गद्य खंड 02 बिस्कोहर की माटी

विश्वनाथ त्रिपाठी

(जन्म सन् 1931)

विश्वनाथ त्रिपाठी का जन्म बिस्कोहर गाँव, ज़िला बस्ती (सिद्धार्थ नगर), उत्तर प्रदेश में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई। तत्पश्चात् बलरामपुर कस्बे में आगे की शिक्षा प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए वे पहले कानपुर और बाद में वाराणसी गए। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। शुरू में उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के राजधानी कालेज में अध्यापन कार्य किया और फिर दिल्ली विश्वविद्यालय के मुख्य परिसर में अध्यापन कार्य से जुड़े रहे। यहीं से सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन कर रहे है।

उनकी रचनाओं में प्रारंभिक अवधी, हिंदी आलोचना, हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, लोकवादी तुलसीदास, मीरा का काव्य, देश के इस दौर में, कुछ कहानियाँ-कुछ विचार प्रमुख आलोचना और इतिहास संबंधी ग्रंथ हैं। पेड़ का हाथ, जैसा कह सका प्रमुख कविता-संग्रह हैं। उन्होंने आरंभ में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साथ अद्दहमाण (अन्दुल रहमान) के अपंभ्रश काव्य संदेश रासक का संपादन किया तथा कविताएँ 1963 , कविताएँ 1964, कविताएँ 1965 अजित कुमार के साथ व हिंदी के प्रहरी रामविलास शर्मा अरुण प्रकाश के साथ संपादित की। हाल ही में उनकी एक और पुस्तक व्योमकेश दरवेश प्रकाशित हुई है जो हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक एवं साहित्यकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर केंद्रित है।

उनको गोकुलचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार, डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, हिंदी अकादमी, दिल्ली के साहित्यकार सम्मान आदि से सम्मानित किया गया।

प्रस्तुत पाठ बिस्कोहर की माटी विश्वनाथ त्रिपाठी की आत्मकथा नंगातलाई का गाँव का एक अंश है। आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह पाठ अपनी अभिव्यंजना में अत्यंत रोचक और पठनीय है। लेखक ने उम्र के कई पड़ाव पार करने के बाद अपने जीवन में माँ, गाँव और आसपास के प्राकृतिक परिवेश का वर्णन करते हुए ग्रामीण जीवन शैली, लोक कथाओं, लोक मान्यताओं को पाठक तक पहुँचाने की कोशिश की है।

गाँव, शहर को तरह सुविधायुक्त नहीं होते, बल्कि प्रकृति पर अधिक निर्भर रहते हैं। इस निर्ररता का दूसरा पक्ष प्राकृतिक सौंदर्य भी है जिसे लेखक ने बड़े मनोयोग से जिया और प्रस्तुत किया है। एक तरफ़ प्राकृतिक संपदा के रूप में अकाल के वक्त खाई जाने वाली कमल ककड़ी का वर्णन है तो दूसरी और प्राकृतिक विपदा बाढ़ से बदहाल गाँव की तकलीफ़ों का ज़िक्र है। कमल, कोइयाँ, हरसिंगरर के साथ-साथ तोरी, लौकी, भिंडी, भटकटैया, इमली, कदंब आदि के फूलों का वर्णन कर लेखक ने ग्रामीण प्राकृतिक सुषमा और संपदा को दिखाया है तो डोड़हा, मजगिदवा, धामिन, गोंतुअन, घोर कड़ाइच आदि साँपों, बिच्छुओं आदि के वर्णन द्वारा भयमिश्रित वातावरण का भी निर्माण किया है। ग्रामीण जीवन में शहरी दवाइयों की जगह प्रकृति से प्राप्त फूल, पत्तियों के प्रयोग भी आम हैं जिसे लेखक ने रेखांकित किया है।

