अध्याय 11 घर की याद

भवानी प्रसाद मिश्र

( सन् 1913-1985 )

जन्म: सन् 1913, टिगरिया गाँव, होशंगाबाद(म.प्र.)

प्रमुख रचनाएँ: सतपुड़ा के जंगल, सन्नाटा, गीतफ़रोश, चकित है दुख, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, अनाम तुम आते हो, इदं न मम् आदि

प्रमुख सम्मानः साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन का शिखर सम्मान, दिल्ली प्रशासन का गालिब पुरस्कार एवं पद्मश्री से अलंकृत

मृत्यु: सन् 1985

सहज लेखन और सहज व्यक्तित्व का नाम है भवानी प्रसाद मिश्र। कविता और साहित्य के साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन में जिन कवियों की सक्रिय भागीदारी थी उनमें ये प्रमुख हैं। गांधीवाद पर आस्था रखने वाले मिश्र जी ने गांधी वाङ्मय के हिंदी खंडों का संपादन कर कविता और गांधी जी के बीच सेतु का काम किया।

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता हिंदी की सहज लय की कविता है। इस सहजता का संबंध गांधी के चरखे की लय से भी जुड़ता है इसीलिए उन्हें कविता का गांधी भी कहा गया है। मिश्र जी को कविताओं में बोल-चाल के गद्यात्मक-से लगते वाक्य-विन्यास को ही कविता में बदल देने की अद्भुत क्षमता है। इसी कारण उनकी

कविता सहज और लोक के अधिक करीब है। भवानी प्रसाद मिश्र जिस किसी विषय को उठाते हैं उसे घरेलू बना लेते हैं- आँगन का पौधा, शाम और दूर दिखती पहाड़ की नीली चोटी भी जैसे परिवार का एक अंग हो जाती है। वृद्धावस्था और मृत्यु के प्रति भी एक आत्मीय स्वर मिलता है। उन्होंने प्रौढ़ प्रेम की कविताएँ भी लिखो हैं जिनमें उद्दाम शृंगारिकता की बजाय सहजीवन के सुख-दुख और प्रेम की व्यंजना है। नई कविता के दौर के कवियों में मिश्र जी के यहाँ व्यंग्य और क्षोभ भरपूर है किंतु वह प्रतिक्रियापरक न होकर सुजनात्मक है। गांधीवाद पर आस्था रखने के कारण उन्होंने अहिंसा और सहनशीलता को रचनात्मक अभिव्यक्ति दी है।

घर की याद कविता में घर के मर्म का उद्घाटन है। कवि को जेल-प्रवास के दौरान घर से विस्थापन की पीड़ा सालती है। कवि के स्मृति-संसार में उसके परिजन एक-एक कर शामिल होते चले जाते हैं। घर की अवधारणा की सार्थक और मार्मिक याद कविता की केंद्रीय संवेदना है।

घर की याद

आज पानी गिर रहा है,

बहुत पानी गिर रहा है,

रात भर गिरता रहा है,

प्राण मन घिरता रहा है,

बहुत पानी गिर रहा है,

घर नज़र में तिर रहा है,

घर कि मुझसे दूर है जो,

घर खुशी का पूर है जो,

घर कि घर में चार भाई,

मायके में बहिन आई,

बहिन आई बाप के घर,

हाय रे परिताप के घर!

