विकास

विकासीय जीव विज्ञान पृथ्वी पर जीव-रूपों के इतिहास का अध्ययन है। वस्तुतः विकास में है क्या? वनस्पति एवं प्राणि जगत में करोड़ों वर्ष पूर्व पृथ्वी पर हुए परिवर्तनों को समझने के लिए जीवन की उत्पत्ति के बारे में एक समझ बनानी अपेक्षित है। अर्थात् हमें पृथ्वी, तारों और यहाँ तक कि स्वयं ब्रह्मांड के विकास को जानना होता है। अटकलबाजियों से पूर्ण कल्पित कहानियों के क्रम देखने-सुनने में आते हैं। यह कहानी जीवन की उत्पत्ति और पृथ्वी नामक ग्रह पर जीवन के रूपों का विकास या जैवविविधता की है, जोकि पृथ्वी के विकास एवं स्वयं ब्रह्मांड के विकास की पृष्ठभूमि के साथ सन्निहित है।

6.1 जीवन की उत्पत्ति

जब हम साफ स्वच्छ अंधेरी रात में आसमान की ओर तारों को देखते हैं, तो हम लोग एक तरह से बीते हुए समय की ओर देखते हैं। तारकीय दूरियों को प्रकाश वर्षों (लाइट इयर) में मापा गया है। आज हम जिस वस्तु को तारों के रूप में देखते हैं उसकी प्रकाश-यात्रा लाखों वर्ष पूर्व शुरू हुई थी। वे हमसे करोड़ों-अरब मील दूर हैं और हमारी आँखों तक पहुँच रहे हैं। हालाँकि; हम अपने आस-पास की चीजों को जब देखते हैं तो वे हमें तुरंत दिख जाती हैं; चूँक वे वर्तमान काल की हैं। इसी तरह से जब हम सितारों को देखते हैं तो हम स्पष्ट रूप से भूतकाल में ताक-झाँक कर रहे होते हैं।

जीवन की उत्पत्ति को, ब्रह्मांड के इतिहास में एक अनूठी घटना माना गया है। ब्रह्मांड विशाल है। सही मायने में कहा जाए तो पृथ्वी ही अपने आप में ब्रह्मांड की एक कणिका मात्र है। ब्रह्मांड अत्यंत ही प्राचीन, लगभग 20,000 करोड़ ( 200 बिलियन) वर्ष पुराना है। ब्रह्मांड में आकाश गंगाओं के विशाल समूह समेकित हैं। आकाश गंगाओं में सितारों और गैसों के बादल एवं धूल समाहित रहते हैं। ब्रह्मांड के आकार को ध्यान में रखते हुए पृथ्वी केवल एक बिंदु या कणिका मात्र है। ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में हमें ‘बिग बैंग’ नामक महाविस्फोट का सिद्धांत कुछ बताने का प्रयास करता है। यह एक अनूठी कल्पना से परे महाविस्फोट का भौतिक रूप है। इसके फलस्वरूप ब्रह्मांड का विस्तार हुआ और तापमान में कमी आई। कुछ समय बाद हाइड्रोजन एवं हीलियम गैसें बनी। ये गैसें गुरूत्वाकर्षण के कारण संघनीभूत हुईं और वर्तमान ब्रह्मांड की आकाश गंगाओं का गठन हुआ। ‘मिल्की वे’ नामक आकाशगंगा के सौर-मंडल में पृथ्वी की रचना 4.5 बिलियन वर्ष ( 450 करोड़) पूर्व माना जाता है। प्रारंभिक अवस्था में पृथ्वी पर वायुमंडल नहीं था। जल, वाष्प, मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड तथा अमोनिया आदि धरातल को ढकने वाले गलित पदार्थों से निर्मुक्त हुईं। सूर्य से आनेवाली पराबैंगनी (अल्ट्रावॉयलेट) किरणों ने पानी को $\mathrm{H} _{2}$ तथा $\mathrm{O} _{2}$ (हाइड्रोजन व ऑक्सीजन) में विखंडित कर दिया तथा हल्की $\mathrm{H} _{2}$ मुक्त हो गई। ऑक्सीजन ने अमोनिया एवं मीथेन के साथ मिलकर पानी, कार्बन डाईऑक्साइड $\left(\mathrm{CO} _{2}\right)$ तथा अन्य गैसों आदि की रचना की। पृथ्वी के चारों ओर ओजोन परत का गठन हुआ। जब यह ठंडा हुआ तो जल-वाष्प बरसात के रूप में बरसी और गहरे स्थान भर गए, जिससे महासागरों की रचना हुई। पृथ्वी की उत्पत्ति के लगभग 50 करोड़ ( 500 मिलियन) वर्ष के बाद अर्थात् लगभग 400 करोड़ वर्ष पहले जीवन प्रकट हुआ।

क्या जीवन अंतरिक्ष से आया था? कुछ वैज्ञानिकों का यह विश्वास है कि अंतरिक्ष से ही आया है। पूर्व ग्रीक विचारकों का मानना है कि जीवन की ‘स्पोर’ नामक इकाई विभिन्न या अनेक ग्रहों में स्थानांतरित हुई, पृथ्वी जिनमें एक थी। कुछ खगोल वैज्ञानिक ‘पैन-स्पर्मिया’ (सर्वबीजाणु) को अभी भी अपना मनपसंदीदा सिद्धांत मानते हैं। काफी समय तक यह भी माना जाता रहा गया कि जीवन क्षयमान और सड़ती हुई सामग्री जैसे कि भूसे, कीचड़ आदि से प्रकट हुआ। यह स्वतः जनन (स्पोंटेनियस जेनरेशन) नामक सिद्धांत था। लुई पाश्चर ने सावधानीपूर्वक प्रयोगों को करते हुए यह प्रदर्शित किया कि जीवन पहले से विद्यमान जीवन से ही निकल कर आता है। उसने यह प्रदर्शित किया कि पहले से जीवाणुरहित किए गए फ्लास्क में ‘मृत यीस्ट’ से जीव नहीं पैदा होते हैं जबकि दूसरे खुले फ्लास्क में ‘मृत यीस्ट’ को रखने से कुछ समय बाद नए जीव आ जाते हैं। इस प्रकार से स्वतः जनन सिंद्धात को एक बार सदा के लिए खारिज कर दिया गया। हालाँकि, इन सब बातों से यह उत्तर नहीं मिलता कि पृथ्वी पर जीवन सबसे पहले कब आया?