पूरी कथा के केंद्र में है बिस्कोहर जो लेखक का गाँव है और एक पात्र ‘बिसनाथ’ जो लेखक स्वयं (विश्वनाथ) है। गरमी, वर्षा और शरद ऋतु में गाँव में होने वाली दिक्कतों का भी लेखक के मन पर प्रभाव पड़ा है जिसका उल्लेख इस रचना में भी दिखाई पड़ता है। दस वर्ष की उम्र में करीब दस वर्ष बड़ी स्त्री को देखकर मन में उठे-बसे भावों, संवेगों के अमिट प्रभाव व उसकी मार्मिक प्रस्तुति के बीच संवादों की यथावत् आंचलिक प्रस्तुति अनुभव की सत्यता और नैसर्गिकता की द्योतक है। पूरो रचना में लेखक ने अपने देखे-भोगे यथार्थ को प्राकृतिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत किया है। लेखक की शैली अपने आप में अनूठी और बिलकुल नयी है।

बिस्कोहर की माटी

पूरब टोले के पोखर में कमल फूलते। भोज में हिंदुओं के यहाँ भोजन कमल-पत्र पर परोसा जाता। कमल-पत्र को पुरइन कहते। कमल के नाल को भसीण कहते। आसपास कोई बड़ा कमल-तालाब था-लेंवडी का ताल। अकाल पड़ने पर लोग उसमें से भसीण (कमल-ककड़ी) खोदकर बड़े-बड़े खाँचों में सर पर लादकर खाने के लिए ले जाते। कमल-ककड़ी को सामान्यतः अभी भी गाँव में नहीं खाया जाता। कमल का बीज कमल गट्टा ज़रूर खाया जाता है। कमल से कहीं ज़्यादा बहार कोइयाँ की थी। कोइयाँ वही जलपुष्प है जिसे कुमुद कहते हैं। इसे कोका-बेली भी कहते हैं। शरद में जहाँ भी गड्डा और उसमें पानी होता है, कोइयाँ फूल उठती हैं। रेलवे-लाइन के दोनों ओर प्राय: गड्डों में पानी भरा रहता है। आप उत्तर भारत में इसे प्राय: सर्वत्र पाएँगे। बिसनाथ बहुत दिनों समझते थे कि कोइयाँ सिऱ़् हमारे यहाँ का फूल है। एक बार वैष्णो देवी दर्शनार्थ गए। देखा यह पंजाब में भी रेलवे-लाइन के दोनों तरफ़ खिला था-अनवरत, निरंतर। शरद की चाँदनी में सरोवरों में चाँदनी का प्रतिबिंब और खिली हुई कोइयाँ की पत्तियाँ एक हो जाती हैं। इसकी गंध को जो पसंद करता है वही जातता है कि वह क्या है! इन्हीं दिनों तालाबों में सिघाड़ा आता है। सिघाड़े के भी फूल होते हैं-उजले और उनमें गंध भी होती है। बिसनाथ को सिघाड़े के फूलों से भरे हुए तालाब से गंध के साथ एक हलकी सी आवाज़ भी सुनाई देती थी। वे घूम-घूमकर तालाबों से आती हुई वह गंधमिश्रित आवाज़ सुनते। सिघाड़ा जब बतिया (छोटा) दूधिया होता है तब उसमें वह गंध भी होती है।

