीय धारणा का विकास हुआ। इससे पर्यावरण पर औद्योगिक विकास के अनापेक्षित प्रभावों के विषय में लोगों की चिंता प्रकट होती थी। 1968 में प्रकाशित एहरलिच की पुस्तक ‘द पापुलेशन बम’ और 1972 में मीडोस और अन्य द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘द लिमिट टू ग्रोथ’ के प्रकाशन ने इस विषय पर लोगों और विशेषकर पर्यावरणविदों की चिंता और भी गहरी कर दी। इस घटनाक्रम के परिपेक्ष्य में विकास के एक नए माडल जिसे ‘सतत पोषणीय विकास’ कहा जाता है, की शुरुआत हुई। पर्यावरणीय मुद्दों पर विश्व समुदाय की बढ़ती चिंता को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘विश्व पर्यावरण और विकास आयोग’ (WECD) की स्थापना की जिसके प्रमुख नार्वे की प्रधान मंत्री गरो हरलेम ब्रंटलैंड थीं। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट ‘अवर कॉमन फ्यूचर’ (जिसे ब्रंटलैंड रिपोर्ट भी कहते हैं) 1987 में प्रस्तुत की। WECD ने सतत पोषणीय विकास की सीधी-सरल और वृहद् स्तर पर प्रयुक्त परिभाषा प्रस्तुत की।

चित्र 6.3

चित्र 6.4 : इंदिरा गांधी नहर

इस रिपोर्ट के अनुसार सतत पोषणीय विकास का अर्थ है- ‘एक ऐसा विकास जिसमें भविष्य में आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकता पूर्ति को प्रभावित किए बिना वर्तमान पीढ़ी द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति करना।’

केस अध्ययन

इंदिरा गांधी नहर कमान क्षेत्र

इंदिरा गांधी नहर, जिसे पहले राजस्थान नहर के नाम से जाना जाता था, भारत में सबसे बड़े नहर तंत्रों में से एक है। 1948 में कँवर सेन द्वारा संकल्पित यह नहर परियोजना 31 मार्च, 1958 को प्रारंभ हुई। यह नहर पंजाब में हरिके बाँध से निकलती है और राजस्थान के थार मरुस्थल (मरुस्थली) पाकिस्तान सीमा के समानांतर 40 कि.मी. की औसत दूरी पर बहती है। इस नहर तंत्र की कुल नियोजित लंबाई 9060 कि. मी. है और यह 19.63 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य कमान क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा प्रदान करेगी। कुल कमान क्षेत्र में से 70 प्रतिशत क्षेत्र प्रवाह नहर तंत्रों और शेष क्षेत्र लिफ्ट तंत्र द्वारा किया जाएगा। नहर का निर्माण कार्य दो चरणों में पूरा किया गया है। चरण-I का कमान क्षेत्र गंगानगर, हनुमानगढ़ और बीकानेर ज़िले के उत्तरी भाग में पड़ता है। इस चरण के कमान क्षेत्र का भूतल थोड़ा ऊबड़-खाबड़ है और इसका कृषि योग्य कमान क्षेत्र 5.53 लाख हेक्टेयर है। चरण-II का कमान क्षेत्र बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर, जोधपुर, नागौर और चुरू ज़िलों में 14.10 लाख हेक्टेयर कृषियोग्य भूमि पर फैला हुआ है। इसमें स्थानांतरित बालू टिब्बों वाला मरुस्थल भी सम्मिलित है; जहाँ स्थानांतरी बालू टिब्बे पाए जाते हैं और ग्रीष्म ऋतु में तापमान $50^{\circ}$ सेल्सियस तक पहुँच जाता है। लिफ्ट नहर में ढाल के विपरीत प्रवाह के लिए जल को

चित्र 6.5 : इंदिरा गांधी नहर और उसके समीपस्थ क्षेत्र

बार-बार मशीनों से ऊपर उठाया जाता है। इंदिरा गांधी नहर तंत्र में सभी लिफ्ट नहरें मुख्य नहर के बाएँ किनारे से निकलती हैं जबकि मुख्य नहर के दाएँ किनारे पर सभी नहरें प्रवाह प्रणाल हैं।