रूस के आपेरिन तथा इंग्लैंड के हालडेन नामक वैज्ञानिकों ने यह प्रस्तावित किया कि जीवन का पहला स्वरूप पूर्व-विद्यमान जीवन-रहित कार्बनिक अणु (उदाहरण-आरएनए, प्रोटीन इत्यादि) से आया हुआ हो सकता है और जीवन की वह रचना उस रासायनिक विकास के बाद घटित हुई थी जिससे अकार्बनिक संघटकों से विविध कार्बनिक अणु का गठन हो सका। उस समय पृथ्वी की अवस्था उच्च ताप युक्त, ज्वालामुखीय तूफान वाली तथा वायुमंडल में मिथेन, अमोनिया आदि की कमी वाली थी। एक अमेरिकी वैज्ञानिक एस.एल. मिलर ने 1953 में अपनी प्रयोगशाला में इसी पैमाने कि स्थितियाँ पैदा की (चित्र 6.1)। इसने एक बंद फ्लास्क में निहित मिथेन, हाइड्रोजन, अमोनिया तथा $800^{\circ} \mathrm{C}$ सेल्सियस पर ताप के साथ एक विद्युत-डिस्चार्ज कर देखा कि अमीनो एसिड बनता है। अन्य लोगों ने भी ठीक इसी प्रकार के प्रयोग द्वारा शर्कराओं, नाइट्रोजेन क्षारकों, वर्णकों तथा वसा आदि प्राप्त किए उल्काओं की अंतर्वस्तुओं के विश्लेषण से प्रकट हुआ कि ठीक ऐसी ही प्रक्रिया अंतरिक्ष के किसी अन्य स्थान पर (ऐसी घटना) घटित होती रही होगी। सीमित साक्ष्यों के आधार पर निराधार कल्पना वाली कहानियों के पहले भाग अर्थात् रासायनिक विकास को भी थोड़ी बहुत मात्रा के रूप में स्वीकृत किया जा सकता है।

चित्र 6.1 मिलर के प्रयोग का आरेखीय निरूपण

हमें यह आभास ही नहीं है कि जीवन का स्वतः प्रतिकृतिक्षम चयापचयी कैप्सूल कब पैदा हुआ। जीवन का प्रथम अकोशिकीय रूप 3 अरब ( 300 करोड़) ( 3 बिलियन) वर्ष पूर्व पैदा हुआ होगा। वे भीमकाय अणु (आर एन ए, प्रोटीन, पौलीसैक्केराइडों के) रहे होंगे। ये कैप्सूल अपने अणुओं का जनन भी करते रहे होंगे। सर्वप्रथम कोशिकीय प्रकार का जीवन का रूप 200 करोड़ वर्ष तक प्रकट नहीं हुआ होगा। कदाचित् ये एक कोशिकीय रहे होंगे। सभी रूप उस समय जलीय वातावरण में ही रहे होंगे। अजीवात् जनन अर्थात् जीवन की अजीवों से उत्पत्ति के सिद्धांत की स्वीकृति को आज बहुमत मिला है। फिर भी, एक बार बन चुकने पर किस प्रकार कोशिकीय जीवन के प्रथम प्रतिनिधियों ने आज की जटिल जैव विविधता प्राप्त की। इस पर आगे चर्चा की गई है।

6.2 जीवन-स्वरूप का विकास - एक सिद्धांत

परंपरागत धार्मिक साहित्य हमें एक विशेष सृष्टि का सिद्धांत बताता है। इस सिद्धांत के तीन अभिधान हैं। पहले सिद्धांत के अनुसार संसार में आज जितने भी जीव एवं प्रजातियाँ विद्यमान हैं, वे सब ऐसे ही सर्जित हुई होंगी। दूसरे सिद्धांत के अनुसार, उत्पत्ति के समय से ही यह जैव विविधता थी और भविष्य में भी ऐसी ही रहेगी। तीसरे के अनुसार पृथ्वी केवल 4000 वर्ष प्राचीन है और सभी विचारों में प्रचंड परिवर्तन 19 वीं सदी में आए होंगे। यह अवधारणा एच एम एस बीगल नामक विश्व-समुद्री जहाज यात्रा के दौरान अवलोकनों पर आधारित है। चार्ल्स डार्विन ने निष्कर्ष निकाला कि विद्यमान सजीव कमोवेश आपस में तो समानताएँ रखते ही हैं; बल्कि उन जीव रूपों से भी समानता रखते हैं जो करोड़ों वर्ष पूर्व के समय विद्यमान थीं। अब बहुत सारे जीव रूप जीवित विद्यमान नहीं हैं। यहाँ पर (धरती में) जीवों के विभिन्न स्वरूप गुजरते वर्षो के साथ नष्ट होते गए और धरती के इतिहास में विभिन्न अवधियों पर नए जीव रूप पैदा होते गए। यहाँ पर जीव रूपों का धीमा विकास होता रहा। प्रत्येक जीव संख्या में विभिन्नता निहित होती रही। जिन विशिष्टताओं ने इन्हें जीवित रह सकने में (जलवायु, भोजन, भौतिक-कारक आदि ने) सहायता दी। वे इन्हें अन्यों की अपेक्षा अधिक जननक्षम भी बना सकीं। दूसरे शब्दों में; जीव या जीव संख्या में उपयुक्तता थी। यह उपयुक्तता डार्विन के अनुसार जनन संबंधी उपयुक्तता ही रह जाती है। जो वातावरण में अधिक उपयुक्त थे उनकी अधिक संताने हुईं। अंत में उनका वरण होता गया। डार्विन ने इसे प्राकृतिक वरण (चुनाव) का नाम दिया और इसे विकास के प्रतिमान के रूप में लागू किया। आइए! एक प्रकृति विज्ञानी एल्फ्रेड वॉलेस को भी स्मरण करें जिन्होंने मलयआर्कपेलैगो पर काम किया। इन्होंने भी ठीक इसी समय पर, लगभग इसके आस पास यही निष्कर्ष निकाला। समय गुजरने के साथ, स्पष्ट रूप से नए प्रकार के जीव पहचान में आते गए। विद्यमान सभी जीव रूप समानताओं में भागीदारी रखते हैं तथा एक साझे पूर्वज के हिस्सेदार होते हैं। हालाँकि ये पूर्वज पृथ्वी के इतिहास के विभिन्न समयों (युगों, अवधियों तथा कालों) में विद्यमान थे। पृथ्वी का भूवैज्ञानिक इतिहास पृथ्वी के जीव वैज्ञानिक इतिहास के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है। औचित्यपूर्ण साराँश यह है कि पृथ्वी बहुत पुरानी है जो कि पुराने विचारों के अनुसार हजारों वर्ष नहीं; बल्कि करोड़ों-अरबों वर्ष पुरानी है।

6.3 विकास के प्रमाण क्या हैं?