और शखद में ही हरसिंगर फूलता है। पितर-पक्ख (पितृपक्ष) में मालिन दाई घर के दरवाज़े पर हरसिंगार की राशि रख जाती थीं। रख जाती थीं, तो खड़ी बोली हुई। गाँव की बोली में ‘‘ुुइ जात रहीं।’ बहुत ढेर सारे फूल मानो इकट्टे ही अनायास उनसे गगर पड़ते थे। ‘कुरइ देना’ है तो सकर्मक लेकिन सहजता अकर्मक की है। गाँव में ज्ञात-अज्ञात वनस्पतियों, जल के विविध रूपों और मिट्टी के अनेक वर्णों-आकारों का एक ऐसा समस्त वातावरण था जो सजीव था। बिसनाथ आदि बच्चे उसे छूते, पहचानते, उससे बतियाते थे। सभी चीज़ें प्रत्येक चीज़े में थीं और प्रत्येक सबमें। आकाश भी अपने गाँव का ही एक टोला लगता। चंदा मामा थे। उसमें एक बुढ़िया थी। जो बच्चों की दादी की सहेली थी। माँ आँचल में छिपाकर दूध पिलाती थी। बच्चे का माँ का दूध पीना सिर्फ़ दूध पीना नहों माँ से बच्चे के सारे संबंधों का जीवन-चरित होता है। बच्चा सुवुकता है, रोता है, माँ को मारता है, माँ भी कभी-कभी मारती है, बच्चा चिपटा रहता है, माँ चिपटाए रहती है, बच्चा माँ के पेट का स्पर्श, गंध भोगता रहता है, पेट में अपनी जगह जैसे ढूँढ़ा रहता है। बिसनाथ ने एक बार ज़ोर से काट लिया। माँ ने ज़ोर से थ्पड़ मारा फिर पास में बैठी नाउन से कहा-दाँत निकाले है, टीसत है। बच्चे दाँत निकालते हैं तब हर चीज़ को दाँत से यों ही काटते हैं, वही टीसना है। चाँदनी रात में खटिया पर लेटी माँ बच्चे को दूध पिला रही है। बच्चा दूध ही नहीं, चाँदनी भी पी रहा है, चाँदनी भी माँ जैसी ही पुलक-सेह-ममता दे रही है। माँ के अंक से लिपटकर माँ का दूध पीना, जड़ के चेतन होने यानी मानव-जन्म लेने की सार्थकता है। पशु-माताएँ भी यह सुख देती-पाती होंगी। और पक्ती-अंडज!

यह बिसनाथ ने बहुत बाद में देखा-समझा। दिलशाद गार्डन के डियर पार्क में तब बत्तखें होती थीं। बत्तख अंडा देने को होती तो पानी छोड़कर ज़मीन पर आ जाती। इसके लिए एक सुरक्षित काँटेदार बाड़ा था। देखा-एक बत्तख कई अंडों को से रही है। पंख फुलाए उन्हें छिपाए है-दुनिया से बचाए है। एक कौवा थोड़ी दूर ताक में। बत्तख की चोंच सख्त होती है। अंडों की खोल नाज़ुक।

कुछ अंडे बत्तख-माँ के डैनों से बाहर छिटक जाते। बत्तख उन्हें चोंच से इतनी सतर्कता, कोमलता से डैनों के अंदर फिर छुपा लेती थी कि बस आप देखते रहिए, कुछ कह नहीं सकते-इसे ‘सेस, सारद’ भी नहीं बयान कर सकते। और माँ की निगाह कौवे की ताक पर भी थी। कभी-कभी वह अंडों को बड़ी सतर्कता से उलटती-पलटती भी।

किसने दी बिसनाथ की माँ और बत्तख की माँ को इतनी ममता? जैसे पानी बहता है, हवा चलती है, वैसे ही माँ में बच्चे की ममता-प्रकृति में ही सब कुछ है। जड़ चेतन में रूपांतरित होकर क्या-क्या अंतरबाह्य गढ़ता है, लीलाचारी होता है! गुरुवर हज़ारीप्रसाद द्विवेदी प्राय: कहते हैं-

“क्या यह सब बिना किसी प्रयोजन के है? बिना किसी उद्देश्य के है?”

होगा कोई महान निहित उद्देश्य, प्रयोजन! लेकिन अभी तो ‘बुश-ब्लेयर’ ने इराक फतह किया है। कहाँ माँ का बच्चे को दूध पिलाना कहाँ बत्तख का अंडा सेना!

बिसनाथ पर अत्याचार हो गया। जब वह दूध पीनेवाले ही थे कि छोटा भाई आ गया। बिसनाथ दूध कटहा हो गए। उनका दूध कट गया। माँ के दूध पर छोटे भाई का कब्ज़ा हो गया। छोटा भाई हुमक-हुमककर अम्माँ का दूध पीता और बिसनाथ गाय का बेस्वाद दूध। कसेरिन दाई पड़ोस में रहती थीं। बिसनाथ को उन्होंने ही पाला-पोसा। सूई की डोरी से बनी हुई कथरी सुजनी कहलाती है। साफ़-सफ़़ाक सुजनी पर कसेरिन दाई के साथ लेटे तीन बरस के बिसनाथ चाँद को देखते रहते। लगता है उसे हाथ से छू रहे हैं, उसे खा रहे हैं, उससे बातें कर रहे हैं। वह ध्रुक-धुक करके चलता रहता। बादल में छिप जाता, फिर उसमें से निकल आता। इमली के छतनार पेड़ के अंतरालों से छनकर चाँदनी के कितने टुकड़े बिखरते। शीशम की फुनगी को चाँदनी कैसे चूमती!