चरण-I के कमान क्षेत्र में सिंचाई की शुरुआत 1960 के दशक के आरंभ में हुई जबकि चरण-II कमान क्षेत्र में 1980 के दशक के मध्य में सिंचाई आरंभ हुई। नहर सिंचाई के प्रसार ने इस शुष्क क्षेत्र की पारिस्थितिकी, अर्थव्यवस्था और समाज को रूपांततरित कर दिया है। इससे इस क्षेत्र को पर्यावरणीय परिस्थितियों पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के प्रभाव पड़े हैं। लंबी अवधि तक मृदा नमी उपलब्ध होने और कमान क्षेत्र विकास के तहत शुरू किए गए वनीकरण और चरागाह विकास कार्यक्रमों से यहाँ भूमि हरी- भरी हो गई है। इससे वायु अपरदन और नहरी तंत्र में बालू निक्षेप की प्रक्रियाएँ भी धीमी पड़ गई हैं। परंतु सघन सिंचाई और जल के अत्यधिक प्रयोग से जल भराव और मृदा लवणता की दोहरी पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गईं।

नहरी सिंचाई के प्रसार से इस प्रदेश की कृषि अर्थव्यवस्था प्रत्यक्ष रूप में रूपांतरित हो गई है। इस क्षेत्र में सफलतापूर्वक फ़सलें उगाने के लिए मृदा नमी सबसे महत्वपूर्ण सीमाकारी कारक रहा है। परंतु नहरों द्वारा सिंचित क्षेत्र के विस्तार से बोये गये क्षेत्र में विस्तार हुआ है और फ़सलों की सघनता में वृद्धि हुई है। यहाँ की पारंपरिक फ़सलों, चना, बाजरा और ग्वार का स्थान गेहूँ, कपास, मूँगफली और चावल ने ले लिया है। यह सघन सिंचाई का परिणाम है। निःसंदेह, सघन सिंचाई से आरंभ में कृषि और पशुधन उत्पादकता में अत्यधिक वृद्धि हुई। जल भराव और मृदा लवणता की समस्याएँ उत्पन्न हुईई और इस प्रकार लंबी अवधि के दौरान कृषि की सतत पोषणता पर ही प्रश्न उठ गए हैं।

सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले उपाय

बहुत से विद्वानों ने इंदिरा गांधी नहर परियोजना की पारिस्थितिकीय पोषणता पर प्रश्न उठाए हैं। पिछले चार दशक में, जिस तरह से इस क्षेत्र में विकास हुआ है और इससे जिस तरह भौतिक पर्यावरण का निम्नीकरण हुआ है, ने विद्वानों के इस दृष्टिकोण को काफ़ी हद तक सही ठहराया भी। यह एक मान्य तथ्य है कि इस कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए मुख्य रूप से पारिस्थितिकीय सतत पोषणता पर बल देना होगा। इसलिए, इस कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले प्रस्तावित सात उपायों में से पाँच उपाय पारिस्थतिकीय संतुलन पुनःस्थापित करने पर बल देते हैं।

(i) पहली और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता है जल प्रबंधन नीति का कठोरता से कार्यान्वयन करना। इस नहर परियोजना के चरण-1 में कमान क्षेत्र में फ़सल रक्षण सिंचाई और चरण-2 में फ़सल उगाने और चरागाह विकास के लिए विस्तारित सिंचाई का प्रावधान है।

(ii) इस क्षेत्र के शस्य प्रतिरूप में सामान्यतः जल सघन फ़सलों को नहीं बोया जाना चाहिए। इसका पालन करते हुए किसानों का बागाती कृषि के अंतर्गत खट्टे फलों की खेती करनी चाहिए। (iii) कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम जैसे नालों को पक्का करना, भूमि विकास तथा समतलन और वारबंदी (ओसरा) पद्धति (निकास के कमान क्षेत्र में नहर के जल का समान वितरण) प्रभावी रूप से कार्यान्वित की जाए ताकि बहते जल की क्षति मार्ग में कम हो सके।