पृथ्वी पर जीवों का विकास हुआ, इस बात के प्रमाण कई हैं। पहला चट्टानों के अंदर जीवाश्म रूप में जीवन के कठोर अंगों के अवशेष में विद्यमान हैं। चट्टानें अवसाद या तलछट से बनी होती हैं और भूपर्थरी (अर्थक्रस्ट) का एक अनुप्रस्थ काट यह संकेत देता है कि एक तलछट पर दूसरे तलछट की परत पृथ्वी के लंबे इतिहास की गवाह है। भिन्न आयु की चट्टानों की तलछट में भिन्न जीव रूप पाए गए हैं जो कि संभवतः उस विशेष तलछट के निर्माण के दौरान मरे थे। उनमें से कुछ आधुनिक जीवों से मिलते-जुलते हैं (चित्र 6.2)। वे विलुप्त जीवों (जैसे डायनासोर) का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपर्युक्त अध्ययन बतलाते हैं कि समय-समय पर पृथ्वी पर जीवन के रूप बदलते रहे हैं और कुछ रूप विशेष भूवैज्ञानिक काल तक ही सीमित रहे। अर्थात् जीवों के रूप विभिन्न कालों में प्रकट हुए। इन सभी को पैलेओंटोलोजिकल (पुराजीवी) प्रमाण कहा जाता है। क्या तुम्हें याद है कि जीवाश्मों की आयु की गणना किस प्रकार होती है? रेडियोऐक्टिव तिथि निर्धारण और इसके सिद्धांत क्या हैं?

चित्र 6.2 डाइनोसोरों का वंश-वृक्ष और उनके आज के मिलते-जुलते जीव जैसे मगरमच्छ, पक्षी आदि

विकास के लिए भ्रूणात्मक समर्थन भी अर्नेस्ट हेकल द्वारा प्रस्तावित किया गया। ये प्रमाण कुछ विशिष्ट संरचनाओं के प्रेक्षण पर आधारित थे जो सभी कशेरुकी जीवों के भ्रूण में उभयनिष्ठ रूप से पाए जाते हैं, परंतु वयस्क जंतुओं में अनुपस्थित होते हैं। उदाहरणतः मनुष्य सहित सभी कशेरुकी जंतुओं के भूरण में सिर के ठीक पीछे अवशेषी गलफड़ों की शृंखला विकसित होती है। गलफड़े केवल मत्स्य में ही क्रियाशील होते हैं तथा किसी अन्य वयस्क कशेरुकी जंतुओं में अनुपस्थित होते हैं परंतु यह प्रस्ताव कार्ल-अर्नेस्ट बेयर द्वारा सावधानीपूर्वक किए गए गहन अध्ययन के आधार पर अस्वीकार कर दिया गया। उसने देखा कि भ्रूण कभी भी अन्य जंतुओं की वयस्क अवस्थाओं से नहीं गुज़रता।

तुलनात्मक शरीर विज्ञान (शारीरिकी) या आकृति विज्ञान (आकारिकी) आज के जीवों में तथा वर्षों पूर्व विद्यमान जीवों के बीच एकरूपता एवं विभिन्नता दर्शाता है। इस प्रकार की समानताओं को साझे पूर्वजों के साथ के रिश्ते के रूप में जाना जा सकता है।

उदाहरण के लिए ह्वेल, चमगादड़ों, चीता और मानव (सभी स्तनधारी) अग्रपाद की अस्थियों में समानता दर्शाते हैं। वे यद्यपि भिन्न क्रियाकलाप संपन्न करते हैं; परंतु उनकी शारीरिक संरचना समान होती है; जैसे कि प्रगंडिका (ह्यूमरस), प्रकोष्ठिका (रेडिअस), अंतः प्रकोष्ठिका (अलना), मणिबंधिका (कार्पेल्स), करभिका ( मेटाकार्पेल्स) तथा अंगुलास्थि (फैलांजेस) आदि। भिन्न-भिन्न कार्य संपन्न करने के कारण वही रचना भिन्न रूप ले लेती है। ये अपसारी विकास है और यह संरचनाएँ समजातीय होती है; जिसमें समान पूर्वज परंपराएँ होती हैं। इस घटना को समजातता कहते हैं। इसके अन्य उदाहरण कशेरूकीय हृदयों एवं मस्तिष्कों की हैं। इसी प्रकार से पेड़ों में भी बोगनबिलिया एवं क्युकरबिटा के काँटों एवं प्रतानों (टेंड्रिल्स) में भी समजातता का प्रदर्शन दिखता है। तुल्यरूपता बिल्कुल विपरीत स्थिति को दिखलाती है। पक्षी एवं तितलियों के पंख लगभग एक समान दिखते हैं; लेकिन इनमें पूर्वज परंपरा सामान्य नहीं है और न ही शरीर की रचना में समानता है। भले ही वे समान क्रिया को संपन्न करते हैं। इसके अलावा अनुरूपता या तुल्यरूपता का उदाहरण ऑक्टोपस (अष्टभुज) तथा स्तनधारियों की आँखों की है या पेंग्विन और डॉल्फिन मछलियों के पक्षों (फ्लिपर्स) में अनुरूपता है। कोई तर्क दे सकता है कि समान आवासीय विशिष्टताओं के कारण जीव के समूहों ने समान अनुकूली विशिष्टताओं को चयनित किया; क्योंकि उनके कार्यकलाप समान थे फिर भी उनकी अनुरूपता का आधार अभिसारी विकास है। ठीक इसी प्रकार से समजातता भी अपसारी विकास पर आधारित है। तुल्यरूपता के अन्य उदाहरण शकरकंदी (जड़/मूल - रूपांतर) तथा आलू (तना-रूपांतर) (चित्र 6.3) है।

तर्क के ठीक इसी बिंदु पर, प्रोटीनों एवं जीनों की कार्यदक्षता की समानताएँ विविध जीवों की निश्चित क्रियाशीलता; एक सामान्य पूर्वज परंपरा का संकेत देती हैं। जैव रासायनिक समानताएँ भी ठीक उसी साझी वाली पूर्वज परंपरा की ओर इशारा करती हैं; जैसी कि विविध जीवों के बीच संरचनात्मक समानताओं में थीं।

मनुष्य ने पादपों एवं पशुओं को कृषि, बागवानी, खेल तथा सुरक्षा के लिए चुना और बहुत सारे जंगली जानवरों को पालतू बनाया तथा खेती-फसलें उगाईं। इन सघन प्रजनन कार्यक्रमों द्वारा नस्लें तैयार हुईं; जोकि अन्य वंश प्रकारों से भिन्न थीं (जैसे कुत्ता); लेकिन फिर भी वह उसी समूह से है। यह तर्क दिया जा रहा है कि यद्यपि मनुष्य सौ साल के भीतर नई नस्ल पैदा कर सकता है तो प्रकृति भी यही कार्य लाखों-लाख वर्ष में क्यों नहीं कर सकती।