फूलों की बात हो रही थी-कमल, कोइयाँ, हरसिंगार की। लेकिन ये तो फूल हैं और फूल कहे जाते हैं। ऐसे कितने फूल थे जिनकी चर्चा फूलों के रूप में नहीं होती, और हैं वे असली फूल-तोरी, लौकी, भिंडी, भटकटैया, इमली, अमरूद, कदंब, बैंगन, कोंहड़ा (काशीफल), शरीफ़ा, आम के बौर, कटहल, बेल (बेला, चमेली, जूहीवाला बेला नहों), अरहर, उड़द, चना, मसूर, मटर के फूल, सेमल के फूल। कदम (कदंब) के फूलों से पेड़ लदबाा जाता। कृष्ण जी उसी पर झूलते थे-‘झूला पड़ा कदम की डाली,’ ‘नददक नंद कदंबक तर्तर’। क्या कदंब और भी देशों में होता है? मुझे तो लगता है कदंब का दुनियाभर में एक ही पेड़ है-बिस्कोहर के पच्छूँ टोला में ताल के पास। सरसों के फूल का पीला सागर लहराता हुआ। खेतों में तेल-तेल की गंध, जैसे हवा उसमें अनेक रूपों में तैर रही हो। सरसों के अनवरत फूल-खेत सौंदर्य को कितना पावन बना देते हैं। बिसनाथ के गाँव में एक फल और बहुत इफ़रात होता था-उसे भरभंडा कहते थे, उसे ही शायद सत्यानाशी कहते हैं। नाम चाहे जैसा हो सुंदरता में उसका कोई जवाब नहीं। फूल पीली तितली जैसा, आँखें आने पर माँ उसका दूध आँख में लगातीं और दूबों के अनेक वर्णी छोटे-छोटे फूल-बचपन में इन सबको चखा है, सूँघा है, कानों में खोसा है। और देखिए-धान, गेहूँ, जौ के भी फूल होते हैं-ज़ीरे की शक्ल में-भुट्टे का फूल, धान के खेत और भुट्टे की गंध जो नहीं जानता उसे क्या कौन समझाए!

फूल खिले, खिले फूल
धान फूल, कोदो फूल
कुटकी फूल खिले।
फूल खिले, खिले फूल
गोभी फूल, परवल फूल
करेला, लौकी, खेक्सा
मिर्ची फूल खिले।
फूल खिले, खिले फूल
खीरा फूल, तोरई फूल
महुआ फूल खिले।
ऐसी हो बारिश
खूब फूल खिलें।

$\quad \quad$ -नवल शुक्ल

घास पात से भरे मेड़ों पर, मैदानों में, तालाब के भीटों पर नाना प्रकार के साँप मिलते थे। साँप से डर तो लगता था लेकिन वे प्रायः मिलते-दिखते थे। डोंड़हा और मजगिदवा विषहीन थे। डोंड़हा को मारा नहीं जाता। उसे साँपों में वामन जाति का मानते थे। धामिन भी विषहीन है लेकिन वह लंबी होती है, मुँह से कुश पकड़कर पूँछ से मार दे तो अंग सड़ जाए। सबसे खतरनाक गोंहुअन जिसे हमारे गाँव में ‘फेंटारा’ कहते थे और उतना ही खतरनाक ‘घोर कड़ाइच’ जिसके काट लेने पर आदमी घोड़े की तरह हिनहिनाकर मरे। फिर भटिहा-जिसके दो मुँह होते हैं। आम, पीपल, केवड़े की झाड़ी में रहनेवाले साँप बहुत खतरनाक।