घर कि घर में सब जुड़े हैं,

सब कि इतने कब जुड़े हैं,

चार भाई चार बहिनें,

भुजा भाई प्यार बहिनें,

और माँ बिन-पढ़ी मेरी,

दु:ख में वह गढ़ी मेरी,

माँ कि जिसकी गोद में सिर,

रख लिया तो दुख नहीं फिर,

माँ कि जिसकी स्नेह-धारा,

का यहाँ तक भी पसारा,

उसे लिखना नहीं आता,

जो कि उसका पत्र पाता।

पिता जी जिनको बुढ़ापा,

एक क्षण भी नहीं व्यापा,

जो अभी भी दौड़ जाएँ,

जो अभी भी खिलखिलाएँ,

मौत के आगे न हिचकें,

शेर के आगे न बिचकें,

बोल में बादल गरजता,

काम में झंझा लरजता,

आज गीता पाठ करके,

दंड दो सौ साठ करके,

खूब मुगदर हिला लेकर,

मूठ उनकी मिला लेकर,

जब कि नीचे आए होंगे,

नैन जल से छाए होंगे,

हाय, पानी गिर रहा है,

घर नज़र में तिर रहा है,

चार भाई चार बहिनें,

भुजा भाई प्यार बहिनें,

खेलते या खड़े होंगे,

नज़ार उनको पड़े होंगे।

पिता जी जिनको बुढ़ापा,

एक क्षण भी नहीं व्यापा,

रो पड़े होंगे बराबर,

पाँचवें का नाम लेकर,

पाँचवाँ मैं हूँ अभागा,

जिसे सोने पर सुहागा,

पिता जी कहते रहे हैं,

प्यार में बहते रहे हैं,

आज उनके स्वर्ण बेटे,

लगे होंगे उन्हें हेटे,

क्योंकि मैं उनपर सुहागा,

बँधा बैठा हूँ अभागा,

और माँ ने कहा होगा,

दु:ख कितना बहा होगा,

आँख में किस लिए पानी,

वहाँ अच्छा है भवानी

वह तुम्हारा मन समझकर,

और अपनापन समझकर,

गया है सो ठीक ही है,

यह तुम्हारी लीक ही है,

पाँव जो पीछे हटाता,

कोख को मेरी लजाता,

इस तरह होओ न कच्चे,

रो पड़ेंगे और बच्चे,

पिता जी ने कहा होगा,

हाय, कितना सहा होगा,

कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ,

धीर मैं खोता, कहाँ हूँ,

हे सजीले हरे सावन,

हे कि मेरे पुण्य पावन,

तुम बरस लो वे न बरसें,

पाँचवें को वे न तरसें,

मैं मज़े में हूँ सही है,

घर नहीं हूँ बस यही है,

किंतु यह बस बड़ा बस है,

इसी बस से सब विरस है,

किंतु उनसे यह न कहना,

उन्हें देते धीर रहना,

उन्हें कहना लिख रहा हूँ,

उन्हें कहना पढ़ रहा हूँ,

काम करता हूँ कि कहना,

नाम करता हूँ कि कहना,

चाहते हैं लोग कहना,

मत करो कुछ शोक कहना,

और कहना मस्त हूँ मैं,

कातने में व्यस्त हूँ मैं,

वज़न सत्तर सेर मेरा,

और भोजन ढेर मेरा,

कूदता हूँ, खेलता हूँ,

दुःख डट कर ठेलता हू,

और कहना मस्त हूँ मैं,,

यों न कहना अस्त हूँ मैं,

हाय रे, ऐसा न कहना,

है कि जो वैसा न कहना,

कह न देना जागता हूँ,

आदमी से भागता हूँ,

कह न देना मौन हूँ मैं,

खुद न समझूँ कौन हूँ मैं,

देखना कुछ बक न देना,

उन्हें कोई शक न देना,

हे सजीले हरे सावन,

हे कि मेंरे पुण्य पावन,

तुम बरस लो वे न बरसें,

पाँचवें को वे न तरसें।

अभ्यास

कविता के साथ

1. पानी के रात भर गिरने और प्राण-मन के घिरने में परस्पर क्या संबंध है?

2. मायके आई बहन के लिए कवि ने घर को परिताप का घर क्यों कहा है?

3. पिता के व्यक्तित्व की किन विशेषताओं को उकेरा गया है?

4. निम्नलिखित पंक्तियों में बस शब्द के प्रयोग की विशेषता बताइए।

मैं मजे में हूँ सही है

घर नहीं हूँ बस यही है

किंतु यह बस बड़ा बस है,

इसी बस से सब विरस है

5. कविता की अंतिम 12 पंक्तियों को पढ़कर कल्पना कीजिए कि कवि अपनी किस स्थिति व मनःस्थिति को अपने परिजनों से छिपाना चाहता है?

कविता के आस-पास

1. ऐसी पाँच रचनाओं का संकलन कीजिए जिसमें प्रकृति के उपादानों की कल्पना संदेशवाहक के रूप में की गई है।

2. घर से अलग होकर आप घर को किस तरह से याद करते हैं? लिखें।

शब्द-छवि

नज़ार में तिर रहा है - आँखों में तैर रहा है
पूर है जो - वह घर जो परिपूर्ण है यानी खुशियों से भरापूरा है
परिताप - अत्यधिक दुख
नवनीत - मक्खन
हेटे - गौण, हीन
लीक - परंपरा


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