चित्र 6.3 समजात अंगों के उदाहरण (अ) पौधे और (ब) जानवर

प्राकृतिक वरण के समर्थन में एक अन्य अवलोकन इंग्लैंड में शलभों (मॉथ) के संग्रह का है। शहरी क्षेत्रों में देखा गया है कि औद्योगिकीकरण शुरू होने के पूर्व अर्थात् 1850 ई. से पहले यदि संग्रह किया जाता तो पेड़ों पर श्वेत पंखी शलभ गहरे वर्णो के शलभों की अपेक्षा संख्या में अधिक होते। अब औद्योगिकीकरण के पश्चात् 1920 में किए गए संग्रह यह संकेत देते हैं कि ठीक उसी क्षेत्र में गहरे रंग के शलभ अधिसंख्यक थे अर्थात् अनुपात उलटा हो गया।

चित्र 6.4 श्वेत पंखों और काले पंखों वाले शलभों के वृक्ष के तने पर, के चित्र (अ) प्रदूषण रहित और (ब) प्रदूपित क्षेत्रों में

इस प्रेक्षण का स्पष्टीकरण इस प्रकार दिया गया। औद्योगिकीकरण के बाद वाली अवधि में उद्योगों के धुएँ और कालिख के कारण पेड़ों के तने काले पड़ गए। इस कारण शलभों का आखेट करने वाले प्राणियों की निगाह से काले शलभ बच गए और श्वेत शलभ अधिक मारे गए। औद्योगिकीकरण के पूर्व वृक्षों पर श्वेत लाइकेन उगा करते थे और इस पृष्ठभूमि में श्वेत शलभ बच जाते थे और काले शलभ शिकारियों की पकड़ में आ जाते थे। क्या आप जानते हैं कि लाइकेन औद्योगिक प्रदूषण के सूचक होते हैं। ये प्रदूषित स्थानों में नहीं उगते। इसीलिए शलभ इनके छद्मावरण में सुरक्षित रह पाते थे। इस मान्यता को समर्थन इस तथ्य से मिलता है कि ग्रामीण इलाकों में जहाँ औद्योगिकीकरण नहीं हुआ। अश्वेत शलभों की संख्या कम थी। मिश्र जीव संख्या में जो अनुकूलित हो गया; वह बचा रहा और उसकी संख्या बढ़ती गयी। याद रहे कि किसी भी जीव का पूर्ण विनाश नहीं होता।

ठीक इसी प्रकार, शाकनाशकों एवं कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के परिणाम स्वरूप कम समयावधि में केवल प्रतिरोधक किस्मों का चयन हुआ। ठीक यही बात सूक्ष्मजीवों के प्रति भी सही साबित होती है जिनके लिए हम प्रतिजैविक (ऐंटीबायोटिक) या अन्य दवाइयों को सुकेंद्रकी (यूकेरियोटिक) जीवों / कोशिकाओं के प्रति इस्तेमाल करते हैं। बहुत जल्दी ही; यदि शताब्दियों में नहीं तो महीनों और वर्षों की समयावधि में ही प्रतिरोधक जीव / कोशिकाएँ प्रकट हो रही हैं। यह एक मानवोद्भवी क्रियाओं द्वारा विकास का एक उदाहरण है। इसके साथ ही यह हमें बताता है कि निश्चयवाद के अर्थ में विकास एक प्रत्यक्ष प्रक्रिया नहीं है। यह एक प्रसंभाव्य प्रक्रम है, जो प्रकृति के संयोग, अवसरधारी घटना और जीवों में संयोग जन्य उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) पर आधारित है।

6.4 अनुकूली विकिरण क्या है?

चित्र 6.5 फिंच पक्षियों की चोंचों की विविधता जो डारविन ने गैलपैगोस द्वीप में देखीं

डार्विन अपनी यात्रा के दौरान गैलापैगों द्वीप गए थे। जहाँ पर उन्होंने प्राणियों में एक आश्चर्यजनक विविधता देखी। विशेष रूचिकर बात यह थी कि उन्हें एक काली छोटी चिड़िया (डार्विन फिंच) ने उन्हें विशेष रूप से आश्चर्यचकित किया। उन्होंने महसूस किया कि उसी द्वीप के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की फिंच भी पाई जाती हैं। जितनी भी किस्मों को उन्होंने परिकल्पित किया था, वे सभी उसी द्वीप में ही विकसित हुई थीं। ये पक्षी मूलतः बीजभक्षी विशिष्टताओं के साथ-साथ अन्य स्वरूप में बदलावों के साथ अनुकूलित हुईं और चोंच के ऊपर उठने जैसे परिवर्तनों ने इसे कीट भक्षी एवं शाकाहारी फिंच बना दिया (चित्र 6.5)। एक विशेष भू-भौगोलिक क्षेत्र में विभिन्न प्रजातियों के विकास का प्रक्रम एक बिंदु से शुरू होकर अन्य भू-भौगोलिक क्षेत्रों तक प्रसारित होने को अनुकूली विकिरण (ऐडेप्टिव रेडिऐशन) कहा गया। डार्विन की फिंच इस प्रकार की घटना का एक सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करती है। एक अन्य उदाहरण आस्ट्रेलियाई मार्सुपियल (शिशुधानी प्राणियों) का है। अधिकांश मार्सुपियल जो एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न (चित्र 6.6) थे; एक पूर्वज प्रभाव से विकसित हुए, और वे सभी आस्ट्रेलियाई महाद्वीप के अंतर्गत हुए हैं।

चित्र 6.6 आस्ट्रेलिया के शिशुधानी प्राणियों के अनुकूली विचरण

जब एक से अधिक अनुकूली विकिरण एक अलग-थलग भौगोलिक क्षेत्र में (भिन्न आवासों का प्रतिनिधित्व करते हुए) प्रकट होते हैं तो इसे अभिसारी विकास कहा जा सकता है। आस्ट्रेलिया के अपरास्तनी जंतु भी इस प्रकार के स्तनधारियों की किस्मों के विकास में अनुकूली विकिरण प्रदर्शित करती हैं, जिनमें से प्रत्येक मेल खाते मार्सुपियल (उदाहरणार्थ - अपरास्तनी भेड़िया तथा तस्मानियाई वूल्फ मारासुपियल) के समान दिखते हैं।