अजीब बात है साँपों से भय भी लगता था और हर जगह अवचेतन में डर से ही सही उनकी प्रतीक्षा भी करते थे। छोटे-छोटे पौधों के बीच में सरसराते हुए साँप को देखना भी भयानक रस हो सकता है। इसी तरह बिच्छू! साँप के काटे लोग बहुत कम बचते थे। बिच्छू काटने से दर्द बहुत होता था, कोई मरता नहीं था। फूलों की गंधों से साँप, महामारी, देवी, चुड़ैल आदि का संबंध जोड़ा जाता था। गुड़हल का फूल देवी का फूल था। नीम के फूल और पत्ते चेचक में रोगी के पास रख दिए जाते। फूल बेर के भी होते हैं और उनकी गंध वन्य, मादक होती है। बसंत में फूल आते हैं। बेर का फूल सूँघकर बर्रे ततैया का डंक झड़ जाता है। तब उन्हें हाथ से पकड़ लेते, उन्हें जेब में भर लेते। उनकी कमर में धागा बाँधकर लड़ाते।

खूब गरमी चिलचिलाती पड़ती। घर में सबको सोता पाकर चुपके से निकल जाते, दुपहरिया का नाच देखते। गरमी में कभी-कभी लू लगने की घटनाएँ सुनाई पड़तीं। माँ लू से बचने के लिए धोती या कमीज़ से गाँठ लगाकर प्याज़ बाँध देतीं। लू लगने की दवा थी कच्चे आम का पन्ना। भूनकर गुड़ या चीनी में उसका शरबत पीना, देह में लेपना, नहाना। कच्चे आम को भून या उबालकर उससे सिर धोते थे। कच्चे आमों के झौंर के झौंर पेड़ पर लगे देखना, कच्चे आम की हरी गंध, पकने से पहले ही जामुन खाना, तोड़ना-यह गरमी की बहार थी। कटहल गरमी का फल और तरकारी भी है।

वर्षा ऐसे सीधे एकाएक नहीं आती थी। पहले बादल घिरते-गड़गड़ाहट होती। पूरा आकाश बादलों से ऐसा घिर जाता कि दिन में रात हो जाती। ‘चढ़ा असाढ़ गगन घन गाजा, घन घमंड गरजत घन घोरा और कंपित-जगम-नीड़ बिहंगम।’ वर्षा ऐसी ॠतु है जिसमें संगीत सबसे ज़्यादा होता है, तबला, मृदंग और सितार का। जोश ने लिखा है-‘बजा रहा है सितार पानी’ और वर्षा ऐसे नहीं-आती हुई दिखलाई पड़ती थी। मेरे घर की छत से-जैसे घोड़ों की कतार दूर से दौड़ी हुई चली आ रही हो-और पास, और पास अब नदी पर बरसा, अब डेगहर पर, अब बड़की बगिया पर, अब पड़ोस घर में टप टप टप, आँधी चले तो टीन छप्पर उड़े। कई दिन लगातार बरसे तो दीवार गिरे, घर धँसके-बढ़िया आवे। भीषण गरमी के बाद बरसात में पुलकित कुत्ते, बकरी, मुर्गी-मुर्गे-भौं भौं, में में, चूँ चूँ करते मगन बेमतलब इधर-उधर भागें, थिरकें। पहली वर्षा में नहाने से दाद-खाज, फोड़ा-फुँसी ठीक हो जाते हैं-लेकिन मछलियाँ कभी-कभी उबस के माँजा (फेन) लगने से भी मर जाती हैं-राजा दशरथ राम के बिरह में ऐसे व्याकुल ‘माँजा मनहु मीन कहँ व्यापा।’ जोंक, केंचुआ, ग्वालिन-जुगनू, अगनिहवा, बोका, करकच्ची, गोंजर आदि, मच्छर, डाँसा आदि कीड़े-मकोड़ों की बहुतायत-भूमि जीव संकुल रहे, किंतु नाना प्रकार के दूबों, वनस्पतियों की नव-हरित आभा की लहरों का क्या कहना-धोए-धोए पातन की बात ही निराली है!