(iv) इस प्रकार जलाक्रांत एवं लवण से प्रभावित भूमि का पुनरूद्धार किया जाएगा।

(v) वनीकरण, वृक्षों का रक्षण मेखला (shelterbelt) का निर्माण और चरागाह विकास। इस क्षेत्र, विशेषकर चरण-2 के भंगुर पर्यावरण, में पारितंत्र-विकास (ecodevelopment) के लिए अति आवश्यक है।

(vi) इस प्रदेश में सामाजिक सतत पोषणता का लक्ष्य तभी हासिल किया जा सकता है यदि निर्धन आर्थिक स्थिति वाले भूआवंटियों को कृषि के लिए पर्याप्त मात्रा में वित्तीय और संस्थागत सहायता उपलब्ध करवाई जाए।

(vii) मात्र कृषि और पशुपालन के विकास से इस क्षेत्रों में आर्थिक सतत पोषणीय विकास की अवधारणा को साकार नहीं किया जा सकता। कृषि और इससे संबंधित क्रियाकलापों को अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टरों के साथ विकसित करना पड़ेगा। इनसे इस क्षेत्र में आर्थिक विविधीकरण होगा तथा मूल आबादी गाँवों, कृषि-सेवा केंद्रों (सुविधा गाँवों) और विपणन केंद्रों (मंडी कस्बों) के बीच प्रकार्यात्मक संबंध स्थापित होगा।

अभ्यास

1. नीचे दिए गए चार विकल्पों में से सही उत्तर को चुनिए।

(i) प्रदेशीय नियोजन का संबंध है-

(क) आर्थिक व्यवस्था के विभिन्न सेक्टरों का विकास
(ख) क्षेत्र विशेष के विकास का उपागम
(ग) परिवहन जल तंत्र में क्षेत्रीय अंतर
(घ) ग्रामीण क्षेत्रों का विकास

(ii) आई.टी.डी.पी. निम्नलिखित में से किस संदर्भ में वर्णित है?

(क) समन्वित पर्यटन विकास प्रोग्राम
(ख) समन्वित यात्रा विकास प्रोग्राम
(ग) समन्वित जनजातीय विकास प्रोग्राम
(घ) समन्वित परिवहन विकास प्रोग्राम

(iii) इंदिरा गाँधी नहर कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास के लिए इनमें से कौन-सा सबसे महत्वपूर्ण कारक है?

(क) कृषि विकास
(ख) पारितंत्र-विकास
(ग) परिवहन विकास
(घ) भूमि उपनिवेशन

2. निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर लगभग 30 शब्दों में दें।

(i) भरमौर जनजातीय क्षेत्र में समन्वित जनजातीय विकास कार्यक्रम के सामाजिक लाभ क्या हैं?
(ii) सतत पोषणीय विकास की संकल्पना को परिभाषित करें।
(iii) इंदिरा गांधी नहर कमान क्षेत्र का सिंचाई पर क्या सकारात्मक प्रभाव पड़ा?

3. निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर लगभग 150 शब्दों में दें।

(i) सूखा संभावी क्षेत्र कार्यक्रम पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें। यह कार्यक्रम देश में शुष्क भूमि कृषि विकास में कैसे सहायक है?
(ii) इंदिरा गाँधी नहर कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने के लिए उपाय सुझाएँ।

परियोजना

(i) अपने क्षेत्र में कार्यान्वित किए जा रहे क्षेत्र विकास कार्यक्रमों के बारे में पता लगाएँ। इन कार्यक्रमों का आपके आसपास समाज और अर्थव्यवस्था पर हुए प्रभाव का विश्लेषण करें।
(ii) आप अपना क्षेत्र चुनें अथवा एक ऐसे क्षेत्र की पहचान करें जहाँ बहुत गंभीर पर्यावरणीय और सामाजिक आर्थिक समस्याएँ हैं। इस क्षेत्र के संसाधनों का अनुमान लगाएँ और उनकी एक सूची तैयार करें। जैसा कि इंदिरा गांधी नहर कमान क्षेत्र के लिए किया गया है, इस क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास को बढ़ावा देने वाले उपाय सुझाएँ।



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