6.5 जैव विकास

प्राकृतिक वरण से विकास अपने वास्तविक अर्थ में तब शुरू हुआ होगा; जब जीवन के कोशिकीय रूपों ने अपनी चयापचयी क्षमताओं की विभिन्नता के कारण अपना जीवन आरंभ किया होगा।

विकास के डार्विन सिद्धांत का मूल तत्व प्राकृतिक चुनाव है। नए स्वरूप के प्रकटन की दर जीवन चक्र या जीवन अवधि से संबद्ध है। वे रोगाणु जो तेजी से विभाजित होते हैं उनमें बहुगुणन की क्षमता होती है और एक घंटे के भीतर करोड़ों व्यष्टि बन जाते हैं। जीवाणुओं (मान लीजिए-ए) की एक कोलोनी एक प्रदत्त विशेष माध्यम में बढ़ती है; क्योंकि भोज्य पदार्थ के एक घटक का उपयोग करने की क्षमता निहित है। माध्यम संघटक विशेष बदलाव जीव संख्या (मान लीजिए-बी) का केवल वह अंश सामने लाएगा, जो कि नई परिस्थितियों में उत्तरजीवित रह सके। एक समयावधि के दौरान यह परिवर्तन अन्यों से बाजी मार लेता है और एक नई प्रजाति (के रूप में) प्रकट होती है। यह कुछ दिनों के भीतर ही होता है। ठीक यही बात एक मछली या कुक्कुट (मुर्गी) के लिए लागू होती है जो लाखों वर्ष लेंगी; क्योंकि उसकी जीवन अवधि वर्षो लंबी होती है। यहाँ पर हम कह सकते हैं कि ‘ए’ की अपेक्षा ‘बी’ की उपयुक्तता बेहतर है। प्रकृति उपयुक्तता को चुनती है। हमें यह अवश्य याद रखना है कि यह तथाकथित उपयुक्तता उन विशिष्टताओं पर आधारित होती है जो की वंशानुगत होती हैं। अतः चयनित होने तथा विकास हेतु निश्चित ही एक आनुवंशिक आधार होना चाहिए। दूसरे शब्दों में कुछ जीव प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने में बेहतर अनुकूलित होते हैं। अनुकूलन क्षमता वंशानुगत होती है। इसका आनुवंशिक आधार होता है। अनुकूलनशीलता और प्रकृति द्वारा वरण की अंतिम परिणाम उपयुक्तता होता है।

चित्र 6.7 आस्ट्रेलियाई शिशुधानी और अपरा स्तनधारियों का अपसारी विकास दर्शाने वाला चित्र

शारबनी अवरोहण और प्राकृतिक वरण विकास के डार्विनीवाद की दो मुख्य संकल्पनाएँ हैं (अधिक स्पष्टीकरण हेतु देखें (चित्र 6.7 और 6.8 )। डार्विन से पहले, एक फ्रांसीसी प्रकृति विज्ञानी लामार्क ने कहा था कि जीव रूपों का विकास, अंगों के उपयोग एवं अनुपयोग के कारण हुआ। उन्होंने जिराफ का उदाहरण दिया, जिसमें ऊँचे पेड़ों के फुनगियों की पत्तियों को चरने के लिए अपने गर्दन की लंबाई बढ़ाकर अनुकूलन किया। इस लंबी गर्दन की प्राप्ति की विशिष्टिता को उत्तरवर्ती संततियों को प्रदान किया और वर्षो-वर्ष बाद जिराफ ने धीरे-धीरे इतनी लंबी गर्दन को प्राप्त किया। आज इस अटकलबाजी पर कोई विश्वास नहीं करता।

क्या विकास एक प्रक्रम है अथवा एक प्रक्रम का परिणाम है। आज हम जो दुनिया देख रहे हैं; चाहे वह अचेतन हो या चेतन, यह केवल विकास की क्रमिक कहानी है। जब हम दुनिया की इस कहानी की व्याख्या करते हैं तो हम विकास को एक प्रक्रम के रूप से वर्णित करते हैं। दूसरे शब्दों में, जब हम पृथ्वी पर जीवन की कहानी का वर्णन करते हैं; तब हम विकास के प्राकृतिक चुनाव नामक एक प्रक्रम के परिणामों की व्याख्या करते हैं। हम अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हैं कि हम विकास और प्राकृतिक चुनाव को एक प्रक्रम के रूप में देखें या फिर अज्ञात प्रक्रमों के अंतिम परिणाम के रूप में। को प्रभावित किया हो।

कि थॉमस मॉल्थस के समष्टि संदर्भ में किए कार्यों ने डार्विन को प्रभावित किया हो। प्राकृतिक चुनाव कुछ खास प्रेक्षणों पर आधारित है जो कि तथ्यात्मक है। उदाहरण के लिए, प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। मौसमी उतार-चढ़ावों को छोड़कर जीव संख्या स्थिर रहती है। एक जीव संख्या के सदस्य विशिष्टताओं में भिन्न होते हैं (वस्तुतः दो समष्टियाँ एक जैसी नहीं होती हैं।), यद्यपि ऊपरी तौर पर वे एक जैसे दिखते हैं। तथापि अधिकतर विविधिताएँ वंशागत होती हैं। यद्यपि वास्तविकता यह है कि सिद्धांत रूप में जीव संख्या विस्फोटक रूप से बढ़ सकती है। यदि हर एक स्वतंत्र जीव अधिकतम प्रजनन करें (इस तथ्य को बैक्टीरियाई जीवसंख्या की वृद्धि में देखा जा सकता है।) और यह तथ्य कि वास्तविकता में जीवसंख्या का आकार सीमित है, का मतलब है कि संसाधनों के लिए प्रतियोगिता है। केवल कुछ ही दूसरों की कीमत पर उत्तरजीवित रह पाते हैं जो कि स्वयं नहीं फल-फूल (उन्नति कर) सकते हैं। डार्विन की नूतनता एवं वैचारिक प्रगल्भता अंतर्विचार यह था कि उन्होंने दावा किया कि विविधताएँ जो कि वंशागत होती हैं और जो कुछ एक के लिए संसाधनों की उपयोगिता बेहतर बनाती हैं (पर्यावरण से बेहतर अनुकूलन करती हैं); केवल उन्हें ही इस योग्य बनाती हैं कि वे प्रजनन करें और अधिकाधिक संतति छोड़ जाएँ। इस प्रकार से, एक समयावधि के दौरान, बहुत सारी पीढ़ियों के बाद उत्तरजीवी अधिकाधिक संततियाँ छोड़ जाएँगे और वे जीवसंख्या की विशिष्टता में एक बदलाव होंगे और इस तरह पैदा होने के लिए नए स्वरूप प्रकट होते हैं।