फिर गंदगी कीचड़, बदबू की लदर-पदर। बाढ़ आवे, सिवान-खेत-खलिहान पानी से भर जाए तो दिसा-मैदान की भारी तकलीफ़। जलावन की लकड़ी पहले न इकट्ठा कर ली तो गीली लकड़ी, गीले कंडे से घर धुएँ से भर जाए। बरसात के बाद बिस्कोहर की धरती, सिवान, आकाश, दिशाएँ, तालाब, बूढ़ी राप्ती नदी निखर उठते थे। धान के पौधे झूमने लगते थे, भुट्टे, चरी, सनई के पौधे, करेले, खीरे, कांकर, भिंडी, तोरी के पौधे, फिर लताएँ। शरद में फूल-तालाब में शैवाल (सेवार) उसमें नीला जल-आकाश का प्रतिबिंब-नीले जल के कारण तालाब का जल अगाध लगता। स्नान करने से आत्मीय शीतलता और विशुद्धता की अनुभूति-तालाबों का नीला प्रसन्न जल-बिसनाथ को लगता अभी इसमें से कोई देवी-देवता प्रकट होगा। खेतों में पानी देने के लिए छोटी-छोटी नालियाँ बनाई जातीं, उसे ‘बरहा’ कहते थे, उसमें से जल सुरीला शब्द करता हुआ, शाही शान से बहता जैसे चाँदी की धारा रेंग रही हो, उस पर सूर्य की किरणें पड़तीं।

जाड़े की धूप और चैत की चाँदनी में ज़्यादा फ़र्क नहीं होता। बरसात की भीगी चाँदनी चमकती तो नहीं लेकिन मधुर और शोभा के भार से दबी ज़्यादा होती है। वैसे ही बिस्कोहर की वह औरत।

पहली बार उसे बढ़नी में एक रिश्तेदार के यहाँ देखा। बिसनाथ की उमर उससे काफ़ी कम है-ताज्जुब नहीं दस बरस कम हो, बिसनाथ दस से ज्यादा के नहीं थे। देखा तो लगा चाँदनी रात में, बरसात की चाँदनी रात में जूही की खुशबू आ रही है। बिस्कोहर में उन दिनों बिसनाथ संतोषी भइया के घर बहुत जाते थे। उनके आँगन में जूही लगी थी। उसकी खुशबू प्राणों में बसी रहती थी। यों भी चाँदनी में सफ़ेद फूल ऐसे लगते हैं मानो पेड़ों, लताओं पर चाँदनी ही फूल के रूप में दिखाई पड़ रही हो। चाँदनी भी प्रकृति, फूल भी प्रकृति और खुशबू भी प्रकृति। वह औरत बिसनाथ को औरत के रूप में नहीं, जूही की लता बन गई चाँदनी के रूप में लगी, जिसके फूलों की खुशबू आ रही थी। प्रकृति सजीव नारी बन गई थी और बिसनाथ उसमें आकाश, चाँदनी, सुगंधि सब देख रहे थे। वह बहुत दूर की चीज़ इतने नज़दीक आ गई थी। सौंदर्य क्या होता है, तदाकार परिणति क्या होती है? जीवन की सार्थकता क्या होती है; यह सब बाद में सुना, समझा, सीखा सब उसी के संदर्भ में। वह नारी मिली भी-बिसनाथ आजीवन उससे शरमाते रहे। उसकी शादी बिस्कोहर में ही हुई। कई बार मिलने के बाद बहुत हिम्मत बाँधने के बाद उस नारी से अपनी भावना व्यक्त करने के लिए कहा, “जे तुम्हैं पाइ जाइ ते जरूरै बौराय जाइ”-जो तुम्हें पा जाएगा वह ज़रूर ही पागल हो जाएगा।

“जाइ देव बिसनाथ बाबू, उनसे तौ हमार कब्बों ठीक से भेंटौ नाहीं भई।”

बिसनाथ मान ही नहीं सकते कि बिस्कोहर से अच्छा कोई गाँव हो सकता है और बिस्कोहर से ज़्यादा सुंदर कहीं की औरत हो सकती है।