6.6 विकास की क्रिया विधि

विविधता का उद्गम क्या है और प्रजाति की उत्पत्ति कैसे होती है? यद्यपि मेंडल ने ऐसे वंशानुक्रमी कारकों के विषय में बताया; जो दृश्य प्ररूप (फीनोटाइप) को प्रभावित करते हैं। डार्विन ने इस तरफ ध्यान नहीं दिया और इस विषय में चुप्पी ही साधी। बीसवीं सदी के प्रथम दशक में ह्यूगो डीवेरीज़ ने इवनिंग प्राइमरोंज पर काम करके म्यूटेशन (उत्परिवर्तन) के विचार को आगे बढ़ाया। म्यूटेशन का अर्थ है जीव संख्या में सहसा आने वाले बड़े-बड़े परिवर्तन। इनका मत था कि ये बड़े से उत्परिवर्तन ही विकास के कारण हैं न कि छोटी-छोटी विविधताएँ; जिन पर डार्विन ने बल दिया था। उत्परिवर्तन यादृच्छिक और दिशाहीन होते हैं जबकि डार्विन की विविधताएँ छोटी-छोटी और दिशावान। डार्विन के लिए विकास क्रमबद्ध होता है जबकि डीवेरीज़ के अनुसार उत्परिवर्तन ही प्रजाति (स्पीशीज) की उत्पत्ति का कारण है। इन्होंने इसे साल्टेशन (विशाल उत्परिवर्तन का बड़ा कदम) बताया। समष्टि आनुवंशिकी में किए गए बाद के अध्ययनों से इसमें स्पष्टता आ गयी।

6.7 हार्डी-वेनवर्ग सिद्धांत

हार्डी-वेनवर्ग सिद्धांत कहता है कि एक जीव संख्या में अलील (युग्मविकल्पी) आवृत्तियाँ और उनके लोकस (विस्थल) सुस्थिर होती हैं, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक निरंतर रहते हैं।

चित्र 6.8 (अ) स्थायीकारक (ब) दिशात्मक और विदारक लक्षणों पर प्राकृतिक वरण की संक्रिया का आरेखी प्रतिरूपण

जीन कोश (कुल जीव संख्या में जीनें व उन युग्मविकल्पी) सदा अपरिवर्तनीय रहते हैं। इसे आनुवंशिक संतुलन कहते हैं। सभी अलील आवृत्तियाँ 1 होती हैं तथा व्यष्टिगत आवृत्तियों को पी, क्यू, (p.q) आदि कहा जा सकता है। द्विगुणित में, $p$ तथा $q$ अलील $A$ तथा अलील $a$ की आवृत्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक जीव संख्या में $\mathrm{AA}$ की आवृत्ति साधारणतय: $\mathrm{p}^{2}$ होती है। ठीक इसी प्रकार से की आवृत्ति $\mathrm{q}^{2}$ होती है और $\mathrm{Aa}$ की $2 \mathrm{pq}$ होती है। अत: $\mathrm{p}^{2}+2 \mathrm{pq}+\mathrm{q}^{2}=1$ हुआ। यह $(\mathrm{p}+\mathrm{q})^{2}$ की द्विपदी अभिव्यक्ति है, ठीक यही जब नापी गयी आवृत्ति, अपेक्षित मान से भिन्न होती है, यह भिन्नता (दिशा) विकासीय परिवर्तन की व्यापकता का संकेत देती है। आनुवंशिक साम्यता में विभिन्नता, जैसे कि-एक जीव संख्या में अलील की आवृति में परिवर्तन के परिणाम स्वरूप विकास होता है।

पाँच घटक हार्डी-वेनवर्ग साम्यता को प्रभावित करते हैं। ये हैं जीन पलायन या जीन प्रवाह, आनुवंशिक विचलन, उत्परिवर्तन, आनुवंशिक पुनर्योग तथा प्राकृतिक वरण। जब जीव संख्या का स्थान परिवर्तन होता है तो जीन आवृतियाँ भी बदल जाती हैं। यह दोनों मौलिक तथा नई जीव संख्या में होता है। नयी समष्टि में नई जीनें और अलीलें (युग्मविकल्पी) जोड़ दी जाती हैं और पुरानी समष्टि से ये घट जाती हैं। यदि यह जीन संस्थानांतरण बार-बार होता है तो जीन प्रवाह संभव हो जाता है। यदि यह परिवर्तन संयोगवश होता है तो आनुवंशिक अपवाह (जेनेटिक ड्रिफ्ट) कहलाता है। कभी-कभी अलील आवृत्ति का यह परिवर्तन समष्टि के नए नमूने में इतना भिन्न हो जाता है तो वह नूतन प्रजाति (स्पीशीज़) ही हो जाती है। मौलिक अपवाहित समष्टि संस्थापक बन जाती है और इस प्रभाव को संस्थापक प्रवाह कहा जाता है।

सूक्ष्म जीवों में किए गए प्रयोग दर्शाते हैं कि जब पूर्व विद्यमान लाभकारी उत्परिवर्तनों का वरण होता है तब परिणाम स्वरूप नए फीनोटाइपों (दृश्य प्ररूपों) का आविर्भाव होता है। कुछ पीढ़ियों के बाद यही नव प्रजाति (स्पीशीज़) की उत्पत्ति हो जाएगी। प्राकृतिक वरण वह प्रक्रम है, जिससे अधिक जीवन सम वंशानुगत विविधता को जनन के अधिक अवसर मिलते हैं और संताने अधिक संख्या में उत्पन्न होती हैं। तार्किक विश्लेषण हमें विश्वास दिलाता है कि उत्परिवर्तन या युग्मकोत्पादन के दौरान का पुनर्योजन या जीन अपवाह का परिणाम होता है-जीन आवृत्ति या अलील का आगामी पीढ़ी में परिवर्तन। जनन की सफलता के सहारे से प्राकृतिक वरण इसको भिन्न समष्टि का आभास दे देता है। प्राकृतिक वरण स्थायित्व प्रदान करता है (व्यष्टियों को लक्षण प्राप्त होना) दिशात्मक परिवर्तन या विदारण (डिसरप्शन) जो वितरण वक्र के दोनों सिरों में होता है (चित्र 6.8)।

6.8 विकास का संक्षिप्त विवरण

चित्र 6.9 भूवैज्ञानिक कालों में होकर पादपों के विकास का चित्र

लगभग 2000 मिलियन वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जीवन का प्रथम कोशिकीय रूप प्रकट हुआ। विशाल बृहदणु का गैर कोशकीय पुंज झिल्लीयुक्त आवरण के साथ कोशिका में कैसे विकसित हुआ, इसकी क्रियाविधि अज्ञात रही। इनमें से कुछ कोशिकाओं में ऑक्सीजन $\left(\mathrm{O}_{2}\right)$ को मुक्त करने की क्षमता थी। यह अभिक्रिया संभवतः प्रकाश संश्लेषण में प्रकाश अभिक्रिया के समान ही रही होगी। जहाँ पर पानी संगृहीत होकर सौर ऊर्जा की सहायता से विघटित होता है। यह ऊर्जा प्रकाश संग्राही वर्णकों से प्रेरित होती है। धीरे-धीरे एक कोशिकीय जीव बहुकोशिकीय जीवों में परिवर्तित हुए। 500 मिलियन वर्ष पूर्व अकशेरुकी जीव बने एवं क्रियाशील हुए। जबड़े रहित मछली संभवतः 350 मिलियन वर्ष पूर्व विकसित हुई। समुद्री खरपतवार एवं कुछ पादप संभवतः 320 मिलियन वर्ष पूर्व अस्तित्व में आए। हमने पहले भी बताया था कि जो पहले जीव धरती पर प्रकट हुए, वे पादप थे। जब धरती पर पशु अस्तित्व में आए तब ये पादप धरती पर खूब फैल चुके थे। मजबूत एवं सुदृढ़ पखों वाली मछलियाँ धरती पर आ जा सकती थीं। ऐसा लगभग 350 मिलियन वर्ष पूर्व संभव हुआ था। सन् 1938 में दक्षिण अफ्रीका में एक मछली पकड़ी गई जो सीलाकेंथि थी, जिसे विलुप्त मान लिया गया था। ऐसे प्राणियों को लोबेफिन (पालिपरव) कहा गया जो कि पहले उभयचर प्राणी के रूप में विकसित हुए और जो जल एवं थल दोनों पर ही रहे ।

चित्र 6.10 भूवैज्ञानिक कालों में होकर कशेरूकियों का विकासीय इतिहास का चित्रण

हमारे पास आज इनका कोई भी नमूना नहीं बचा है। हालाँकि ये आधुनिक युग के प्राणी मेंढक एवं सैलामैंडर (सरट) जीवों के पूर्वज थे। यही उभयचर प्राणी सरीसृपों के रूप में विकसित हुए। ये मोटे कवच वाले अंडे देते हैं जो उभयचर अंडों की तरह धूप में सूख नहीं जाते। एक बार फिर आज हम इनके केवल उत्तराधिकारी कच्छप, कछुआ, तथा मगर (क्रोकोडाइल) या घड़ियाल ही देख सकते हैं। अगले 200 मिलियन वर्ष बाद, विभिन्न आकार एवं आकृति वाले सरीसृपों ने पृथ्वी पर अधिपत्य कायम किया। विशाल पर्णांग (फर्न) या टेरिडोफाइट उपस्थित थे; किंतु वे सभी धीरे-धीरे मर कर कोयले के भंडार बन गए। इनमें से कुछ सरीसृप पुनः पानी में वापस चले गए और लगभग 200 मिलियन वर्ष पूर्व संभवतः मछली जैसे सरीसृप (जैसे इक्थियोसाएस) के रूप में प्रकट हुए। पृथ्वी पर रहने वाले सरीसृप निश्चित ही डायनासौर थे। इनमें सबसे बड़ा अर्थात् ट्राइरैनोसोरस रेक्स लगभग 20 फुट ऊँचा तथा विशाल डरावने कटार जैसे दाँतों वाला था। लगभग 65 मिलियन वर्ष पूर्व अचानक पृथ्वी से डायनासौर समाप्त हो गए। हमें इसके सही कारणों का पता नहीं हैं। कुछ लोगों का मत है कि वातावरण एवं जलवायु परिवर्तनों ने इन्हें मारा। कुछ लोग मानते हैं कि इनमें से ज्यादातर पक्षियों के रूप में विकसित हो गए। सत्य शायद इन्हीं दोनों के बीच निहित हैं। उस युग के छोटे सरीसृप आज के दौर में भी विद्यमान है।

पहले स्तनधारी प्राणी श्रू (मंजोरू) थे इसके जीवाश्म (फोसिल) छोटे आकार के हैं। स्तनधारी प्राणी जरायुज होते हैं तथा उनके अजन्मे शिशु माँ के शरीर के अंदर (गर्भ में) सुरक्षित रहते हैं। स्तनधारी प्राणी छोटे से छोटे खतरों के प्रति सतर्क रहने एवं बचाव करने में बुद्धिमान होते थे। जब सरीसृपों की कमी हुई, तब स्तनधारी प्राणियों ने स्थल पर कब्जा कर लिया। यहाँ पर दक्षिण अमेरिकी स्तनधारी घोड़े से मिलता-जुलता, हिप्पोपोटैमस (दरियाई घोड़ा), भालू तथा खरगोश आदि थे। महाद्वीपीय विचलन के कारण जब दक्षिणी एवं उत्तरी अमरीका एक दूसरे से जुड़े तो इन जीवों ने उत्तर अमरीका तक विस्तार बनाया और ये उत्तरी अमरीकी प्राणि जगत पर छा गए। महाद्वीपीय विस्थापन के कारण जब दक्षिणी अमरीका उत्तरी अमरीका से मिल गया तो ये जीव उत्तरी जंतुओं के दबाव में आ गए और वे बहुसंख्य हो गए। महाद्वीपीय विस्थापन के कारण ही आस्ट्रेलियाई स्तनधारी (जैसे कंगारू आदि) जीवित रहे; क्योंकि उन्हें दूसरे अन्य स्तनधारी जीवों से कम प्रतियोगिता थी।

कहीं हम यह बताना भूल तो नहीं गए कि कुछ स्तनधारी प्राणी पूरी तरह से जल में ही रहते हैं जैसे कि हवेल, डालफिन, सील तथा समुद्री गाएँ आदि। हाथी, घोड़े एवं कुत्ते के विकास की बातें विकास की विशिष्ट कहानियाँ हैं। इसके बारे में आप उच्च कक्षाओं में पढ़ेंगे। मनुष्य का विकास सर्वाधिक सफलता की कहानी है। इसके पास भाषा, कौशल एवं आत्मबोध या स्वचेतना है।

जीवन के स्वरूपों के विकास, भू-भौगोलिक मापदंड पर उनकी समय तथा भू-भौगोलिक समयावधि एवं उनके संकेतों को स्थूल रेखा चित्रों 6.9 व 6.10 में दर्शाया गया है।