बिसनाथ को अपनी माँ के पेट का रंग हल्दी मिलाकर बनाई गई पूड़ी का रंग लगता-गंध दूध की। पिता के कुर्ते को ज़रूर सूँघते। उसमें पसीने की बू बहुत अच्छी लगती। नारी शरीर से उन्हें बिस्कोहर की ही फसलों, वनस्पतियों की उत्कट गंध आती है। तालाब की चिकनी मिट्टी की गंध गेहूँ, भुट्टा, खीरा की गंध या पुआल की होती है…। फूले हुए नीम की गंध को नारी-शरीर या शृंगार से कभी नहीं जोड़ सकते। वह गंध मादक, गंभीर और असीमित की ओर ले जानेवाली होती है। संगीत, गंध, बच्चे-बिसनाथ के लिए सबसे बड़े सेतु हैं काल, इतिहास को पार करने के। बड़े गुलाम अली खाँ साहब ने एक पहाड़ी ठुमरी गाई है-अब तो आओ साजन-सुनें अकेले में या याद करें इस ठुमरी को तो रुलाई आती है और वही औरत इसमें व्याकुल नज़र आती है। अप्राप्ति की कितनी और कैसी प्राप्तियाँ होती हैं! वह सफ़ेद रंग की साड़ी पहने रहती है। घने काले केश सँवारे हुए हैं। आँखों में पता नहीं कैसी आर्द्र व्यथा है। वह सिर्फ़ इंतज़ार करती है। संगीत, नृत्य, मूर्ति, कविता, स्थापत्य, चित्र गरज कि हर कला रूप के आस्वाद में वह मौजूद है। बिसनाथ के लिए हर दुःख-सुख से जोड़ने की सेतु है।

इस स्मृति के साथ मृत्यु का बोध अजीब तौर पर जुड़ा हुआ है।

$\quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad \quad $ - ‘नंगातलाई का गाँव’ आत्मकथा का अंश

प्रश्न-अभ्यास

1. कोइयाँ किसे कहते हैं? उसकी विशेषताएँ बताइए।

2. ‘बच्चे का माँ का दूध पीना सिऱ़् दूध पीना नहीं, माँ से बच्चे के सारे संबंधों का जीवन-चरित होता है’-टिप्पणी कीजिए।

3. बिसनाथ पर क्या अत्याचार हो गया?

4. गरमी और लू से बचने के उपायों का विवरण दीजिए। क्या आप भी उन उपायों से परिचित हैं?

5. लेखक बिसनाथ ने किन आधारों पर अपनी माँ की तुलना बत्तख से की है?

6. बिस्कोहर में हुई बरसात का जो वर्णन बिसनाथ ने किया है उसे अपने शब्दों में लिखिए।

7. ‘फूल केवल गंध ही नहीं देते दवा भी करते हैं’, कैसे?

8. ‘प्रकृति सजीव नारी बन गई’-इस कथन के संदर्भ में लेखक की प्रकृति, नारी और सौंदर्य संबंधी मान्यताएँ स्पष्ट कीजिए।

9. ऐसी कौन सी स्मृति है जिसके साथ लेखक को मृत्यु का बोध अजीब तौर से जुड़ा मिलता है?

योग्यता-विस्तार

1. पाठ में आए फूलों के नाम, साँपों के नाम छाँटिए और उनके रूप, रंग, विशेषताओं के बारे में लिखिए।

2. इस पाठ से गाँव के बारे में आपको क्या-क्या जानकारियाँ मिलीं? लिखिए।

3. वर्तमान समय-समाज में माताएँ नवजात शिशु को दूध नहीं पिलाना चाहतीं। आपके विचार से माँ और बच्चे पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है?

शब्दार्थ और टिप्पणी

भसीण - कमलनाल, कमल का तना
कुमुद - जलपुष्प, कुइयाँ, कोकाबेली
सिंघाड़ा - जलफल, काँटेदार फल जो पानी में होता है
बतिया - फल का अविकसित रूप
प्रयोजन - उद्देश्य
कथरी - बिछौना
साफ़-सफ्फाक - साफ़ और स्वच्छ
इफ़रात - अधिकता
भीटों - टीले, ढूह
बरहा - खेतों की सिंचाई के लिए बनाई गई नाली
सुबुकना - धीमे स्वर में रोना
आँख आना - गरमियों के मौसम में आँख का रोग होना
थिरकना - नाचना
अगाध - भरपूर
आर्द्र - नमी



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