6.9 मानव का उद्भव और विकास

लगभग 15 मिलियन वर्ष पूर्व ड्रायोपिथिकस तथा रामापिथिकस नामक नरवानर विद्यमान थे। इन लोगों के शरीर बालों से भरपूर थे तथा गोरिल्ला एवं चिपैंजी जैसे चलते थे। रामापिथिकस अधिक मनुष्यों जैसे थे जबकि ड्रायोपिथिकस वनमानुष (ऐप) जैसे थे। इथोपिया तथा तंजानिया (चित्र 6.11) में कुछ जीवाश्म (फासिल) अस्थियाँ मानवों जैसी प्राप्त हुई हैं। ये जीवाश्म मानवी विशिष्टताएँ दर्शाते हैं जो इस विश्वास को आगे बढ़ाती हैं कि 3-4 मिलियन वर्ष पूर्व मानव जैसे नर वानर गण (प्राइमेट्स) पूर्वी-अफ्रीका में विचरण करते रहे थे। ये लोग संभवतः ऊँचाई में 4 फुट से बड़े नहीं थे; किंतु वे खड़े होकर सीधे चलते थे। लगभग 2 मिलियन वर्ष पूर्व ओस्ट्रालोपिथेसिन (आदिमानव) संभवतः पूर्वी अफ्रीका के घास स्थलों में रहता था। साक्ष्य यह प्रकट करते हैं कि वे प्रारंभ में पत्थर के हथियारों से शिकार करते थे, किंतु प्रारंभ में फलों का ही भोजन करते थे। खोजी गई अस्थियों में से कुछ अस्थियाँ बहुत ही भिन्न थीं। इस जीव को पहला मानव जैसे प्राणी के रूप में जाना गया और उसे होमो हैबिलिस कहा गया था। उसकी दिमागी क्षमता 650-800 सीसी के बीच थी। वे संभवतः माँस नहीं खाते थे। 1991 में जावा में खोजे गए जीवाश्म ने अगले चरण के बारे में भेद प्रकट किया। यह चरण था होमो इरैक्टस जो 1.5 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ। होमो इरैक्टस का मस्तिष्क बड़ा था जो लगभग 900 सीसी का था।

चित्र 6.11 आधुनिक वयस्क मानव, शिशु चिंैैंजी और वयस्क चिंपैंजी की खोपड़ियों की तुलना। शिशु चिंैंजी की खोपड़ी अधिक मानव सम है अपेक्षाकृत वयस्क चिंैंजी की खोपड़ी के।

होमो इरैक्टस संभवतः माँस खाता था। नियंडरटाल मानव 1400 सीसी आकार वाले मस्तिष्क लिए हुए, 100,000 से 40,000 वर्ष पूर्व लगभग पूर्वी एवं मध्य एशियाई देशों में रहते थे। वे अपने शरीर की रक्षा के लिए खालों का इस्तेमाल करते थे और अपने मृतकों को जमीन में गाड़ते थे। होमो सैंपियंस (मानव) अफ्रीका में विकसित हुआ और धीरे-धीरे महाद्वीपों से पार पहुँचा था तथा विभिन्न महाद्वीपों में फैला था, इसके बाद वह भिन्न जातियों में विकसित हुआ। 75,000 से 10,000 वर्ष के दौरान हिमयुग में यह आधुनिक युगीन मानव पैदा हुआ। मानव ने प्रागैतिहासिक गुफा-चित्रों की रचना लगभग 18,000 वर्ष पूर्व हुई। कृषि कार्य लगभग 10,000 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ और मानव बस्तियाँ बनना शुरू हुईं। बाकी जो कुछ हुआ वह मानव इतिहास या वृद्धि का भाग और सभ्यता की प्रगति का हिस्सा है।

सारांश

पृथ्वी पर जीवन के उद्भव को समझने के लिए ब्रह्मांड और पृथ्वी के उद्गम की जानकारी की पृष्ठभूमि अपेक्षित है। अधिकांश वैज्ञानिकों का विश्वास रासायनिक विकास में है अर्थात् जीवन के प्रथम कोशिकीय रूपों के उदय के पूर्व द्वि-अणु पैदा हुए। प्रथम जीवों के बाद की उत्तरोत्तर घटनाक्रम कल्पना मात्र है जिसका आधार प्राकृतिक वरण द्वारा जैव विकास संबंधी डार्विन का विचार है। करोड़ों वर्षों के दौरान जीवन में विविधता रही है। माना जाता है कि जीव संख्या की विविधता परिवर्ती चरणों के दौरान हुई। आवास विखंडन और आनुवंशिक प्रवाह ने नव प्रजाति की उत्पत्ति में सहायता की और इस प्रकार विकास संभव हो सका। शाखावत् अवतरण का स्पष्टीकरण सहजातता ने किया। तुलनात्मक शरीर रचना, जीवाश्म तथा तुलनात्मक जीव रसायन विकास के प्रमाण उपस्थित करते हैं। व्यक्तिगत प्रजाति के विकास की कहानियों में आधुनिक मानव की विकास कथा सबसे रोचक है और लगता है यह मानव मस्तिष्क और भाषा में विकास के समानांतर चलता है।

अभ्यास

1. डार्विन के चयन सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में जीवाणुओं में देखी गई प्रतिजैविक प्रतिरोध का स्पष्टीकरण करें।

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2. समाचार पत्रों और लोकप्रिय वैज्ञानिक लेखों से विकास संबंधी नए जीवाश्मों और मतभेदों की जानकारी प्राप्त करें।

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3. ‘प्रजाति’ की स्पष्ट परिभाषा देने का प्रयास करें।

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4. मानव-विकास के विभिन्न घटकों का पता करें (संकेत - मस्तिष्क साइज और कार्य, कंकाल-संरचना, भोजन में पसंदगी आदि)।

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5. इंटरनेट (अंतरजाल-तंत्र) या लोकप्रिय विज्ञान लेखों से पता करें कि क्या मानवेत्तर किसी प्राणी में आत्म संचेतना थी।

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6. इंटरनेट (अंतरजाल-तंत्र) संसाधनों के उपयोग करते हुए आज के 10 जानवरों और उनके विलुप्त जोड़ीदारों की सूची बनाएँ (दोनों के नाम दें)।

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7. विविध जंतुओं और पौधों के चित्र बनाएँ।

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8. अनुकूलनी विकिरण को एक उदाहरण का वर्णन करें।

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9. क्या हम मानव विकास को अनुकूलनी विकरण कह सकते हैं?

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10. विभिन्न संसाधनों जैसे कि विद्यालय का पुस्तकालय या इंटरनेट (अंतरजाल-तंत्र) तथा अध्यापक से चर्चा के बाद किसी जानवर जैसे कि घोड़े के विकासीय चरणों को खोजें।

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